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“महान्यायवादी भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है।" चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
महान्यायवादी (Attorney General) भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है। इस पद की प्रमुख जिम्मेदारियाँ और भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं: 1. विधि सलाहकार की भूमिका: महान्यायवादी भारत सरकार को विधिक सलाह प्रदान करता है और कानूनी मामलों में सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता है। यह पद विशेष रूप से संRead more
महान्यायवादी (Attorney General) भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है। इस पद की प्रमुख जिम्मेदारियाँ और भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं:
1. विधि सलाहकार की भूमिका:
महान्यायवादी भारत सरकार को विधिक सलाह प्रदान करता है और कानूनी मामलों में सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता है। यह पद विशेष रूप से संवैधानिक और प्रशासनिक मुद्दों पर सरकार की सहायता करता है, और उसकी सलाह सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
2. कानूनी प्रतिनिधित्व:
महान्यायवादी सरकार के पक्ष में न्यायालयों में प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट और अन्य न्यायालयों में सरकार की ओर से दलीलें प्रस्तुत करता है और सरकार के कानूनी मामलों में उसके हितों का संरक्षण करता है।
3. समीक्षा और सलाह:
महान्यायवादी विधायी प्रस्तावों और सरकारी निर्णयों की कानूनी समीक्षा करता है और सरकार को विधिक दृष्टिकोण से मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसके तहत, वह विभिन्न विधायी विधेयकों, आदेशों और नीतियों की कानूनी वैधता की समीक्षा करता है।
4. स्वतंत्रता और निष्पक्षता:
महान्यायवादी का कार्य स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, हालांकि यह भी महत्वपूर्ण है कि वह सरकार के प्रति निष्ठावान रहे। यह संतुलन बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है, ताकि कानूनी सलाह और प्रतिनिधित्व में निष्पक्षता और सरकार के दृष्टिकोण का उचित प्रतिनिधित्व हो।
5. अस्थायी स्थिति:
महान्यायवादी को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और उसकी नियुक्ति सरकार की इच्छा के आधार पर होती है। यह पद अस्थायी होता है और समय-समय पर बदला जा सकता है।
महान्यायवादी की ये भूमिकाएँ भारत की सरकार के कानूनी प्रबंधन में केंद्रीय महत्व रखती हैं। यह पद न केवल कानूनी सलाह प्रदान करता है, बल्कि सरकार की कानूनी स्थिति और नीति को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
See lessभारत के वित्तीय आयोग का गठन किस प्रकार किया जाता है? हाल में गठित वित्तीय आयोग के विचारार्थ विषय (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) के बारे में आप क्या जानते हैं? विवेचना कीजिए। (250 words) [UPSC 2018]
भारत के वित्तीय आयोग का गठन और टर्म्स ऑफ रेफरेंस वित्तीय आयोग का गठन: भारत में वित्तीय आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत किया जाता है। इसका उद्देश्य केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का वितरण और संघीय वित्तीय संबंधों को व्यवस्थित करना है। वित्तीय आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपतिRead more
भारत के वित्तीय आयोग का गठन और टर्म्स ऑफ रेफरेंस
वित्तीय आयोग का गठन:
भारत में वित्तीय आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत किया जाता है। इसका उद्देश्य केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का वितरण और संघीय वित्तीय संबंधों को व्यवस्थित करना है। वित्तीय आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। आयोग में एक अध्यक्ष और एक या दो सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। आयोग के अध्यक्ष और सदस्य आमतौर पर वित्तीय और प्रशासनिक अनुभव वाले व्यक्ति होते हैं।
हाल में गठित वित्तीय आयोग के टर्म्स ऑफ रेफरेंस:
1. वित्तीय समन्वय: आयोग को केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय समन्वय के लिए सुझाव देने का कार्य सौंपा गया है। इसमें राज्य सरकारों को प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता और उनकी योजनाओं के लिए आवश्यक अनुदान की सिफारिश शामिल है।
2. संसाधनों का वितरण: आयोग को यह तय करने की जिम्मेदारी दी जाती है कि केंद्रीय वित्तीय संसाधनों का वितरण राज्यों के बीच किस प्रकार किया जाएगा। इसमें केंद्रीय करों के आवंटन और राज्यों को दिए जाने वाले वित्तीय हिस्से की सिफारिश करना शामिल है।
3. ऋण और अन्य वित्तीय मामलों पर सलाह: आयोग को राज्य सरकारों के ऋणों की स्थिति और उनकी वित्तीय स्थिरता पर भी सलाह देने का कार्य सौंपा गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्यों की वित्तीय स्थिति सुदृढ़ रहे, आयोग राज्य सरकारों के ऋण प्रबंधन और वित्तीय अनुशासन पर भी विचार करता है।
4. विशेष समस्याओं पर ध्यान: आयोग को उन राज्यों या क्षेत्रों के लिए विशेष समाधान सुझाने का भी कार्य सौंपा गया है जो आर्थिक रूप से पिछड़े या विशेष समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इसमें विशेष अनुदान और वित्तीय सहायता की सिफारिश करना शामिल हो सकता है।
5. रिपोर्ट और सिफारिशें: वित्तीय आयोग अपनी रिपोर्ट को राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है, जिसमें वे अपने सिफारिशों को विस्तृत रूप से बताते हैं। रिपोर्ट को सरकार द्वारा लागू करने के लिए उचित कदम उठाए जाते हैं।
उपसंहार:
वित्तीय आयोग का गठन और इसके टर्म्स ऑफ रेफरेंस भारत के संघीय वित्तीय संरचना को संतुलित और व्यवस्थित रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं। आयोग के द्वारा की जाने वाली सिफारिशें और उनके आधार पर उठाए गए कदम केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय सहयोग को सुगम बनाते हैं और आर्थिक समन्वय को सुनिश्चित करते हैं।
See less"संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे आत्यंतिक शक्ति के रूप में विस्तृत नहीं किया जा सकता है।" इस कथन के आलोक में व्याख्या कीजिए कि क्या संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत अपनी संशोधन की शक्ति का विशदीकरण करके संविधान के मूल ढांचे को नष्ट कर सकती है ? (250 words) [UPSC 2019]
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. संविधान की संशोधन शक्ति: अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संRead more
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. संविधान की संशोधन शक्ति:
अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की शक्ति है, जो एक विधायी प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है। संशोधन के लिए संसद में प्रस्ताव पेश किया जाता है, और इसे दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है, उसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है।
2. संविधान के मूल ढांचे की रक्षा:
केशवानंद भारती केस (1973) में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं है। संविधान का मूल ढांचा उन आधारभूत सिद्धांतों और प्रावधानों का समूह है जो संविधान की स्थिरता और पहचान को बनाए रखते हैं। इनमें संघीय ढांचा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मौलिक अधिकार शामिल हैं।
3. संशोधन की सीमाएँ:
संसद की संशोधन शक्ति परिसीमित है, जिसका अर्थ है कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसा संशोधन प्रस्तावित करती है जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या उसे कमजोर करता है, तो वह संशोधन न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन की समीक्षा कर सकता है और यह तय कर सकता है कि क्या वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या नहीं।
इस प्रकार, संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करने की शक्ति नहीं है, और उसकी संशोधन शक्ति इस ढांचे के प्रति संरक्षित रहती है।
See lessकिन आधारों पर किसी लोक प्रतिनिधि को, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अधीन निरर्हित किया जा सकता है ? उन उपचारों का भी उल्लेख कीजिए जो ऐसे निरर्हित व्यक्ति को अपनी निरर्हता के विरुद्ध उपलब्ध हैं। (250 words) [UPSC 2019]
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत किसी लोक प्रतिनिधि को निरर्हित करने के आधार निम्नलिखित हैं: 1. अपराध और सजा: यदि कोई लोक प्रतिनिधि किसी गंभीर अपराध जैसे कि भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, या हिंसात्मक अपराध में दोषी पाया जाता है और उसे दो वर्ष या उससे अधिक की सजा मिलती है, तो उसे निरर्हित किया जा सकता हRead more
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत किसी लोक प्रतिनिधि को निरर्हित करने के आधार निम्नलिखित हैं:
1. अपराध और सजा:
यदि कोई लोक प्रतिनिधि किसी गंभीर अपराध जैसे कि भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, या हिंसात्मक अपराध में दोषी पाया जाता है और उसे दो वर्ष या उससे अधिक की सजा मिलती है, तो उसे निरर्हित किया जा सकता है।
2. आय और संपत्ति की जानकारी में असत्यापन:
यदि लोक प्रतिनिधि अपनी आय और संपत्ति की जानकारी प्रस्तुत करने में असफल रहता है या गलत जानकारी देता है, तो उसे निरर्हित किया जा सकता है।
3. निर्वाचन आयोग के नियमों का उल्लंघन:
यदि कोई प्रतिनिधि निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित नियमों और आचार संहिता का उल्लंघन करता है, तो उसे निरर्हित किया जा सकता है।
4. सदस्यता की अवमानना:
संसद या विधानमंडल की कार्यवाही में शामिल न होने या अनुपस्थित रहने के मामले में भी निरर्हता लगाई जा सकती है, यदि अनुपस्थिति की अवधि आवश्यक मानदंडों से अधिक हो।
उपचार:
1. अपील:
निरर्हता की स्थिति में व्यक्ति के पास उच्च न्यायालय में अपील करने का विकल्प होता है। व्यक्ति निरर्हता के आदेश को चुनौती देने के लिए कानूनी अपील कर सकता है।
2. पुनर्विचार याचिका:
विधानसभा या संसद के विशेष मामलों में, निरर्हता के आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है।
3. दूसरी बार चुनाव:
निर्णायक निरर्हता के बाद, व्यक्ति अगले चुनाव में पुनः चुनाव के लिए खड़ा हो सकता है, यदि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप सिद्ध नहीं हुए या उसने सजा का पालन कर लिया है।
इन उपचारों के माध्यम से निरर्हित व्यक्ति को अपनी निरर्हता के खिलाफ कानूनी उपाय उपलब्ध होते हैं।
See lessधर्मनिरपेक्षता को भारत के संविधान के उपागम से फ्रांस क्या सीख सकता है ? (150 words) [UPSC 2019]
भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता का उपागम फ्रांस के लिए कई महत्वपूर्ण सीखें प्रदान कर सकता है: 1. धर्मनिरपेक्षता का व्यावहारिक दृष्टिकोण: भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के रूप में लागू करता है। इसमें धर्म को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हिस्सRead more
भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता का उपागम फ्रांस के लिए कई महत्वपूर्ण सीखें प्रदान कर सकता है:
1. धर्मनिरपेक्षता का व्यावहारिक दृष्टिकोण:
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के रूप में लागू करता है। इसमें धर्म को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हिस्से के रूप में मान्यता दी जाती है, जबकि सरकार का धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप सीमित होता है। फ्रांस भी धर्मनिरपेक्षता को संप्रभुता के हिस्से के रूप में मान्यता देता है, लेकिन कभी-कभी इसे अधिक सख्ती से लागू किया जाता है।
2. धर्म और राज्य के बीच संतुलन:
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता के तहत धर्म और राज्य के बीच संतुलन बनाए रखता है, जहां राज्य सभी धर्मों के प्रति निष्पक्ष रहता है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा भी करता है। फ्रांस को इस संतुलन को समझने और लागू करने में मदद मिल सकती है, ताकि धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक व्यवस्था के बीच बेहतर संतुलन बनाया जा सके।
3. धार्मिक विविधता का सम्मान:
भारत का संविधान धार्मिक विविधता और बहुलता को स्वीकार करता है और उसे प्रोत्साहित करता है। यह फ्रांस को धार्मिक विविधता का सम्मान और इसे समाज में समावेशिता का हिस्सा बनाने के लिए प्रेरित कर सकता है।
इस प्रकार, भारत का धर्मनिरपेक्षता का उपागम फ्रांस के लिए धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समरसता के निर्माण में उपयोगी सबक हो सकता है।
See lessन्यायालयों के द्वारा विधायी शक्तियों के वितरण से संबंधित मुद्दों को सुलझाने से, 'परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त' और 'समरस अर्थान्वयन' उभर कर आए हैं। स्पष्ट कीजिए । (150 words) [UPSC 2019]
'परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त' और 'समरस अर्थान्वयन' भारतीय संविधान की संरचनात्मक और व्याख्यात्मक तासीर को समझने में महत्वपूर्ण हैं: 1. परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त: इस सिद्धान्त के तहत, जब संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विवाद होता है, तो संघ की शक्तियाँ सर्वोच्च मानी जाती हैं। यह सिद्धान्Read more
‘परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त’ और ‘समरस अर्थान्वयन’ भारतीय संविधान की संरचनात्मक और व्याख्यात्मक तासीर को समझने में महत्वपूर्ण हैं:
1. परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त:
इस सिद्धान्त के तहत, जब संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विवाद होता है, तो संघ की शक्तियाँ सर्वोच्च मानी जाती हैं। यह सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा उन मामलों में लागू किया जाता है जहाँ संविधान के तहत संघीय ढांचे की प्राथमिकता होती है। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई राज्य कानून संघीय कानून के साथ टकराता है, तो संघीय कानून को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे संघ की सर्वोच्चता सुनिश्चित होती है।
2. समरस अर्थान्वयन:
न्यायालय संविधान की धारा और उसकी विभिन्न स्तरीय व्यवस्थाओं को इस प्रकार व्याख्यायित करता है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाए रखा जा सके। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संविधान की प्रावधानों का प्रभावी और समरस तरीके से कार्यान्वयन हो, जिससे सभी स्तरों पर न्यायसंगत और समानुपातिक प्रशासन संभव हो सके। न्यायालय समरस अर्थान्वयन के माध्यम से विवादित मामलों में संतुलन और न्याय का लक्ष्य प्राप्त करने की कोशिश करता है।
इन सिद्धान्तों के माध्यम से, भारतीय संविधान संघीय संरचना में न्याय और संतुलन सुनिश्चित करता है।
See lessभारत में नीति-निर्माताओं को प्रभावित करने के लिए किसान संगठनों द्वारा क्या-क्या तरीके अपनाए जाते हैं और वे तरीके कितने प्रभावी हैं ? (150 words) [UPSC 2019]
भारत में किसान संगठनों द्वारा नीति-निर्माताओं को प्रभावित करने के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए जाते हैं: 1. प्रदर्शन और धरने: किसान संगठन अक्सर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और धरने आयोजित करते हैं, जैसे कि दिल्ली में किसानों की लंबी प्रदर्शन। ये प्रदर्शनों के माध्यम से वे अपनी मांगों को प्रभावशाली ढंग से पRead more
भारत में किसान संगठनों द्वारा नीति-निर्माताओं को प्रभावित करने के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाए जाते हैं:
1. प्रदर्शन और धरने:
किसान संगठन अक्सर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और धरने आयोजित करते हैं, जैसे कि दिल्ली में किसानों की लंबी प्रदर्शन। ये प्रदर्शनों के माध्यम से वे अपनी मांगों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
2. संवाद और वार्तालाप:
किसान संगठनों के नेता नीति-निर्माताओं के साथ नियमित संवाद और वार्तालाप करते हैं। ये बैठकें और चर्चाएँ नीति-निर्माण में बदलाव के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
3. मीडिया और प्रचार:
किसान संगठन मीडिया का व्यापक उपयोग करते हैं, जैसे कि प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोशल मीडिया अभियानों के माध्यम से अपनी समस्याओं को उजागर करते हैं। इससे उनकी समस्याएँ और मांगें व्यापक जनसमर्थन प्राप्त करती हैं।
4. कानूनी और कानूनी अभियान:
वे न्यायालय में याचिकाएँ दाखिल करते हैं और कानूनी मार्ग अपनाते हैं ताकि सरकारी नीतियों पर असर डाला जा सके।
इन तरीकों की प्रभावशीलता स्थिति और समय पर निर्भर करती है, लेकिन वे अक्सर नीति-निर्माताओं पर महत्वपूर्ण दबाव डालते हैं और नीतिगत निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं।
See less"केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण जिसकी स्थापना केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा या उनके विरुद्ध शिकायतों एवं परिवादों के निवारण हेतु की गई थी, आजकल एक स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के रूप में अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रहा है।" व्याख्या कीजिए । (150 words) [UPSC 2019]
केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) की स्थापना 1985 में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा या उनके विरुद्ध शिकायतों एवं परिवादों के निवारण हेतु की गई थी। यह प्रशासनिक मुद्दों पर विशेषज्ञता रखने वाला एक विशेष न्यायिक प्राधिकरण है। व्याख्या: 1. मूल उद्देश्य: CAT का मूल उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कर्मचाRead more
केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) की स्थापना 1985 में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा या उनके विरुद्ध शिकायतों एवं परिवादों के निवारण हेतु की गई थी। यह प्रशासनिक मुद्दों पर विशेषज्ञता रखने वाला एक विशेष न्यायिक प्राधिकरण है।
व्याख्या:
1. मूल उद्देश्य: CAT का मूल उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों की सेवाओं से संबंधित विवादों और शिकायतों को निपटाना था। यह अधिकरण प्रशासनिक निर्णयों और सेवा से संबंधित मामलों में निपटारा प्रदान करता है, जो सामान्य अदालतों की तुलना में अधिक विशेष और त्वरित प्रक्रिया में होता है।
2. स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण: समय के साथ, CAT ने अपनी भूमिका और शक्तियों को विस्तारित किया है। आजकल, यह एक स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है, जो न केवल कर्मचारियों की शिकायतों को निपटाता है, बल्कि प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा भी करता है। इसकी निरक्षमता और निष्पक्षता ने इसे एक प्रभावी न्यायिक मंच बना दिया है, जो केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के मामलों में महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम है।
इस प्रकार, CAT ने अपने प्रारंभिक उद्देश्य से आगे बढ़ते हुए एक स्वतंत्र और प्रभावी न्यायिक प्राधिकरण का रूप ले लिया है, जो प्रशासनिक विवादों का न्यायसंगत समाधान प्रदान करता है।
See lessक्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह 'नियंत्रण एवं संतुलन' के सिद्धान्त पर आधारित है ? व्याख्या कीजिए । (150 words) [UPSC 2019]
भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह 'नियंत्रण एवं संतुलन' के सिद्धान्त पर आधारित है। व्याख्या: 1. शक्ति का पृथक्करण: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है, लेकिन इसे कठोर पृथक्करण के बजाय लचीले तरीRead more
भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह ‘नियंत्रण एवं संतुलन’ के सिद्धान्त पर आधारित है।
व्याख्या:
1. शक्ति का पृथक्करण: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है, लेकिन इसे कठोर पृथक्करण के बजाय लचीले तरीके से लागू किया गया है। संघीय ढांचा शक्तियों के विभाजन को मान्यता देता है, परंतु कुछ क्षेत्रों में केंद्र को अधिक प्रभावी प्राधिकरण प्रदान किया गया है।
2. नियंत्रण और संतुलन: संविधान में ‘नियंत्रण और संतुलन’ का सिद्धान्त लागू होता है, जहाँ विभिन्न अंग (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) एक-दूसरे की शक्तियों की निगरानी और संतुलन बनाए रखते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति का वीटो अधिकार, उच्चतम न्यायालय की समीक्षा शक्ति, और संसद द्वारा विधायकों की नियुक्ति यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी अंग अत्यधिक शक्ति का प्रयोग न करे और सभी अंग आपस में संतुलित रहें।
इस प्रकार, भारतीय संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के बजाय एक समन्वित और संतुलित दृष्टिकोण को अपनाता है, जिससे प्रशासनिक और न्यायिक प्रणाली की कार्यप्रणाली को सुचारु रूप से संचालित किया जा सके।
See lessभारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। (150 words) [UPSC 2017]
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: समालोचनात्मक परीक्षण राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम, 2014 का उद्देश्य भारत की उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी और व्यावसायिक बनाना था। अधिनियम के तहत एक आयोग गठित कियाRead more
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: समालोचनात्मक परीक्षण
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम, 2014 का उद्देश्य भारत की उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी और व्यावसायिक बनाना था। अधिनियम के तहत एक आयोग गठित किया गया जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, और विधायी प्रतिनिधि शामिल थे, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने तर्क किया कि NJAC अधिनियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को कमजोर करता है। कोर्ट ने कहा कि आयोग में कार्यपालिका की अधिकतम भागीदारी न्यायपालिका के स्वतंत्र निर्णय लेने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकती है, जो संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है।
इस निर्णय ने न्यायपालिका की स्वायत्तता की रक्षा की और Collegium प्रणाली को बनाए रखा, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। हालांकि, इस प्रणाली में सुधार की आवश्यकता पर विवाद जारी है।
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