विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की परिणति केशवानंद भारती वाद में ‘आधारभूत संरचना’ के सिद्धांत रूप में हुई। विवेचना कीजिए। संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करने में इस वाद का क्या महत्व है? (250 ...
संविधान का उद्देश्य सुधार लाने के लिए समाज को रूपांतरित करना है और यह उद्देश्य रूपांतरणकारी संविधान संविधान का मूल उद्देश्य समाज में सुधार लाना और उसके अंतर्निहित असमानताओं को समाप्त करना है। रूपांतरणकारी संविधान, जैसा कि इसका नाम ही सुझाता है, समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए डिज़ाइन कियाRead more
संविधान का उद्देश्य सुधार लाने के लिए समाज को रूपांतरित करना है और यह उद्देश्य रूपांतरणकारी संविधान
संविधान का मूल उद्देश्य समाज में सुधार लाना और उसके अंतर्निहित असमानताओं को समाप्त करना है। रूपांतरणकारी संविधान, जैसा कि इसका नाम ही सुझाता है, समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह संविधान न केवल मौजूदा कानूनी ढांचे को व्यवस्थित करता है, बल्कि समाज की मौलिक समस्याओं को संबोधित करके उसे बदलने की दिशा में काम करता है।
रूपांतरणकारी संविधान की विशेषताएँ:
- समानता और न्याय: रूपांतरणकारी संविधान समाज में जाति, धर्म, लिंग, और वर्ग के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के लिए कार्य करता है। भारत का संविधान, उदाहरण के लिए, समानता की गारंटी देता है और विशेष रूप से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा करता है।
- मूल अधिकार: यह संविधान नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जैसे कि स्वतंत्रता, समानता, और न्याय। ये अधिकार समाज के सभी वर्गों को कानूनी सुरक्षा और अवसर प्रदान करते हैं, जिससे समाज में एक समान अवसर सुनिश्चित होता है।
- सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन: रूपांतरणकारी संविधान सामाजिक और आर्थिक बदलाव के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करता है। यह सुधारात्मक नीतियों को अपनाने का मार्ग प्रशस्त करता है, जैसे कि भूमि सुधार, शिक्षा की सुलभता, और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार।
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया: यह संविधान लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करता है, जिसमें सार्वजनिक भागीदारी, शासन की पारदर्शिता, और जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है। यह लोगों को अपनी सरकार पर प्रभाव डालने का अधिकार देता है और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।
- संविधानिक न्यायालय: एक रूपांतरणकारी संविधान एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना करता है जो समाज में व्यापक बदलाव के लिए आवश्यक कानूनी मार्गदर्शन और निर्णय प्रदान करती है।
उदाहरण और प्रभाव:
भारतीय संविधान एक उत्कृष्ट उदाहरण है एक रूपांतरणकारी संविधान का। यह संविधान स्वतंत्रता, समानता, और न्याय के सिद्धांतों को स्थापित करता है और सामाजिक सुधारों के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इसके माध्यम से भारत ने जाति व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव, और सामाजिक असमानताओं को समाप्त करने के लिए कई महत्वपूर्ण पहल की हैं।
उदाहरण के लिए, संविधान के तहत अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए विशेष आयोग और प्राधिकरण (जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग और अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग) सामाजिक सुधारों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष:
रूपांतरणकारी संविधान समाज में सार्थक और स्थायी सुधार लाने के लिए आवश्यक है। यह कानूनी ढांचा समाज की मौजूदा समस्याओं और असमानताओं को दूर करने के लिए न केवल दिशानिर्देश प्रदान करता है, बल्कि एक ऐसे ढांचे का निर्माण करता है जो समाज को लगातार सुधार और रूपांतरित करने में सक्षम बनाता है। यह संविधान समाज के विकास और प्रगति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो नागरिकों को समान अवसर और न्याय सुनिश्चित करता है।
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केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को "आधारभूत संरचना" के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति "आधारभूत सRead more
केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को “आधारभूत संरचना” के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति “आधारभूत संरचना” (Basic Structure) को परिवर्तित या नष्ट नहीं कर सकती।
संदर्भ में, केशवानंद भारती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान की आधारभूत संरचना को परिवर्तित कर सकती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान की आधारभूत संरचना में लोकतंत्र, संघीय संरचना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मूल अधिकार जैसे तत्व शामिल हैं, जिन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करने में इस वाद का महत्व अत्यधिक है:
संवैधानिक सुरक्षा: यह निर्णय संविधान की संरचनात्मक स्थिरता और मूलभूत सिद्धांतों की सुरक्षा करता है। यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के मूल तत्व, जैसे लोकतंत्र और मौलिक अधिकार, संविधान संशोधन के दायरे से बाहर हैं।
न्यायपालिका की भूमिका: न्यायपालिका को संविधान की आधारभूत संरचना की रक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की शक्ति मिलती है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि संविधान में बदलाव जनता के मूल अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं कर सकते।
संवैधानिक संतुलन: यह निर्णय विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन को बनाए रखने में सहायक है। यह बताता है कि संविधान की मौलिक संरचना की रक्षा करना केवल संसद का काम नहीं है, बल्कि न्यायपालिका का भी है।
इस प्रकार, केशवानंद भारती वाद ने संविधान की स्थिरता और न्यायपूर्ण शासन के सिद्धांतों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमाओं को स्पष्ट किया।
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