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भारत के संविधान में समानता के मूलाधिकार की समीक्षा कीजिये। (200 Words) [UPPSC 2018]
भारत के संविधान में समानता के मूलाधिकार भारत के संविधान में समानता के मूलाधिकार अनुभाग 14 से 18 के अंतर्गत आते हैं और ये नागरिकों को समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान करते हैं: अनुभाग 14: समानता का अधिकार - यह संविधान का एक मूल अधिकार है जो हर व्यक्ति को कानूनी समानता और समान सुरकRead more
भारत के संविधान में समानता के मूलाधिकार
भारत के संविधान में समानता के मूलाधिकार अनुभाग 14 से 18 के अंतर्गत आते हैं और ये नागरिकों को समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान करते हैं:
निष्कर्ष: भारतीय संविधान के समानता के मूलाधिकार सभी नागरिकों को कानूनी सुरक्षा और समान अवसर की गारंटी प्रदान करते हैं। ये अधिकार भेदभाव, सामाजिक असमानता, और अभाव को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं, जो सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देते हैं।
See lessराज्य सभा की उन विशिष्ट शक्तियों का वर्णन कीजिये, जो की भारतीय संविधान के अंतर्गत लोकसभा को प्राप्त नहीं हैं।(125 Words) [UPPSC 2018]
राज्य सभा की विशिष्ट शक्तियाँ संकल्प और संशोधन प्रस्ताव: राज्य सभा केवल संविधान संशोधन के प्रस्ताव पर प्रस्तावना और सहमति देने में सक्रिय भूमिका निभाती है। लोकसभा इस प्रक्रिया में स्वतंत्र होती है, लेकिन राज्य सभा के बिना संशोधन लागू नहीं हो सकता। नियुक्ति की शक्ति: राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त सदस्योंRead more
राज्य सभा की विशिष्ट शक्तियाँ
निष्कर्ष: राज्य सभा की विशिष्ट शक्तियाँ संविधान संशोधन, नियुक्तियाँ, और वित्तीय बिलों पर सीमित भूमिका निभाती हैं, जो लोकसभा के अधिकारों से भिन्न हैं।
See lessभारत की संघीय व्यवस्था किस प्रकार से अमरीकी (यू.एस.ए.) संघीय व्यवस्था से भिन्न है? व्याख्या करें। (125 Words) [UPPSC 2018]
भारत और अमेरिका की संघीय व्यवस्थाओं में भिन्नताएँ: संविधानिक संरचना: भारत: संघीय व्यवस्था में संविधान के अंतर्गत, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का वितरण होता है। केंद्र की शक्ति अधिक होती है और संविधान में राज्यक्षेत्र की सूची (सारणी) होती है, जिसमें शक्तियों का विभाजन होता है। अमेरिका: संघीयRead more
भारत और अमेरिका की संघीय व्यवस्थाओं में भिन्नताएँ:
निष्कर्ष: भारत की संघीय व्यवस्था केंद्र की अधिक शक्ति और एकल संविधान की विशेषता से अमेरिकी संघीय व्यवस्था से भिन्न है, जहां राज्यों को अधिक स्वायत्तता और शक्ति का विभाजन होता है।
See lessइलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ई० वी० एम०) के इस्तेमाल संबंधी हाल के विवाद के आलोक में, भारत में चुनावों की विश्वास्यता सुनिश्चित करने के लिए भारत के निर्वाचन आयोग के समक्ष क्या-क्या चुनौतियाँ हैं? (150 words) [UPSC 2018]
भारत में चुनावों की विश्वास्यता और ईवीएम विवाद चुनौतियाँ: ईवीएम पर संदेह: हाल के विवादों में ईवीएम की सुरक्षा और सटीकता पर सवाल उठाए गए हैं। इससे चुनाव परिणामों की विश्वास्यता प्रभावित हो सकती है। भारत के निर्वाचन आयोग को इन तकनीकी समस्याओं को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सार्वजनिक वRead more
भारत में चुनावों की विश्वास्यता और ईवीएम विवाद
चुनौतियाँ:
निष्कर्ष: भारत के निर्वाचन आयोग को ईवीएम के विवादों को सुलझाने के लिए तकनीकी और प्रशासनिक उपायों को लागू करना होगा, ताकि चुनावों की विश्वास्यता और पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके।
See lessक्या राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (एन० सी० एस० सी०) धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिए संवैधानिक आरक्षण के क्रियान्वयन का प्रवर्तन करा सकता है? परीक्षण कीजिए। (150 words) [UPSC 2018]
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) और धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में आरक्षण संवैधानिक दायित्व: राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जातियों के अधिकारों की रक्षा करना और उनकी स्थिति में सुधार लाना है। हालांकि, धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षRead more
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) और धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में आरक्षण
संवैधानिक दायित्व: राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जातियों के अधिकारों की रक्षा करना और उनकी स्थिति में सुधार लाना है। हालांकि, धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के क्रियान्वयन के संबंध में NCSC की भूमिका और अधिकार सीमित हैं।
क्रियान्वयन का प्रवर्तन:
निष्कर्ष: NCSC धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के आरक्षण के क्रियान्वयन का प्रत्यक्ष प्रवर्तन नहीं कर सकता, लेकिन यह निगरानी और सिफारिशें कर सकता है। प्रवर्तन का वास्तविक कार्य अन्य कानूनी और नियामक संस्थानों के जिम्मे होता है।
See less"नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सी० ए० जी०) को एक अत्यावश्यक भूमिका निभानी होती है।" व्याख्या कीजिए कि यह किस प्रकार उसकी नियुक्ति की विधि और शर्तों और साथ ही साथ उन अधिकारों के विस्तार से परिलक्षित होती है, जिनका प्रयोग वह कर सकता है। (150 words) [UPSC 2018]
नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) की भूमिका और अधिकार भुमिका: नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) भारत में सार्वजनिक वित्त के लेखा-जोखा और ऑडिट के लिए एक अत्यावश्यक भूमिका निभाता है। इसका मुख्य कार्य सरकारी खातों का स्वतंत्र और निष्पक्ष ऑडिट करना है, ताकि सार्वजनिक धन का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जाRead more
नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) की भूमिका और अधिकार
भुमिका: नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) भारत में सार्वजनिक वित्त के लेखा-जोखा और ऑडिट के लिए एक अत्यावश्यक भूमिका निभाता है। इसका मुख्य कार्य सरकारी खातों का स्वतंत्र और निष्पक्ष ऑडिट करना है, ताकि सार्वजनिक धन का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
नियुक्ति की विधि और शर्तें:
अधिकारों का विस्तार:
निष्कर्ष: सीएजी की नियुक्ति की विधि, शर्तें, और अधिकार उसकी अत्यावश्यक भूमिका को बनाए रखने में मदद करते हैं, जो सार्वजनिक वित्त के उचित प्रबंधन और सरकारी पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं।
See lessक्या उच्चतम न्यायालय का निर्णय (जुलाई 2018) दिल्ली के उप-राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच राजनैतिक कशमकश को निपटा सकता है? परीक्षण कीजिए। (250 words) [UPSC 2018]
उच्चतम न्यायालय का जुलाई 2018 का निर्णय: दिल्ली के उप-राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच राजनैतिक कशमकश पृष्ठभूमि: जुलाई 2018 में, उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली के उप-राज्यपाल (LG) और दिल्ली सरकार के बीच अधिकार क्षेत्र और कार्यक्षेत्र को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय दिया। यह मामला मुख्यतः दिल्ली सरकार और उप-रRead more
उच्चतम न्यायालय का जुलाई 2018 का निर्णय: दिल्ली के उप-राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच राजनैतिक कशमकश
पृष्ठभूमि: जुलाई 2018 में, उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली के उप-राज्यपाल (LG) और दिल्ली सरकार के बीच अधिकार क्षेत्र और कार्यक्षेत्र को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय दिया। यह मामला मुख्यतः दिल्ली सरकार और उप-राज्यपाल के बीच सत्ता संघर्ष से संबंधित था, जिसमें दोनों पक्षों के बीच विभिन्न मुद्दों पर विवाद था, विशेष रूप से नीति निर्माण, प्रशासनिक अधिकार और कार्यक्षेत्र की सीमाओं को लेकर।
निर्णय की मुख्य बातें:
प्रभाव और विश्लेषण:
उपसंहार: उच्चतम न्यायालय का जुलाई 2018 का निर्णय दिल्ली के उप-राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच अधिकार विवाद को स्पष्ट रूप से सुलझाने में महत्वपूर्ण था। इसने सरकार की स्वायत्तता को मान्यता दी और उप-राज्यपाल की भूमिका को सीमित किया, लेकिन संविधानिक विवादों को पूरी तरह समाप्त नहीं किया। यह निर्णय एक दिशा निर्देश प्रदान करता है, लेकिन भविष्य में उत्पन्न होने वाले विवादों को सुलझाने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना बनी रहती है।
See lessआप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम करते हैं? उपर्युक्त को दृष्टिगत रखते हुए भारत में अधिकरणों की संवैधानिक वैधता तथा सक्षमता की विवेचना कीजिए। (250 words) [UPSC 2018]
अधिकरणों की सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता पर प्रभाव और संवैधानिक वैधता अधिकरणों और सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता: अधिकरण, विशेष रूप से प्रशासनिक न्यायालय, विवादों का समाधान त्वरित और विशेषज्ञ तरीके से करने के लिए स्थापित किए जाते हैं। ये विशेष क्षेत्रीय या विषयगत मामलों पर विचार करते हैं और उनकाRead more
अधिकरणों की सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता पर प्रभाव और संवैधानिक वैधता
अधिकरणों और सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता:
अधिकरण, विशेष रूप से प्रशासनिक न्यायालय, विवादों का समाधान त्वरित और विशेषज्ञ तरीके से करने के लिए स्थापित किए जाते हैं। ये विशेष क्षेत्रीय या विषयगत मामलों पर विचार करते हैं और उनका उद्देश्य प्रक्रिया की दक्षता और विशेषज्ञता प्रदान करना है। हालांकि, इस व्यवस्था से यह भी चिंताएं उठी हैं कि अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम कर सकते हैं।
1. अधिकारिता में कमी: अधिकरण विशेष मामलों पर निर्णय लेते हैं, जो कभी-कभी सामान्य न्यायालयों के लिए शेष मुद्दों को प्रभावित कर सकते हैं। जब अधिकरण का निर्णय अंतिम होता है, तो यह सामान्य न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया को सीमित कर सकता है, जिससे सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता में कमी हो सकती है।
2. विशेषज्ञता का लाभ: अधिकरण विशेष मुद्दों पर विशेषज्ञता प्रदान करते हैं, जिससे जटिल मामलों का निपटारा जल्दी और अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से, अधिकरण सामान्य न्यायालयों की भूमिका को समर्थन प्रदान करते हैं, बजाय कि उसकी अधिकारिता को कम करते हैं।
संविधानिक वैधता और सक्षमता:
1. संवैधानिक वैधता: भारतीय संविधान की धारा 323A और 323B के तहत अधिकरणों की स्थापना की गई है, जो प्रशासनिक सुधारों के तहत विशेष न्यायिक निकायों को मान्यता देती है। ये अधिकरण संविधानिक रूप से मान्यता प्राप्त हैं और केंद्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा स्थापित किए जा सकते हैं।
2. सक्षमता: अधिकरणों की सक्षमता उस क्षेत्र में विशेषज्ञता पर आधारित होती है, जिस पर वे विचार करते हैं। उदाहरण के लिए, आयकर अपीलीय अधिकरण (ITAT) या केंद्रीय शासित विवाद समाधान अधिकरण (CAT) विशेष विषयों पर निर्णय लेते हैं। ये अधिकरण अपनी सक्षमता और विशेषज्ञता के लिए जाने जाते हैं, जिससे न्यायिक प्रक्रियाओं को सरल और अधिक प्रभावी बनाया जा सके।
3. न्यायिक समीक्षा: हालांकि अधिकरणों का निर्णय सामान्य न्यायालयों की पूर्ण समीक्षा से परे हो सकता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों को संविधान और कानून के अनुसार न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार, अधिकरणों के निर्णयों की अंतिम जांच की जाती है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि वे संविधानिक और कानूनी मानदंडों के अनुरूप हों।
उपसंहार:
अधिकरण सामान्य न्यायालयों की अधिकारिता को कम करने की बजाय, उन्हें विशेष मामलों में विशेषज्ञता और दक्षता प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान के तहत इनकी संवैधानिक वैधता सुनिश्चित की गई है और उनकी सक्षमता विशिष्ट मामलों पर निर्णय लेने में विशेष होती है। यद्यपि अधिकरणों के निर्णयों की अंतिम न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया बनी रहती है, परंतु वे प्रशासनिक न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
See lessराष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में अकेले एक संसद सदस्य की भूमिका अवनति की ओर है, जिसके फलस्वरूप वादविवादों की गुणता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ भी चुका है। चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. विधायी प्रभावशीलता की कमी: एक अकेला संसद सदस्य, विशRead more
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. विधायी प्रभावशीलता की कमी:
एक अकेला संसद सदस्य, विशेष रूप से एक छोटे दल या स्वतंत्र सदस्य, अक्सर विधायी प्रक्रिया में प्रभावी भूमिका निभाने में असमर्थ हो सकता है। उसके पास सीमित संसाधन, समर्थन और आवाज होती है, जो उसे प्रमुख मुद्दों पर प्रभाव डालने से रोकती है।
2. विवादों की गुणवत्ता:
एक सदस्य की सीमित शक्ति और संसाधनों के कारण, वादविवादों की गुणवत्ता में कमी हो सकती है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन और सूक्ष्म विवेचन की कमी हो सकती है, जो विधायिका के समग्र कार्यक्षमता को प्रभावित करती है।
3. संसदीय कार्यप्रणाली पर प्रभाव:
एक सदस्य की सीमित भूमिका के कारण, विधायिका में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। महत्वपूर्ण विधायी प्रस्तावों और निर्णयों में गहन बहस और विचार-विमर्श की कमी हो सकती है, जिससे पारदर्शिता और गुणात्मक निर्णयों पर असर पड़ता है।
4. संसदीय दायित्व और प्राथमिकताएँ:
अक्सर एक सदस्य की प्राथमिकताएँ और संसदीय दायित्व उसके स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं और उसकी व्यक्तिगत चिंताओं पर केंद्रित हो सकती हैं, जो राष्ट्रीय मुद्दों पर व्यापक दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।
5. समर्थन की कमी:
अकेला सदस्य अक्सर पार्टी के नेतृत्व, संसदीय दल, और संसदीय समितियों के समर्थन से वंचित रहता है। यह स्थिति उसे विधायी कार्यों में सक्रिय और प्रभावी भागीदारी में कठिनाई का सामना कराती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए, संसदीय प्रक्रियाओं में सुधार, दलगत सहयोग को बढ़ावा देना और संसदीय कार्यप्रणाली को अधिक समावेशी और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। इस प्रकार, एक सदस्य की भूमिका को मजबूत करने के लिए आवश्यक संसाधनों और समर्थन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
See lessभारत एवं यू० एस० ए० दो विशाल लोकतंत्र हैं। उन आधारभूत सिद्धांतों का परीक्षण कीजिए जिन पर ये दो राजनीतिक तंत्र आधारित है। (250 words) [UPSC 2018]
भारत और अमेरिका: आधारभूत सिद्धांतों का परीक्षण भारत और अमेरिका दोनों विशाल लोकतंत्र हैं, लेकिन उनके राजनीतिक तंत्र अलग-अलग आधारभूत सिद्धांतों पर आधारित हैं। भारत: 1. संसदीय लोकतंत्र: भारत का राजनीतिक तंत्र संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। इसमें सरकार का गठन संसद द्वारा होता है और प्रधानमंत्री संसद का सRead more
भारत और अमेरिका: आधारभूत सिद्धांतों का परीक्षण
भारत और अमेरिका दोनों विशाल लोकतंत्र हैं, लेकिन उनके राजनीतिक तंत्र अलग-अलग आधारभूत सिद्धांतों पर आधारित हैं।
भारत:
1. संसदीय लोकतंत्र: भारत का राजनीतिक तंत्र संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। इसमें सरकार का गठन संसद द्वारा होता है और प्रधानमंत्री संसद का सदस्य होता है। संसद के दो सदन हैं: लोकसभा और राज्यसभा।
2. संघीय प्रणाली: भारत में संघीय प्रणाली है, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का वितरण होता है। राज्यों को संविधान के तहत विशेष अधिकार और स्वायत्तता प्राप्त है, जबकि केंद्र सरकार की प्राथमिकता राष्ट्रीय मुद्दों पर होती है।
3. धर्मनिरपेक्षता: भारत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें राज्य धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता और सभी धर्मों को समान मान्यता और संरक्षण प्राप्त है।
4. बहुलवाद: भारत का राजनीतिक तंत्र बहुलवादी है, जिसमें विभिन्न जातियों, धर्मों और भाषाओं के समूहों का प्रतिनिधित्व किया जाता है। यह विविधता को सम्मानित करता है और समाज के विभिन्न हिस्सों के हितों को संतुलित करता है।
अमेरिका:
1. राष्ट्रपति प्रणाली: अमेरिका का राजनीतिक तंत्र राष्ट्रपति प्रणाली पर आधारित है। राष्ट्रपति को सीधे जनसंघ द्वारा चुना जाता है और वह सरकार के प्रमुख होते हैं। कांग्रेस, जो दो सदनों (सिनेट और प्रतिनिधि सभा) में विभाजित है, कानून बनाती है, जबकि राष्ट्रपति उसे लागू करता है।
2. संघीय प्रणाली: अमेरिका में भी संघीय प्रणाली है, जिसमें संघीय सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का वितरण होता है। राज्यों को संविधान के तहत विस्तृत अधिकार प्राप्त हैं, और संघीय सरकार केवल उन शक्तियों का प्रयोग कर सकती है जो संविधान में निर्दिष्ट हैं।
3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता: अमेरिका में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अमेरिकी संविधान का बिल ऑफ राइट्स व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं और अधिकारों की सुरक्षा करता है, जैसे स्वतंत्रता की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, और प्रेस की स्वतंत्रता।
4. पार्टी प्रणाली: अमेरिका की राजनीति में पार्टी प्रणाली प्रमुख भूमिका निभाती है, जिसमें दो प्रमुख दल—डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी—अधिकांश चुनावी परिदृश्य को नियंत्रित करते हैं। यह प्रणाली राजनीतिक स्थिरता और प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करती है।
उपसंहार:
भारत और अमेरिका दोनों ही विशाल लोकतांत्रिक तंत्र हैं, लेकिन उनके राजनीतिक सिद्धांत और संरचनाएं अलग-अलग हैं। भारत का संसदीय लोकतंत्र, संघीय प्रणाली, धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के सिद्धांतों पर आधारित है, जबकि अमेरिका का राष्ट्रपति प्रणाली, संघीय प्रणाली, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पार्टी प्रणाली पर जोर देता है। ये आधारभूत सिद्धांत उनके राजनीतिक तंत्रों की विशेषताएँ और कार्यप्रणाली को परिभाषित करते हैं।
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