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'आधारिक संरचना' के सिद्धांत से प्रारंभ करते हुए, न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत एक उन्नतिशील लोकतंत्र के रूप में विकसित करे, एक उच्चतः अग्रलक्षी (प्रोऐक्टिव) भूमिका निभाई है। इस कथन के प्रकाश में, लोकतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति के लिए, हाल के समय में 'न्यायिक सक्रियतावाद' द्वारा निभाई भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। (200 words) [UPSC 2014]
'आधारिक संरचना' के सिद्धांत के अंतर्गत, न्यायपालिका ने भारत के लोकतंत्र की संरचना और उसकी मूलभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए एक सक्रिय भूमिका निभाई है। इस सिद्धांत के अनुसार, संविधान के मूलभूत ढांचे को किसी भी विधायिका या कार्यपालिका द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से, न्यायपालिका ने 'नRead more
‘आधारिक संरचना’ के सिद्धांत के अंतर्गत, न्यायपालिका ने भारत के लोकतंत्र की संरचना और उसकी मूलभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए एक सक्रिय भूमिका निभाई है। इस सिद्धांत के अनुसार, संविधान के मूलभूत ढांचे को किसी भी विधायिका या कार्यपालिका द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से, न्यायपालिका ने ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ (Judicial Activism) को अपनाते हुए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं, जो लोकतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति में सहायक रहे हैं।
हाल के समय में, न्यायिक सक्रियतावाद ने कई प्रमुख क्षेत्रों में अपनी भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए, ‘विवाह के अधिकार’ और ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ पर न्यायालय ने विस्तार से विचार किया है। ‘आधार’ और ‘प्रवासी श्रमिकों के अधिकार’ पर न्यायालय के फैसलों ने सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और असमानताओं को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
न्यायिक सक्रियतावाद ने सार्वजनिक हित में सरकार की नीतियों पर नजर रखने और संविधान की मूलभूत संरचना की रक्षा करने में योगदान दिया है। हालांकि, इसके साथ ही न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इसका हस्तक्षेप विधायिका और कार्यपालिका की स्वायत्तता में हस्तक्षेप न करे, ताकि लोकतंत्र का संतुलन बना रहे।
इस प्रकार, न्यायिक सक्रियतावाद ने भारत के उन्नतिशील लोकतंत्र के निर्माण में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, लेकिन इसके उपयोग में संतुलन और सावधानी की आवश्यकता है।
See less"वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि विनियामक संस्थाएँ स्वतंत्र और स्वायत्त बनी रहे।" पिछले कुछ समय में हुए अनुभवों के प्रकाश में चर्चा कीजिए। (200 words) [UPSC 2015]
विनियामक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता: पिछले अनुभवों के संदर्भ में चर्चा स्वतंत्रता की महत्वता: विनियामक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए अनिवार्य है। स्वतंत्र नियामक बिना बाहरी दबाव के निष्पक्ष निर्णय ले सकते हैं और सार्वजनिक हित की रक्षा कर सकते हैं। हालRead more
विनियामक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता: पिछले अनुभवों के संदर्भ में चर्चा
स्वतंत्रता की महत्वता: विनियामक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए अनिवार्य है। स्वतंत्र नियामक बिना बाहरी दबाव के निष्पक्ष निर्णय ले सकते हैं और सार्वजनिक हित की रक्षा कर सकते हैं।
हाल के अनुभव:
चुनौतियाँ और सुझाव:
निष्कर्ष: हाल के अनुभव यह दर्शाते हैं कि विनियामक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। बाहरी दबावों से मुक्त होकर ये संस्थाएँ सार्वजनिक हित की रक्षा कर सकती हैं और अपने नियामक उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूरा कर सकती हैं।
See less"यदि संसद में पटल पर रखे गए व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 के संशोधन बिल को पारित कर दिया जाता है, तो हो सकता है कि सुरक्षा प्रदान करने के लिए कोई बचे ही नहीं।" समालोचनापूर्वक मूल्यांकन कीजिए। (200 words) [UPSC 2015]
व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 के संशोधन बिल का समालोचनापूर्वक मूल्यांकन व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 का पृष्ठभूमि: व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2011 को सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों में भ्रष्टाचार या दुराचार को उजागर करने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पारित किया गया था। इसका उद्Read more
व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 के संशोधन बिल का समालोचनापूर्वक मूल्यांकन
व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 का पृष्ठभूमि: व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2011 को सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों में भ्रष्टाचार या दुराचार को उजागर करने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पारित किया गया था। इसका उद्देश्य व्हिसलब्लोअर्स को प्रतिशोध और उत्पीड़न से बचाना था।
संशोधन बिल के साथ चिंताएँ:
निष्कर्ष: यदि संशोधन बिल पारित हो जाता है, तो व्हिसलब्लोअर्स अधिनियम, 2011 द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा को गंभीर रूप से कमजोर किया जा सकता है। प्रभावी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अधिनियम को मजबूत संरक्षित उपायों को बनाए रखना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि शिकायत प्रक्रिया सुलभ और प्रभावी हो। इन मुद्दों को संबोधित करना महत्वपूर्ण है ताकि व्यक्ति भ्रष्टाचार और दुराचार की रिपोर्ट करने के लिए सुरक्षित महसूस कर सकें।
See lessअध्यादेशों का आश्रय लेने ने हमेशा ही शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत की भावना के उल्लंघन पर चिंता जागृत की है। अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति के तर्काधार को नोट करते हुए विश्लेषण कीजिए कि क्या इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विनिश्चयों ने इस शक्ति का आश्रय लेने को और सुगम बना दिया है। क्या अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति का निरसन कर दिया जाना चाहिए? (200 words) [UPSC 2015]
अध्यादेशों का उपयोग, विशेषकर भारतीय संविधान के तहत, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है। अध्यादेशों का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 123 और 213 के तहत है, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को विशेष परिस्थितियों में तत्काल कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति आपातकाRead more
अध्यादेशों का उपयोग, विशेषकर भारतीय संविधान के तहत, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है। अध्यादेशों का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 123 और 213 के तहत है, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को विशेष परिस्थितियों में तत्काल कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति आपातकालीन परिस्थितियों में आवश्यक होती है, लेकिन इसके दुरुपयोग की आशंका रहती है।
उच्चतम न्यायालय ने कई बार इस शक्ति के दुरुपयोग को लेकर चिंता व्यक्त की है। कोर्ट ने तय किया है कि अध्यादेशों का उपयोग तब किया जा सकता है जब वास्तव में तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता हो और जब विधायिका का सत्र न हो। न्यायालय ने यह भी कहा है कि अध्यादेशों का दुरुपयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए, और उनका उद्देश्य न केवल तात्कालिक कानून बनाना बल्कि स्थायी कानूनों को लागू करना भी नहीं होना चाहिए।
इसलिए, अध्यादेशों की शक्ति का निरसन नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह एक आवश्यक संवैधानिक प्रावधान है। लेकिन, इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कड़ी निगरानी और कानूनी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसका उपयोग संविधान की भावना के अनुसार ही हो।
See lessहाल के वर्षों में सहकारी परिसंघवाद की संकल्पना पर अधिकाधिक बल दिया जाता रहा है। विद्यमान संरचना में असुविधाओं और सहकारी परिसंघवाद किस सीमा तक इन असुविधाओं का हल निकाल लेगा, इस पर प्रकाश डालिए। (200 words) [UPSC 2015]
सहकारी परिसंघवाद, जिसमें संघीय और राज्य सरकारों के बीच सहयोग को महत्व दिया जाता है, वर्तमान संरचना की कुछ प्रमुख असुविधाओं को संबोधित करता है। असुविधाएँ: अधिकरण की विखंडनता: शक्तियों का विभाजन विभिन्न स्तरों पर अस्थिरता और प्रभावशीलता की कमी को जन्म दे सकता है, जिससे नीतियों के कार्यान्वयन में कठिनाRead more
सहकारी परिसंघवाद, जिसमें संघीय और राज्य सरकारों के बीच सहयोग को महत्व दिया जाता है, वर्तमान संरचना की कुछ प्रमुख असुविधाओं को संबोधित करता है।
असुविधाएँ:
अधिकरण की विखंडनता: शक्तियों का विभाजन विभिन्न स्तरों पर अस्थिरता और प्रभावशीलता की कमी को जन्म दे सकता है, जिससे नीतियों के कार्यान्वयन में कठिनाइयाँ आती हैं।
समन्वय की समस्याएँ: संघीय और राज्य एजेंसियों के बीच असंगठित प्रयास, राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभावी समाधान करने में देरी और असंगति पैदा कर सकते हैं।
संसाधन असमानता: राज्यों के बीच असमान संसाधन वितरण, क्षेत्रीय असमानताओं को बढ़ावा दे सकता है, जिससे सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
स्वार्थों का टकराव: विभिन्न स्तरों की सरकारों के बीच प्राथमिकताओं में टकराव, प्रभावी शासन को बाधित कर सकता है।
सहकारी परिसंघवाद के समाधान:
सुधारित समन्वय: यह संघीय और राज्य सरकारों के बीच संयुक्त पहलों और समझौतों को बढ़ावा देता है, जिससे राष्ट्रीय मुद्दों जैसे कि स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा, और शिक्षा पर समन्वित प्रयास किए जा सकते हैं।
See lessसंसाधन साझेदारी: सहयोग की भावना से संसाधनों और विशेषज्ञता का साझा उपयोग संभव होता है, असमानता को कम करता है और संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित करता है।
एकीकृत रणनीति: यह नीति निर्माण में राज्य और संघीय उद्देश्यों को जोड़ता है, जिससे नीतिगत टकराव कम होते हैं और नीति की समग्रता में सुधार होता है।
लचीला शासन: यह राज्यों को संघीय कार्यक्रमों को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करने की अनुमति देता है, जिससे शासन की प्रतिक्रिया और प्रभावशीलता में सुधार होता है।
इस प्रकार, सहकारी परिसंघवाद संरचनात्मक असुविधाओं को कम कर, बेहतर समन्वय, संसाधन समानता और नीति में सामंजस्य को बढ़ावा देता है।
चर्चा कीजिए कि वे कौन-से संभावित कारक हैं जो भारत को राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व में प्रदत्त के अनुसार अपने नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता को अभिनियमित करने से रोकते हैं। (200 words) [UPSC 2015]
भारत में समान सिविल संहिता (UCC) को लागू करने में कई कारक बाधा डालते हैं: धार्मिक विविधता: भारत में विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं, जैसे हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, और ईसाई कानून। इन विविधताओं को एक समान संहिता में समेटना कठिन है, क्योंकि प्रत्येक समुदाय अपनेRead more
भारत में समान सिविल संहिता (UCC) को लागू करने में कई कारक बाधा डालते हैं:
धार्मिक विविधता: भारत में विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं, जैसे हिंदू कानून, मुस्लिम कानून, और ईसाई कानून। इन विविधताओं को एक समान संहिता में समेटना कठिन है, क्योंकि प्रत्येक समुदाय अपने पारंपरिक कानूनों को संरक्षित रखना चाहता है।
राजनीतिक संवेदनशीलता: UCC एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा है। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे पर एकराय नहीं बना पाते। खासकर धार्मिक आधार पर वोटिंग के चलते किसी भी बदलाव से राजनीतिक हानि का डर होता है।
सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यता: कई समुदाय अपने धार्मिक कानूनों को सांस्कृतिक और पहचान से जुड़े मुद्दों के रूप में देखते हैं। UCC के माध्यम से इन कानूनों में बदलाव करने से इन समुदायों के पहचान पर खतरा माना जाता है।
कानूनी और व्यवस्थागत चुनौतियाँ: समान सिविल संहिता को लागू करने के लिए जटिल कानूनी और व्यवस्थागत ढांचे की आवश्यकता होती है। इसके लिए सभी समुदायों का समर्थन और व्यापक सलाह-मशविरा आवश्यक है, जो कठिन हो सकता है।
इन कारकों के कारण, भारत में UCC को लागू करने में कठिनाई आती है, जिससे समानता और न्याय की दिशा में कदम उठाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
See lessक्या स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार में दीवाली के दौरान पटाखे जलाने के विधिक विनियम भी शामिल हैं? इस पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के, और इस संबंध में शीर्ष न्यायालय के निर्णय/निर्णयों के, प्रकाश में चर्चा कीजिए। (200 words) [UPSC 2015]
स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से जुड़ा है। इस अधिकार का विस्तार स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार तक किया गया है। दीवाली जैसे त्योहारों के दौरान पटाखे जलाने के विधिक विनियम इस अधिकार की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। अनुच्छेदRead more
स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से जुड़ा है। इस अधिकार का विस्तार स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार तक किया गया है। दीवाली जैसे त्योहारों के दौरान पटाखे जलाने के विधिक विनियम इस अधिकार की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अनुच्छेद 21 और पर्यावरण का अधिकार:
अनुच्छेद 21: यह अनुच्छेद जीवन का अधिकार प्रदान करता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक रूप से व्याख्यायित किया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जीवन स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण में जीया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय:
वेल्लोर सिटीजन्स वेलफेयर फोरम बनाम संघ भारत (1996): इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत आता है और यह सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है कि प्रदूषण पर नियंत्रण रखा जाए।
See lessM.C. Mehta बनाम संघ भारत (2005): सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों से होने वाले वायु प्रदूषण पर विचार करते हुए, यह कहा कि पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए विधिक उपाय किए जाने चाहिए। अदालत ने वायु गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए पटाखों की बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए।
M.C. Mehta बनाम संघ भारत (2018): इस निर्णय में, कोर्ट ने दीवाली के दौरान पटाखों पर अतिरिक्त प्रतिबंध लागू किए ताकि वायु प्रदूषण को कम किया जा सके। अदालत ने पटाखों के निर्माण और बिक्री पर नियंत्रण के लिए आदेश दिए।
निष्कर्ष:
स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 के तहत आता है, दीवाली जैसे त्योहारों के दौरान पटाखों के उपयोग पर विधिक विनियम को सही ठहराता है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण की समस्या को ध्यान में रखते हुए पटाखों पर नियंत्रण के लिए कदम उठाए हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उत्सवों के दौरान भी पर्यावरण सुरक्षित रहे।
अर्ध-न्यायिक (न्यायिकवत्) निकाय से क्या तात्पर्य है? ठोस उदाहरणों की सहायता से स्पष्ट कीजिए । (200 words) [UPSC 2016]
अर्ध-न्यायिक (क्वासी-जुडिशियल) निकाय ऐसे संगठन या एजेंसियाँ होती हैं जिन्हें न्यायालय की तरह निर्णय लेने, विवाद सुलझाने, और नियमों का पालन सुनिश्चित करने की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, लेकिन ये पारंपरिक न्यायालय नहीं होतीं। ये निकाय विशेष क्षेत्रों में विशेषज्ञता के साथ कार्य करते हैं और उनके निर्णयRead more
अर्ध-न्यायिक (क्वासी-जुडिशियल) निकाय ऐसे संगठन या एजेंसियाँ होती हैं जिन्हें न्यायालय की तरह निर्णय लेने, विवाद सुलझाने, और नियमों का पालन सुनिश्चित करने की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, लेकिन ये पारंपरिक न्यायालय नहीं होतीं। ये निकाय विशेष क्षेत्रों में विशेषज्ञता के साथ कार्य करते हैं और उनके निर्णय कानूनी प्रभाव डालते हैं, जिनकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
विशेषताएँ:
निर्णय लेने की शक्ति: इन निकायों को विवादों का समाधान और नियमों का प्रवर्तन करने का अधिकार होता है।
प्रक्रियात्मक लचीलापन: इनके कामकाज की प्रक्रिया पारंपरिक अदालतों की तुलना में कम औपचारिक होती है, लेकिन निष्पक्षता बनाए रखती है।
न्यायिक कार्य: ये कानूनों की व्याख्या कर सकती हैं, विशेष मुद्दों पर निर्णय ले सकती हैं, और दंड या दंडादेश भी दे सकती हैं।
ठोस उदाहरण:
निर्वाचन आयोग: भारत में यह आयोग चुनावों का आयोजन और निगरानी करता है। चुनावी नियमों का उल्लंघन करने पर वह उम्मीदवारों को अयोग्य ठहरा सकता है और चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकता है।
सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (SEBI): SEBI भारतीय वित्तीय बाजारों का नियमन करता है। यह बाजार नियमों के उल्लंघन पर दंडित कर सकता है और निवेशक-सेवा प्रदाता विवादों का समाधान कर सकता है।
केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT): CAT केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के सेवा मामलों से संबंधित विवादों का समाधान करता है, जैसे कि पदोन्नति, स्थानांतरण, और अनुशासनात्मक कार्रवाई।
उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग: ये निकाय उपभोक्ताओं और सेवा प्रदाताओं के बीच विवादों का समाधान करते हैं और उपभोक्ता संरक्षण कानूनों को लागू करते हैं।
निष्कर्ष:
See lessअर्ध-न्यायिक निकाय प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों के बीच एक पुल का काम करते हैं, विशेष क्षेत्रों में विशेषज्ञता के साथ विवाद सुलझाने और नियमों का पालन सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक परिसंघीय संविधान निर्धारित कर दिया था ? चर्चा कीजिए । (200 words) [UPSC 2016]
भारत सरकार अधिनियम, 1935, एक महत्वपूर्ण विधायी ढाँचा था जिसने ब्रिटिश भारत के शासन के लिए एक संरचना प्रदान की। हालांकि इस अधिनियम ने कुछ परिसंघीय विशेषताएँ पेश कीं, यह एक पूर्ण परिसंघीय संविधान नहीं था। परिसंघीय विशेषताएँ: संघीय संरचना: इस अधिनियम ने संघीय संरचना का निर्माण किया, जिसमें केंद्रीय औरRead more
भारत सरकार अधिनियम, 1935, एक महत्वपूर्ण विधायी ढाँचा था जिसने ब्रिटिश भारत के शासन के लिए एक संरचना प्रदान की। हालांकि इस अधिनियम ने कुछ परिसंघीय विशेषताएँ पेश कीं, यह एक पूर्ण परिसंघीय संविधान नहीं था।
परिसंघीय विशेषताएँ:
संघीय संरचना: इस अधिनियम ने संघीय संरचना का निर्माण किया, जिसमें केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। इसमें केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं का गठन हुआ और शक्तियों को संघीय सूची, प्रांतीय सूची, और सहवर्ती सूची में विभाजित किया गया।
संघीय न्यायालय: अधिनियम ने एक संघीय न्यायालय की स्थापना की, जो केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच विवादों को निपटाने के लिए जिम्मेदार था, जिससे संघीय संरचना को कानूनी मान्यता मिली।
सीमाएँ:
केंद्रीय प्रभुत्व: हालांकि अधिनियम ने संघीय विशेषताएँ पेश कीं, केंद्रीय सरकार के पास काफी अधिकार थे। गवर्नर-जनरल और गवर्नरों को प्रांतीय विधानसभाओं को भंग करने और विधेयकों पर वीटो लगाने की शक्ति प्राप्त थी, जिससे प्रांतीय स्वायत्तता सीमित हो गई।
प्रिंसली राज्य: अधिनियम ने प्रिंसली राज्यों को केवल ढांचे में शामिल किया, लेकिन वे असल में संघीय प्रणाली में पूरी तरह से नहीं जुड़े थे। उनके पास काफी स्वायत्तता थी और वे केंद्रीय प्रणाली के तहत नहीं आते थे।
संघीय संतुलन की कमी: केंद्रीय सरकार की शक्तियाँ इतनी व्यापक थीं कि यह संघीय संतुलन को प्रभावित करती थीं। प्रांतीय विधानसभाओं की स्वायत्तता को सीमित किया गया था।
निष्कर्ष:
See lessभारत सरकार अधिनियम, 1935 ने संघीय सिद्धांतों को पेश किया, लेकिन यह पूर्ण रूप से परिसंघीय संविधान नहीं था। यह एक मिश्रित प्रणाली थी जिसमें केंद्रीय नियंत्रण अधिक था और प्रांतीय स्वायत्तता सीमित थी। सच्चे परिसंघीय सिद्धांत भारत में 1950 में भारतीय संविधान के साथ स्थापित किए गए, जिसने राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की और एक अधिक संतुलित संघीय ढाँचा निर्मित किया।
कोहिलो केस में क्या अभिनिर्धारित किया गया था ? इस संदर्भ में, क्या आप कह सकते हैं कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है ? (200 words) [UPSC 2016]
कोहिलो केस, जिसे I.R. Coelho v. State of Tamil Nadu (2007) के रूप में जाना जाता है, भारतीय संविधान के बुनियादी संरचनाओं के संरक्षण के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय था। कोहिलो केस में अभिनिर्धारित बातें: संविधान संशोधन और बुनियादी संरचना: इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि संसद के पास संविधान संRead more
कोहिलो केस, जिसे I.R. Coelho v. State of Tamil Nadu (2007) के रूप में जाना जाता है, भारतीय संविधान के बुनियादी संरचनाओं के संरक्षण के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय था।
कोहिलो केस में अभिनिर्धारित बातें:
संविधान संशोधन और बुनियादी संरचना: इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि संसद के पास संविधान संशोधन की शक्ति है, लेकिन यह शक्ति संविधान की बुनियादी संरचना को बदलने या नष्ट करने के लिए नहीं है। संविधान की बुनियादी संरचना, जैसे कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, और विधायिका की स्वतंत्रता, को किसी भी संशोधन से प्रभावित नहीं किया जा सकता।
न्यायिक पुनर्विलोकन का दायरा: कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान संशोधनों की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निरंतर रहेगी। इसका मतलब है कि कोई भी संशोधन जो बुनियादी संरचना के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का महत्व:
See lessन्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी संविधान संशोधन या कानून का कार्यान्वयन संविधान की बुनियादी संरचना से मेल खाता हो। न्यायिक पुनर्विलोकन न केवल संविधान की मूलभूत संरचना की रक्षा करता है, बल्कि लोकतंत्र, विधि के शासन, और नागरिक अधिकारों की रक्षा भी करता है। कोहिलो केस ने न्यायिक पुनर्विलोकन की इस भूमिका की पुष्टि की, यह साबित करते हुए कि यह संविधान की स्थिरता और उसकी बुनियादी संरचनाओं की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है।