आप ‘वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य’ संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है ? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं ? चर्चा कीजिये। (200 words) [UPSC ...
भारतीय संविधान की धारा 105 संसद और उसके सदस्यों को विशेषाधिकार और उन्मुक्तियों (इम्यूनिटीज़) की सुरक्षा प्रदान करती है, लेकिन इन विशेषाधिकारों का विधिक संहिताकरण (कोडिफिकेशन) की अनुपस्थिति ने कई समस्याएँ उत्पन्न की हैं। विशेषाधिकारों के विधिक संहिताकरण की अनुपस्थिति के कारण: परंपरागत दृष्टिकोण: संसदRead more
भारतीय संविधान की धारा 105 संसद और उसके सदस्यों को विशेषाधिकार और उन्मुक्तियों (इम्यूनिटीज़) की सुरक्षा प्रदान करती है, लेकिन इन विशेषाधिकारों का विधिक संहिताकरण (कोडिफिकेशन) की अनुपस्थिति ने कई समस्याएँ उत्पन्न की हैं।
विशेषाधिकारों के विधिक संहिताकरण की अनुपस्थिति के कारण:
- परंपरागत दृष्टिकोण: संसदीय विशेषाधिकारों का अधिकांश हिस्सा परंपरागत और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित है, जिसे संवैधानिक रूप से स्पष्ट नहीं किया गया। इन विशेषाधिकारों का विकास समय के साथ हुआ है और इन्हें कानूनी रूप से संहिताबद्ध करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
- विधायी स्वतंत्रता: संसद की कार्यवाही और उसके विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने से संसदीय स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर प्रभाव पड़ सकता है। संसद अपने कार्यकलापों को स्वायत्त रूप से संचालित करने के लिए विशेषाधिकारों की आवश्यकता समझती है।
- अवसर की कमी: विशेषाधिकारों का विधिक संहिताकरण एक व्यापक और जटिल प्रक्रिया है, जिसे वर्तमान कानूनी और विधायी ढांचे में उचित स्थान और अवसर की कमी के कारण नहीं किया गया है।
समाधान:
- विशेषाधिकारों का विस्तृत अध्ययन और संहिताबद्धकरण: एक विशेष समिति गठित की जा सकती है जो संसद के विशेषाधिकारों का विस्तृत अध्ययन कर उन्हें विधिक रूप से संहिताबद्ध करे। इससे विशेषाधिकारों की सीमाएँ और दायरे स्पष्ट होंगे।
- संविधान में संशोधन: संविधान में आवश्यक संशोधन कर संसद और उसके सदस्यों के विशेषाधिकारों को और स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है, जिससे कानूनी असमंजस कम हो सके।
- सार्वजनिक और विधायिका की बातचीत: इस मुद्दे पर सार्वजनिक और विधायिका के बीच चर्चा बढ़ाई जा सकती है, जिससे एक सर्वसम्मति से विधिक संहिताकरण की दिशा में कदम उठाए जा सकें।
इन उपायों से संसदीय विशेषाधिकारों को स्पष्ट और व्यवस्थित किया जा सकता है, जिससे कानूनी पारदर्शिता और कार्यकुशलता में सुधार होगा।
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वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य एक मौलिक अधिकार है, जो व्यक्ति को अपने विचारों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने की अनुमति देता है। यह लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान करता है। हालांकि, इस स्वतंत्रता की सीमाएँ भी होती हैं। घृणा वाक् इस परिधि में आताRead more
वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य
एक मौलिक अधिकार है, जो व्यक्ति को अपने विचारों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने की अनुमति देता है। यह लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान करता है। हालांकि, इस स्वतंत्रता की सीमाएँ भी होती हैं।
घृणा वाक्
इस परिधि में आता है, क्योंकि यह न केवल अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है, बल्कि समाज में हिंसा और असहमति को भी बढ़ावा देता है। भारत में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात को स्पष्ट किया है कि घृणा वाक् को अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से भिन्न स्तर पर हैं क्योंकि फिल्में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाओं को दर्शाती हैं। भारतीय सिनेमा में सेंसरशिप और सामाजिक मानदंडों का प्रभाव अधिक होता है, जो कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति में सीमित करता है। इसके अलावा, व्यावसायिक लाभ और दर्शकों की संवेदनाएँ भी फिल्म निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जिससे कुछ विषयों पर प्रतिबंध या आत्म-नियमन हो सकता है।
इसलिए, वाक् और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का सही उपयोग समाज में सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जबकि घृणा वाक् का त्याग आवश्यक है।
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