Home/आधुनिक भारत/भारतीय इतिहास में व्यक्तित्वों का योगदान
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वर्तमान समय में महात्मा गाँधी के विचारों के महत्व पर प्रकाश डालिए। (150 words) [UPSC 2018]
वर्तमान समय में महात्मा गांधी के विचारों के महत्व 1. नैतिक नेतृत्व: महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा (सत्याग्रह) पर जोर आज के राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। 'मी टू' आंदोलन जैसे वैश्विक आंदोलनों में सत्य और न्याय की मांग ने गांधी के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया है। 2. पर्यRead more
वर्तमान समय में महात्मा गांधी के विचारों के महत्व
1. नैतिक नेतृत्व: महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा (सत्याग्रह) पर जोर आज के राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। ‘मी टू’ आंदोलन जैसे वैश्विक आंदोलनों में सत्य और न्याय की मांग ने गांधी के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया है।
2. पर्यावरणीय स्थिरता: गांधी का साधारण जीवन और आत्मनिर्भरता का सिद्धांत वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के संदर्भ में प्रासंगिक है। स्थानीय खाद्य आंदोलन और जिरो-वेस्ट जीवनशैली जैसी पहल गांधी के स्वदेशी विचारों को दर्शाती हैं।
3. सामाजिक न्याय: गांधी का सामाजिक असमानताओं और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष आज के सामाजिक आंदोलनों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एससी/एसटी अधिकार और लिंग समानता के लिए जारी संघर्ष उनके सिद्धांतों का अनुकरण करते हैं।
4. शिक्षा के माध्यम से सशक्तिकरण: गांधी का समग्र शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण आज के शैक्षिक सुधारों में परिलक्षित होता है। हाल के सुधारों में मूल्य आधारित शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जो गांधी के आदर्शों के साथ मेल खाता है।
सारांश में, गांधी के सिद्धांत आज की नैतिक प्रथाओं, पर्यावरणीय स्थिरता, सामाजिक न्याय और शिक्षा सुधारों में प्रासंगिक हैं।
See lessमहात्मा गाँधी भारतीय राजनीति के मध्यम मार्गी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं। तर्कपूर्ण व्याख्या कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2018]
महात्मा गाँधी और भारतीय राजनीति में मध्यम मार्गी दृष्टिकोण मध्यम मार्ग की अवधारणा: महात्मा गाँधी का मध्यम मार्गी दृष्टिकोण भारतीय राजनीति में अतिवादी विचारधाराओं और प्रतिक्रियात्मक उपायों के बीच संतुलन बनाने पर आधारित था। अहिंसा और सत्याग्रह: गाँधी ने सत्याग्रह (अहिंसात्मक प्रतिरोध) को अपनाया, जो आकRead more
महात्मा गाँधी और भारतीय राजनीति में मध्यम मार्गी दृष्टिकोण
मध्यम मार्ग की अवधारणा: महात्मा गाँधी का मध्यम मार्गी दृष्टिकोण भारतीय राजनीति में अतिवादी विचारधाराओं और प्रतिक्रियात्मक उपायों के बीच संतुलन बनाने पर आधारित था।
अहिंसा और सत्याग्रह: गाँधी ने सत्याग्रह (अहिंसात्मक प्रतिरोध) को अपनाया, जो आक्रामक संघर्ष और निष्क्रिय स्वीकृति के बीच का एक संतुलित रास्ता था। दांडी मार्च (1930) इसका प्रमुख उदाहरण है, जहाँ उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध के माध्यम से ब्रिटिश नीतियों का विरोध किया।
आर्थिक और सामाजिक संतुलन: गाँधी ने खादी और स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया, जो आर्थिक प्रगति और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन स्थापित करता है।
हाल के उदाहरण: गाँधी का मध्यम मार्गी दृष्टिकोण आज भी स्वच्छ भारत अभियान जैसी नीतियों में देखा जा सकता है, जो पारंपरिक प्रथाओं को बिना बाधित किए स्वच्छता और विकास को बढ़ावा देता है।
गाँधी का दृष्टिकोण भारतीय राजनीति में संतुलन और सामंजस्य के लिए एक प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है।
See lessमहात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में जनता को लामबद्ध करने हेतु और सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध, दोनों के लिए किए गए प्रतीकों और प्रतीकात्मक भाषा के उपयोग पर प्रकाश डालिए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक सुधारों के लिए प्रतीकों और प्रतीकात्मक भाषा का कुशलता से उपयोग किया। ये प्रतीकात्मक उपाय न केवल आंदोलन की पहचान बने बल्कि जनसामान्य को लामबद्ध करने और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता फैलाने में भी महत्वपूर्ण साबित हुए। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रतRead more
महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक सुधारों के लिए प्रतीकों और प्रतीकात्मक भाषा का कुशलता से उपयोग किया। ये प्रतीकात्मक उपाय न केवल आंदोलन की पहचान बने बल्कि जनसामान्य को लामबद्ध करने और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता फैलाने में भी महत्वपूर्ण साबित हुए।
राष्ट्रीय आंदोलन में प्रतीकों का उपयोग: गांधीजी ने सरल और प्रभावी प्रतीकों का चयन किया जो जनता के दिलों में गहरे उतरे। उदाहरण के लिए, खादी को उन्होंने स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया। खादी की वकालत करते हुए, उन्होंने ब्रिटिश वस्त्रों के बहिष्कार के लिए ‘नमक सत्याग्रह’ जैसी आंदोलनों का नेतृत्व किया। इसके अलावा, चक (घरेलू चरखा) भी एक प्रमुख प्रतीक था, जो न केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक था बल्कि ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के खिलाफ एक प्रतीकात्मक विरोध भी था।
सामाजिक बुराइयों के खिलाफ प्रतीकों का उपयोग: गांधीजी ने सामाजिक सुधारों के लिए भी प्रतीकात्मक भाषा का प्रभावी उपयोग किया। हरिजन शब्द का उपयोग कर उन्होंने जातिवाद के खिलाफ मुहिम चलायी और अस्पृश्यता के खिलाफ आह्वान किया। ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ जैसे सिद्धांतों का उपयोग कर उन्होंने शांति और सत्य के माध्यम से परिवर्तन की आवश्यकता को रेखांकित किया।
गांधीजी ने सत्याग्रह के माध्यम से जमीनी स्तर पर संघर्ष का आह्वान किया, जिसमें सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया। उनका यह तरीका जनता को संगठित करने और सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित करने में अत्यंत प्रभावी था। इन प्रतीकों और प्रतीकात्मक भाषाओं ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को एक सामाजिक और राजनीतिक शक्ति प्रदान की और जनता की भावनाओं को आंदोलित किया।
See less19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के संदर्भ में, शिक्षा और महिला अधिकारों के क्षेत्र में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का योगदान अतुलनीय है। विवेचना कीजिए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में, ईश्वर चंद्र विद्यासागर का योगदान शिक्षा और महिला अधिकारों के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण और अतुलनीय रहा है। उस समय भारतीय समाज में जातिवाद, अंधविश्वास, और महिला अधिकारों की कमी ने सामाजिक संरचना को प्रभावित किया था। विद्यासागर ने इस परिदृश्य को बदलने केRead more
19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में, ईश्वर चंद्र विद्यासागर का योगदान शिक्षा और महिला अधिकारों के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण और अतुलनीय रहा है। उस समय भारतीय समाज में जातिवाद, अंधविश्वास, और महिला अधिकारों की कमी ने सामाजिक संरचना को प्रभावित किया था। विद्यासागर ने इस परिदृश्य को बदलने के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाए।
शिक्षा के क्षेत्र में: विद्यासागर ने शिक्षा के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने बंगाली भाषा में आधुनिक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया और स्कूलों की स्थापना की। उनके प्रयासों से शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हुआ और उन्होंने महिला शिक्षा को प्रोत्साहित किया। विद्यासागर ने “बांग्ला ग्रामर” और “बांग्ला सर्कुलर” जैसे शिक्षण सामग्री का प्रकाशन किया, जिससे शिक्षा का स्तर उन्नत हुआ।
महिला अधिकारों के क्षेत्र में: विद्यासागर ने महिला अधिकारों के प्रति गहरी संवेदनशीलता दिखाई। उन्होंने सती प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ संघर्ष किया। 1856 में, उनके प्रयासों से विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (Act XV) पारित हुआ, जिसने विधवाओं के लिए पुनर्विवाह की अनुमति दी और समाज में महिला स्थिति में सुधार किया। उन्होंने महिलाओं के शिक्षा और स्वतंत्रता के समर्थन में कई भाषण और लेख लिखे, जिससे समाज में जागरूकता फैली।
विद्यासागर का सामाजिक सुधार कार्य उनके समय के पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए एक प्रगतिशील दिशा की ओर इशारा करता है। उनकी शिक्षाओं और सुधारात्मक उपायों ने न केवल तत्कालीन समाज को प्रभावित किया बल्कि आधुनिक भारत के सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा प्रभाव डाला। उनकी प्रतिबद्धता और दूरदर्शिता ने भारतीय समाज में शिक्षा और महिला अधिकारों के क्षेत्र में स्थायी परिवर्तन किया।
See lessवर्ण व्यवस्था पर गाँधी के विचारों का मूल्यांकन कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2020]
गांधी के वर्ण व्यवस्था पर विचार महात्मा गांधी ने वर्ण व्यवस्था को एक आदर्श सामाजिक प्रणाली के रूप में देखा, जो व्यक्ति की योग्यता और कर्तव्यों पर आधारित थी, न कि जाति या जन्म पर। गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था को सामाजिक समरसता और संगठन का साधन माना, जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता अनुसार भRead more
गांधी के वर्ण व्यवस्था पर विचार
महात्मा गांधी ने वर्ण व्यवस्था को एक आदर्श सामाजिक प्रणाली के रूप में देखा, जो व्यक्ति की योग्यता और कर्तव्यों पर आधारित थी, न कि जाति या जन्म पर। गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था को सामाजिक समरसता और संगठन का साधन माना, जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता अनुसार भूमिका निभाने का अवसर मिलता।
हालांकि, गांधी ने जातिवाद और अछूतों के प्रति भेदभाव की निंदा की। उन्होंने अछूतों के सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा की और उनकी स्थिति में सुधार के लिए सक्रिय रूप से काम किया।
गांधी का दृष्टिकोण था कि वर्ण व्यवस्था का सुधार और आधुनिकीकरण होना चाहिए, ताकि यह जातिवाद और सामाजिक असमानता को समाप्त कर सके।
निष्कर्ष: गांधी का वर्ण व्यवस्था पर दृष्टिकोण सुधारात्मक था, जिसमें सामाजिक न्याय और समरसता को प्राथमिकता दी गई।
See lessअपसारी उपागमों और रणनीतियों के होने के बावजूद, महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का दलितों की बेहतरी का एक समान लक्ष्य था। स्पष्ट कीजिये । (200 words) [UPSC 2015]
महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर दोनों का दलितों की बेहतरी के प्रति एक समान लक्ष्य था, हालांकि उनके उपागम और रणनीतियाँ भिन्न थीं। उनका मुख्य उद्देश्य दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और उनके अधिकारों की रक्षा करना था, लेकिन उनके दृष्टिकोण और समाधान की विधियाँ अलग-अलग थीं। महात्मा गांधी का दृष्Read more
महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर दोनों का दलितों की बेहतरी के प्रति एक समान लक्ष्य था, हालांकि उनके उपागम और रणनीतियाँ भिन्न थीं। उनका मुख्य उद्देश्य दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार और उनके अधिकारों की रक्षा करना था, लेकिन उनके दृष्टिकोण और समाधान की विधियाँ अलग-अलग थीं।
महात्मा गांधी का दृष्टिकोण:
गांधी जी ने दलितों को “हरिजन” (भगवान के लोग) कहा और उनका उद्देश्य था कि दलितों को समाज में सम्मानजनक स्थान मिले। उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान चलाया और सामाजिक सुधार की दिशा में काम किया। उनका दृष्टिकोण अधिक सुधारात्मक था और वे जाति व्यवस्था को समाप्त करने के बजाय सुधारित करना चाहते थे। उन्होंने “सत्याग्रह” और सामाजिक बहिष्कार का उपयोग करके दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का दृष्टिकोण:
डॉ. अम्बेडकर ने दलितों की स्थिति को संविधानिक और संरचनात्मक दृष्टिकोण से सुधारने पर जोर दिया। वे जातिवाद को पूरी तरह से समाप्त करने और समान अधिकारों की मांग में विश्वास करते थे। अम्बेडकर ने संविधान में दलितों के लिए विशेष अधिकार और आरक्षण की व्यवस्था की। उनका दृष्टिकोण अधिक संस्थागत था और उन्होंने सामाजिक सुधार के साथ-साथ कानूनी और राजनीतिक उपायों को प्राथमिकता दी।
समान लक्ष्य:
समाज में सुधार: दोनों नेताओं का समान लक्ष्य था कि दलितों की सामाजिक स्थिति में सुधार हो और उन्हें समाज में बराबरी का स्थान मिले।
अस्पृश्यता का उन्मूलन: गांधी और अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष किया और दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया।
शिक्षा और सामाजिक अधिकार: दोनों ने दलितों को शिक्षा और सामाजिक अधिकार प्रदान करने के महत्व को समझा और इस दिशा में कार्य किए।
हालांकि उनके उपागम और रणनीतियाँ भिन्न थीं—गांधी का अधिक सामाजिक सुधारात्मक दृष्टिकोण और अम्बेडकर का कानूनी और संविधानिक दृष्टिकोण—उनका लक्ष्य समान था: दलितों की सामाजिक स्थिति और अधिकारों में सुधार।
See lessमहात्मा गांधी के बिना भारत की स्वतंत्रता की उपलब्धि कितनी भिन्न हुई होती ? चर्चा कीजिये। (200 words) [UPSC 2015]
महात्मा गांधी का भारत की स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण था, और उनके बिना भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति का मार्ग और स्वरूप काफी भिन्न हो सकता था। गांधी जी की रणनीतियाँ, विचारधारा, और नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और उसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ। गांधी के योगदान:Read more
महात्मा गांधी का भारत की स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण था, और उनके बिना भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति का मार्ग और स्वरूप काफी भिन्न हो सकता था। गांधी जी की रणनीतियाँ, विचारधारा, और नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और उसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ।
गांधी के योगदान:
अहिंसात्मक प्रतिरोध:
गांधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह की विचारधारा को अपनाया, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नैतिक और जन समर्थ आधार प्रदान किया। उनका अहिंसात्मक प्रतिरोध ब्रिटिश सरकार के लिए नैतिक दवाब बनाने में सफल रहा और इसे दुनिया भर में व्यापक पहचान मिली।
जन जागरूकता और सहभागिता:
गांधी जी ने व्यापक जन आंदोलन जैसे चंपारण सत्याग्रह, नमक सत्याग्रह, और असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे आम लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल किया गया। इन आंदोलनों ने ग्रामीण और शहरी जनता को एकजुट किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक समर्थन उत्पन्न किया।
सामाजिक और राजनीतिक सुधार:
गांधी जी ने सामाजिक सुधारों पर भी ध्यान केंद्रित किया, जैसे जातिवाद के खिलाफ संघर्ष और अस्पृश्यता के उन्मूलन का अभियान। ये सुधार आंदोलनों ने स्वतंत्रता संग्राम को सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यापक रूप प्रदान किया।
गांधी के बिना संभावित परिदृश्य:
ब्रिटिश प्रतिक्रिया:
गांधी जी की अनुपस्थिति में ब्रिटिश शासन पर दवाब और आंदोलन की तीव्रता कम हो सकती थी। इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया अधिक लंबी और संघर्षपूर्ण हो सकती थी।
वैकल्पिक नेतृत्व:
अगर गांधी जी नहीं होते, तो नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, और अन्य नेताओं की वैकल्पिक रणनीतियाँ और दृष्टिकोण स्वतंत्रता आंदोलन को अलग दिशा में ले जा सकती थीं। बोस का सशस्त्र संघर्ष और नेहरू का अधिक आधिकारिक दृष्टिकोण स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया को बदल सकते थे।
सामाजिक संगठनों का रोल:
गांधी जी के बिना, स्वतंत्रता संग्राम में सामाजिक संगठनों और धार्मिक नेताओं की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो सकती थी। यह संभावित रूप से धार्मिक या सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ा सकता था।
इस प्रकार, महात्मा गांधी का योगदान भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रकृति, उसकी सामाजिक और राजनीतिक संरचना, और स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया को आकार देने में महत्वपूर्ण था। उनके बिना, स्वतंत्रता की प्राप्ति का मार्ग और स्वरूप संभवतः बहुत भिन्न होता।
See lessदलित अधिकारों के समर्थक के रूप में प्रसिद्ध होने के बावजूद, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का योगदान इससे कहीं अधिक है और इसमें कई अन्य विषय भी शामिल हैं। सविस्तार वर्णन कीजिए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर (1891-1956) केवल दलित अधिकारों के समर्थक नहीं थे, बल्कि वे भारतीय समाज और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका योगदान व्यापक और बहुपरकारी था, जिसमें विभिन्न सामाजिक, कानूनी, और आर्थिक पहलू शामिल हैं। सामाजिक सुधारक के रूप में, अम्बेडकरRead more
डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर (1891-1956) केवल दलित अधिकारों के समर्थक नहीं थे, बल्कि वे भारतीय समाज और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका योगदान व्यापक और बहुपरकारी था, जिसमें विभिन्न सामाजिक, कानूनी, और आर्थिक पहलू शामिल हैं।
सामाजिक सुधारक के रूप में, अम्बेडकर ने जातिवाद और सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने “अनंत” (The Annihilation of Caste) जैसे लेखों के माध्यम से जाति व्यवस्था की आलोचना की और समानता का संदेश फैलाया। उन्होंने दलितों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया, और बौद्ध धर्म को अपनाया, जिससे उन्होंने अपने अनुयायियों को नई पहचान और सामाजिक सम्मान प्राप्त करने में मदद की।
कानूनी विशेषज्ञ के रूप में, अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की निर्माण प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभाई। वे संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करने में अपने गहन कानूनी और सामाजिक ज्ञान का योगदान दिया। उनका संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करता है, और इसके माध्यम से उन्होंने सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।
आर्थिक योजनाकार के रूप में, अम्बेडकर ने भारतीय समाज के आर्थिक सुधार के लिए कई विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने भूमि सुधार, श्रम अधिकार, और आर्थिक समानता के पक्ष में कई प्रस्ताव दिए, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
अम्बेडकर का योगदान केवल दलित अधिकारों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के हर क्षेत्र में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके विचार और कार्य आज भी भारतीय समाज और राजनीति को प्रेरित करते हैं, और वे एक व्यापक और समग्र सामाजिक बदलाव के प्रतीक हैं।
See lessप्रमुख व्यक्तित्वों में, सरदार वल्लभभाई पटेल का भारत की एकता में योगदान निर्विवाद है। चर्चा कीजिए।(150 शब्दों में उत्तर दीजिए)
**सरदार वल्लभभाई पटेल** का भारत की एकता में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्विवाद है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता और 'सहयोगी' के रूप में पटेल ने कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं: 1. **राज्य विलय**: स्वतंत्रता के समय, भारत में 562 स्वतंत्र राज्य थे। पटेल ने डॉ. भीमराव अंबेडकर और वजीर हैदर कRead more
**सरदार वल्लभभाई पटेल** का भारत की एकता में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्विवाद है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता और ‘सहयोगी’ के रूप में पटेल ने कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं:
1. **राज्य विलय**: स्वतंत्रता के समय, भारत में 562 स्वतंत्र राज्य थे। पटेल ने डॉ. भीमराव अंबेडकर और वजीर हैदर के साथ मिलकर सभी राज्यों को भारतीय संघ में समाहित करने की प्रक्रिया को सुगम और सफलतापूर्वक संपन्न किया। उन्होंने अपनी कूटनीति और दबाव की रणनीति से लगभग सभी रियासतों को भारत में विलीन किया।
2. **संगठनात्मक क्षमताएँ**: पटेल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर संगठनात्मक सुधार किए और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एकता बनाए रखने के लिए विभिन्न धार्मिक और जातीय समूहों को एकत्रित किया।
3. **सार्वभौम विकास**: पटेल ने भूमि सुधार और सामाजिक न्याय के प्रयासों को बल दिया, जिससे भारतीय समाज में एकता और स्थिरता को बढ़ावा मिला।
इन प्रयासों के लिए, पटेल को ‘सरदार’ (देश का सरदार) की उपाधि मिली, और उनका योगदान आज भी भारतीय एकता और अखंडता के प्रतीक के रूप में मान्यता प्राप्त है।
See lessभारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद संबंधी दृष्टिकोण में अंतर्निहित प्रमुख सिद्धांतों को वर्णित कीजिए।(150 शब्दों में उत्तर दें)
रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद संबंधी दृष्टिकोण में मानवता और सार्वभौमिकता के सिद्धांत प्रमुख थे। उन्होंने राष्ट्रवाद को संकीर्ण, विभाजनकारी और आक्रामक विचारधारा के रूप में देखा, जो मानवता के व्यापक हितों के खिलाफ हो सकता था। टैगोर ने माना कि राष्ट्रवाद के नाम पर अतिवादी विचारधाराएं और हिंसा समाज मेRead more
रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद संबंधी दृष्टिकोण में मानवता और सार्वभौमिकता के सिद्धांत प्रमुख थे। उन्होंने राष्ट्रवाद को संकीर्ण, विभाजनकारी और आक्रामक विचारधारा के रूप में देखा, जो मानवता के व्यापक हितों के खिलाफ हो सकता था। टैगोर ने माना कि राष्ट्रवाद के नाम पर अतिवादी विचारधाराएं और हिंसा समाज में विभाजन पैदा करती हैं और स्वतंत्रता के सच्चे अर्थ को बाधित करती हैं।
टैगोर का मानना था कि राष्ट्र की सच्ची शक्ति उसकी सांस्कृतिक धरोहर, आध्यात्मिकता और मानवीय मूल्यों में निहित होती है, न कि सैन्य या आर्थिक शक्ति में। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन साथ ही चेतावनी दी कि राष्ट्रीयता की अतिरंजना से बचना चाहिए।
उनके अनुसार, राष्ट्रवाद को मानवता की सेवा में होना चाहिए, न कि अन्य राष्ट्रों के खिलाफ। टैगोर ने भारतीय समाज में आपसी सहयोग, सांस्कृतिक एकता और मानवता के प्रति संवेदनशीलता को प्राथमिकता दी, जो उनके राष्ट्रवाद संबंधी दृष्टिकोण की मूल भावना थी।
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