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हिन्दू विवाह की प्रकृति और धारणा में क्या परिवर्तन हुए हैं? समझाइए।
हिन्दू विवाह की प्रकृति और धारणा में परिवर्तन 1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पारंपरिक हिन्दू विवाह को एक सांस्कारिक (संसकार) संस्कार के रूप में देखा जाता था, जो धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ा होता था। यह एक स्थायी प्रतिबद्धता मानी जाती थी, जिसमें सामाजिक जिम्मेदारियों और पारिवारिक सम्मान पर जोरRead more
हिन्दू विवाह की प्रकृति और धारणा में परिवर्तन
1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
पारंपरिक हिन्दू विवाह को एक सांस्कारिक (संसकार) संस्कार के रूप में देखा जाता था, जो धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ा होता था। यह एक स्थायी प्रतिबद्धता मानी जाती थी, जिसमें सामाजिक जिम्मेदारियों और पारिवारिक सम्मान पर जोर दिया जाता था।
पारंपरिक हिन्दू विवाह के प्रमुख पहलू:
2. आधुनिकता और बदलते परिदृश्य
समय के साथ, सामाजिक, आर्थिक और कानूनी बदलावों ने हिन्दू विवाह की प्रकृति और धारणा को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है। निम्नलिखित परिवर्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:
A. विवाह के प्रकार में बदलाव
B. कानूनी सुधार और लिंग समानता
C. सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव
D. आर्थिक और सामाजिक प्रभाव
हालिया उदाहरण
निष्कर्ष
हिन्दू विवाह की प्रकृति और धारणा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, जो आधुनिकता, कानूनी सुधार, बदलते सामाजिक दृष्टिकोण और आर्थिक कारकों के कारण हैं। पारंपरिक व्यवस्थित विवाह से लेकर प्रेम विवाह, अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह की स्वीकृति, और विविध पारिवारिक संरचनाओं तक, ये परिवर्तन समकालीन भारतीय समाज और विवाह संबंधों के दृष्टिकोण को आकार दे रहे हैं।
See lessइस मुद्दे पर चर्चा कीजिये कि क्या और किस प्रकार दलित प्राख्यान (ऐसर्शन) के समकालीन आंदोलन जाति विनाश की दिशा में कार्य करते हैं। (200 words) [UPSC 2015]
दलित प्राख्यान (ऐसर्शन) के समकालीन आंदोलन और जाति विनाश दलित प्राख्यान का सशक्तिकरण समकालीन दलित आंदोलन दलित प्राख्यान (identity assertion) पर जोर देते हैं, जिसमें दलित समुदायों के इतिहास, संस्कृति और उनकी सामाजिक स्थिति की पहचान और सम्मान शामिल है। ये आंदोलन दलितों की सम्मानजनक पहचान और सामाजिक न्यRead more
दलित प्राख्यान (ऐसर्शन) के समकालीन आंदोलन और जाति विनाश
दलित प्राख्यान का सशक्तिकरण
समकालीन दलित आंदोलन दलित प्राख्यान (identity assertion) पर जोर देते हैं, जिसमें दलित समुदायों के इतिहास, संस्कृति और उनकी सामाजिक स्थिति की पहचान और सम्मान शामिल है। ये आंदोलन दलितों की सम्मानजनक पहचान और सामाजिक न्याय के लिए काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने दलित समुदाय के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जाति प्रणाली के खिलाफ संघर्ष
हालांकि ये आंदोलन दलितों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन जाति प्रणाली का पूर्ण विनाश इन आंदोलनों का केंद्रीय लक्ष्य नहीं होता। अधिकांश आंदोलन सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। रोहित वेमुला का मामला 2016 में जातिगत भेदभाव की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला था, जिसने सुधार की मांग को गति दी लेकिन जाति प्रणाली के मूल कारणों को खत्म नहीं किया।
हालिया उदाहरण
अम्बेडकराइट आंदोलन डॉ. भीमराव अंबेडकर के दृष्टिकोण पर आधारित है और जाति प्रणाली के खिलाफ बौद्ध धर्म को अपनाने का समर्थन करता है। दूसरी ओर, SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम दलितों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है लेकिन जाति भेदभाव के मूल कारणों का समाधान नहीं करता।
निष्कर्ष
See lessसमकालीन दलित आंदोलन दलित पहचान और न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। हालांकि, जाति का पूर्ण विनाश एक जटिल चुनौती है, जिसे पहचान assertion के अलावा सामाजिक, कानूनी और सांस्कृतिक परिवर्तनों की आवश्यकता है।
क्या कारण है कि भारत में जनजातियों को 'अनुसूचित जनजातियाँ' कहा जाता है? भारत के संविधान में प्रतिष्ठापित उनके उत्थापन के लिए प्रमुख प्रावधानों को सूचित कीजिए। (200 words) [UPSC 2016]
भारत में जनजातियों को 'अनुसूचित जनजातियाँ' क्यों कहा जाता है? अनुसूचित जनजातियाँ की परिभाषा भारत में जनजातियों को 'अनुसूचित जनजातियाँ' कहा जाता है क्योंकि वे भारतीय संविधान की अनुसूचित जनजातियों की सूची में विशेष रूप से उल्लिखित हैं। इस सूची में शामिल करना यह दर्शाता है कि ये समुदाय सामाजिक और आर्थिRead more
भारत में जनजातियों को ‘अनुसूचित जनजातियाँ’ क्यों कहा जाता है?
अनुसूचित जनजातियाँ की परिभाषा
भारत में जनजातियों को ‘अनुसूचित जनजातियाँ’ कहा जाता है क्योंकि वे भारतीय संविधान की अनुसूचित जनजातियों की सूची में विशेष रूप से उल्लिखित हैं। इस सूची में शामिल करना यह दर्शाता है कि ये समुदाय सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। ‘अनुसूचित’ शब्द यह संकेत करता है कि ये समुदाय संविधान द्वारा निर्धारित विशेष प्रावधानों के तहत आते हैं।
संविधान में प्रमुख प्रावधान
हालिया उदाहरण
वन अधिकार अधिनियम (2006) ने जनजातीय समुदायों को वन भूमि और संसाधनों पर अधिकार प्रदान किया है, जिससे उनके पारंपरिक अधिकारों को मान्यता मिली और ऐतिहासिक अन्याय को ठीक किया गया।
ये संवैधानिक प्रावधान और कानून सुनिश्चित करते हैं कि अनुसूचित जनजातियाँ उचित प्रतिनिधित्व, सुरक्षा और विकास के अवसर प्राप्त कर सकें, जिससे उनका समग्र उत्थान संभव हो सके।
See lessसमावेशी विकास के लिये महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण क्यों आवश्यक है? विस्तारूपर्वक वणन कीजिये। (200 Words) [UPPSC 2021]
समावेशी विकास के लिए महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण अत्यंत आवश्यक है, और इसके कई प्रमुख कारण हैं: आर्थिक वृद्धि: महिलाओं को शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, और रोजगार के अवसर प्रदान करने से उनकी उत्पादकता में वृद्धि होती है। यह न केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को सुधारता है, बल्कि देश की आर्थिक वृद्धि में भी योगदानRead more
समावेशी विकास के लिए महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण अत्यंत आवश्यक है, और इसके कई प्रमुख कारण हैं:
इस प्रकार, महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण समावेशी विकास को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार है, जो समाज के हर क्षेत्र में सुधार लाने में सहायक होता है।
See lessभारत में आन्तरिक मानव प्रवास के कारणों एवं परिणामों की व्याख्या कीजिए । (200 Words) [UPPSC 2023]
भारत में आन्तरिक मानव प्रवास के कारण: आर्थिक अवसर: ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी केंद्रों की ओर प्रवास का प्रमुख कारण बेहतर रोजगार के अवसर और उच्च वेतन की खोज है। औद्योगिकीकरण और सेवा क्षेत्रों का विकास लोगों को शहरों की ओर आकर्षित करता है। शैक्षिक अवसर: उच्च शिक्षा और विशेष प्रशिक्षण के लिए छात्रों औरRead more
भारत में आन्तरिक मानव प्रवास के कारण:
आन्तरिक मानव प्रवास के परिणाम:
इस प्रकार, आन्तरिक मानव प्रवास भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है, जिससे शहरीकरण, आर्थिक विकास, और क्षेत्रीय असमानताएँ उत्पन्न होती हैं।
See lessबहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज को समझने में क्या जाति की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है ? उदाहरणों सहित विस्तृत उत्तर दीजिए। (150 words)[UPSC 2020]
परिचय भारत एक बहु-सांस्कृतिक समाज है, जिसमें जाति प्राचीन काल से सामाजिक संरचना का एक प्रमुख हिस्सा रही है। हालांकि आधुनिक युग में लोकतंत्र और संवैधानिक सुधारों के बाद जातिगत भेदभाव पर कानूनी प्रतिबंध लगाए गए हैं, लेकिन जाति की प्रासंगिकता अब भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर बनी हुई है। जाति कRead more
परिचय
भारत एक बहु-सांस्कृतिक समाज है, जिसमें जाति प्राचीन काल से सामाजिक संरचना का एक प्रमुख हिस्सा रही है। हालांकि आधुनिक युग में लोकतंत्र और संवैधानिक सुधारों के बाद जातिगत भेदभाव पर कानूनी प्रतिबंध लगाए गए हैं, लेकिन जाति की प्रासंगिकता अब भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर बनी हुई है।
जाति की प्रासंगिकता
आज के समय में जाति आधारित असमानताएं और भेदभाव कम होने के बावजूद पूरी तरह समाप्त नहीं हुए हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा और रोजगार में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की नीति जाति की प्रासंगिकता को दर्शाती है। इसके अलावा, राजनीति में जाति आधारित वोट बैंक का भी प्रभाव बना हुआ है, जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जातिगत समीकरणों का चुनावी परिणामों पर सीधा प्रभाव देखा जा सकता है।
समाप्ति की ओर कदम
हालांकि शहरीकरण और शिक्षा के विस्तार के साथ जातिगत पहचान कम होती दिख रही है, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में जाति अभी भी सामाजिक संबंधों और विवाह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अलावा, दलित अत्याचार के मामले अब भी सामने आते हैं, जो जाति की प्रासंगिकता को दर्शाते हैं।
निष्कर्ष
See lessइस प्रकार, भले ही भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव समाप्त करने की दिशा में प्रयास जारी हैं, लेकिन जाति की प्रासंगिकता अभी भी बहु-सांस्कृतिक समाज के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में निहित है।
अपर्याप्त संसाधनों की दुनिया में भूमंडलीकरण एवं नए तकनीक के रिश्ते को भारत के विशेष सन्दर्भ में स्पष्ट करें। (250 words) [UPSC 2022]
परिचय अपर्याप्त संसाधनों की दुनिया में भूमंडलीकरण और नई तकनीक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भूमंडलीकरण से विचारों, वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है, जबकि नई तकनीक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और नवाचार में सहायक होती है। भारत जैसे विकासशील देशों में, जहां संसाधनों की कमी एक बड़ी चुनौती है, इRead more
परिचय
अपर्याप्त संसाधनों की दुनिया में भूमंडलीकरण और नई तकनीक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भूमंडलीकरण से विचारों, वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है, जबकि नई तकनीक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और नवाचार में सहायक होती है। भारत जैसे विकासशील देशों में, जहां संसाधनों की कमी एक बड़ी चुनौती है, इन दोनों का संबंध विशेष रूप से प्रासंगिक है।
अपर्याप्त संसाधनों पर भूमंडलीकरण का प्रभाव
भूमंडलीकरण ने औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण संसाधनों की मांग को बढ़ाया है। इससे संसाधनों का असमान वितरण हुआ है, जहां विकसित देशों को अधिक संसाधन मिलते हैं, जबकि विकासशील देशों को कमी का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, 2022 की वैश्विक ऊर्जा संकट ने भारत जैसे देशों को प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत को सौर और पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की ओर रुख करना पड़ा।
संसाधन प्रबंधन में नई तकनीक की भूमिका
नई तकनीकें अपर्याप्त संसाधनों के कुशल उपयोग में अहम योगदान देती हैं। नवीकरणीय ऊर्जा तकनीकें जैसे सोलर पैनल और पवन टरबाइन ने भारत में ऊर्जा की कमी को दूर करने में मदद की है। भारत अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के माध्यम से सौर ऊर्जा में वैश्विक नेतृत्व कर रहा है। इसके साथ ही, सटीक कृषि में ड्रोन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों का उपयोग पानी और उर्वरकों के कुशल उपयोग में हो रहा है।
भारत में भूमंडलीकरण और तकनीक
भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में भागीदारी ने विभिन्न क्षेत्रों में नई तकनीकों को अपनाने में मदद की है। उदाहरण के लिए, डिजिटल इंडिया पहल ने डिजिटल सेवाओं की पहुँच को बढ़ाया और संसाधनों के प्रबंधन में सुधार किया। ब्लॉकचेन जैसी तकनीकों का उपयोग सब्सिडी और संसाधनों के वितरण में पारदर्शिता और कुशलता लाने के लिए किया जा रहा है।
निष्कर्ष
See lessअपर्याप्त संसाधनों की दुनिया में भूमंडलीकरण और नई तकनीक के बीच का संबंध महत्वपूर्ण है। भारत के संदर्भ में, नई तकनीकों को अपनाना और भूमंडलीकरण का लाभ उठाना सतत विकास की दिशा में सहायक है। हालांकि, दीर्घकालिक समृद्धि के लिए विकास और संसाधन संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
भारत में विविधता के किन्हीं चार सांस्कृतिक तत्वों का वर्णन कीजिये और एक राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में उनके आपेक्षिक महत्व का मूल्य निर्धारण कीजिये।(200 words) [UPSC 2015]
भारत में सांस्कृतिक विविधता और राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में उनका महत्व 1. भाषा विविधता: भारत में भाषा की विविधता एक प्रमुख सांस्कृतिक तत्व है। यहाँ 22 अनुसूचित भाषाएँ और 1,600 से अधिक बोलियाँ हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी को मानक भाषाएँ माना जाता है, लेकिन क्षेत्रीय भाषाएँ जैसे तमिल, बंगाली, और मराठी भीRead more
भारत में सांस्कृतिक विविधता और राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में उनका महत्व
1. भाषा विविधता:
भारत में भाषा की विविधता एक प्रमुख सांस्कृतिक तत्व है। यहाँ 22 अनुसूचित भाषाएँ और 1,600 से अधिक बोलियाँ हैं। हिंदी और अंग्रेज़ी को मानक भाषाएँ माना जाता है, लेकिन क्षेत्रीय भाषाएँ जैसे तमिल, बंगाली, और मराठी भी सांस्कृतिक पहचान को प्रकट करती हैं। यह विविधता राष्ट्रीय एकता को सांस्कृतिक विविधता में समेटने का काम करती है, जिससे एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान बनती है।
2. धर्म और धार्मिक परंपराएँ:
भारत में धार्मिक विविधता देश की सांस्कृतिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य धर्मों के अनुयायी एक साथ रहते हैं। विभिन्न धर्मों की त्योहारों और अनुष्ठानों के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सह-अस्तित्व की भावना को बढ़ावा मिलता है, जो राष्ट्रीय एकता में योगदान करता है।
3. पारंपरिक कला और संगीत:
पारंपरिक कला और संगीत भारत की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हैं। कथक, भरतनाट्यम जैसी नृत्य शैलियाँ और गज़ल, भजन जैसे संगीत रूप एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संजोए गए हैं। ये सांस्कृतिक तत्व विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को दर्शाते हुए, एक साझा सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करते हैं।
4. भोजन संस्कृति:
भारत की भोजन संस्कृति भी विविधता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। विभिन्न राज्यों के खान-पान की अपनी विशेषताएँ हैं, जैसे पंजाबी और साउथ इंडियन व्यंजन। यह विविधता भारतीय खाद्य संस्कृति की गहरी जड़ों को दर्शाती है और विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं के मेल से राष्ट्रीय पहचान को नया आयाम प्रदान करती है।
निष्कर्ष:
See lessभारत की सांस्कृतिक विविधता के ये चार प्रमुख तत्व – भाषा, धर्म, कला-संगीत, और भोजन – न केवल देश की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं, बल्कि एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन तत्वों के माध्यम से एक समन्वित और सह-अस्तित्व की भावना विकसित होती है, जो भारतीय समाज की एकता और विविधता का प्रतीक है।
मुंबई, दिल्ली और कोलकाता देश के तीन विराट नगर हैं, परंतु दिल्ली में वायु प्रदूषण, अन्य दो नगरों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर समस्या है। इसका क्या कारण है ? (200 words) [UPSC 2015]
दिल्ली में वायु प्रदूषण की गंभीरता के कारण 1. भौगोलिक और मौसम संबंधी कारक: दिल्ली का भौगोलिक स्थिति और मौसम वायु प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। दिल्ली के इंडो-गैंगेटिक प्लेन में स्थित होने के कारण तापमान इन्वर्शन होता है, जो प्रदूषकों को सतह के पास फंसा देता है। मुंबई और कोलकाता की तटीय स्थिति इन प्रदूRead more
दिल्ली में वायु प्रदूषण की गंभीरता के कारण
1. भौगोलिक और मौसम संबंधी कारक: दिल्ली का भौगोलिक स्थिति और मौसम वायु प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। दिल्ली के इंडो-गैंगेटिक प्लेन में स्थित होने के कारण तापमान इन्वर्शन होता है, जो प्रदूषकों को सतह के पास फंसा देता है। मुंबई और कोलकाता की तटीय स्थिति इन प्रदूषकों को फैलाने में सहायक होती है।
2. वाहन उत्सर्जन: दिल्ली में वाहनों की घनता और पुराने वाहन वायु प्रदूषण में योगदान करते हैं। हाल के उदाहरण में, वैश्विक जलवायु सम्मेलन के बाद भी दिल्ली ने डिजल वाहनों के कारण उच्च उत्सर्जन स्तरों का सामना किया है।
3. औद्योगिक प्रदूषण: दिल्ली में औद्योगिक क्षेत्रों और निर्माण गतिविधियों के कारण वायु प्रदूषण बढ़ता है। निर्माण परियोजनाएं और खानूनी मानकों की अनुपालन की कमी ने प्रदूषण को और बढ़ा दिया है।
4. मौसमी कारक: सर्दी के मौसम में दिल्ली में फसल अवशेष जलाने के कारण PM2.5 कणों का स्तर बढ़ जाता है। पंजाब और हरियाणा में फसल अवशेष जलाने से दिल्ली का वायु गुणवत्ता प्रभावित होती है।
5. पर्यावरणीय नियमों की प्रवर्तन: मुंबई और कोलकाता में पर्यावरणीय नियमों का पालन अधिक सख्ती से होता है, जबकि दिल्ली में प्रवर्तन की कमी प्रदूषण को बढ़ाती है।
ये कारक मिलकर दिल्ली में वायु प्रदूषण को मुंबई और कोलकाता की तुलना में अधिक गंभीर बनाते हैं।
See lessपिछले चार दशकों में, भारत के भीतर और भारत के बाहर श्रमिक प्रवसन की प्रवृत्तियों में परिवर्तनों पर चर्चा कीजिये। (200 words) [UPSC 2015]
भारत के भीतर और बाहर श्रमिक प्रवसन की प्रवृत्तियों में परिवर्तन **1. आंतरिक श्रमिक प्रवसन पिछले चार दशकों में आंतरिक श्रमिक प्रवसन में महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। ग्रामीण-से-शहरी प्रवसन में वृद्धि देखी गई है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के लोग बेहतर रोजगार के अवसरों की खोज में शहरी क्षेत्रों की ओर बढ़ रहेRead more
भारत के भीतर और बाहर श्रमिक प्रवसन की प्रवृत्तियों में परिवर्तन
**1. आंतरिक श्रमिक प्रवसन
पिछले चार दशकों में आंतरिक श्रमिक प्रवसन में महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। ग्रामीण-से-शहरी प्रवसन में वृद्धि देखी गई है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के लोग बेहतर रोजगार के अवसरों की खोज में शहरी क्षेत्रों की ओर बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, बिहार और उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में लोग दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों में काम की तलाश में जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZs) और अधोसंरचना परियोजनाओं ने नए प्रवसन केंद्रों को जन्म दिया है।
**2. अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक प्रवसन
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक प्रवसन में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। मध्य पूर्व के देशों, जैसे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, में भारतीय श्रमिकों की बड़ी संख्या रही है, विशेष रूप से निर्माण और घरेलू कामकाजी क्षेत्रों में। हाल के वर्षों में, उच्च-कौशल वाले श्रमिकों के लिए प्रवसन का रुझान संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की ओर बढ़ा है। उदाहरण के लिए, H-1B वीजा कार्यक्रम ने अमेरिकी आईटी उद्योग में भारतीय पेशेवरों को आकर्षित किया है।
**3. हाल के उदाहरण और बदलाव
COVID-19 महामारी के दौरान, प्रवसन पैटर्न में उलटा प्रवसन देखा गया जब लाखों श्रमिक नौकरी छूटने और लॉकडाउन के कारण अपने गांवों की ओर लौटे। भारतीय सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना जैसी नीतियों के माध्यम से प्रवासियों की मदद की है।
**4. नीति और आर्थिक कारक
राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) जैसी नीतियों ने रोजगार के अवसरों को सुधारने और प्रवसन की आवश्यकता को कम करने का प्रयास किया है। वैश्वीकरण और डिजिटल परिवर्तन जैसे आर्थिक कारक भी श्रमिक प्रवसन को प्रभावित कर रहे हैं, जिसमें रिमोट वर्क और डिजिटल नोमैडिज़्म का बढ़ता महत्व शामिल है।
इस प्रकार, भारत के भीतर और बाहर श्रमिक प्रवसन की प्रवृत्तियों में आर्थिक, सामाजिक और नीति संबंधी बदलावों के परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
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