क्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह ‘नियंत्रण एवं संतुलन’ के सिद्धान्त पर आधारित है ? व्याख्या कीजिए । (150 words) [UPSC 2019]
एक आयोग के सांविधानिकीकरण के लिए निम्नलिखित चरण आवश्यक हैं: 1. प्रस्ताव और विधेयक: सर्वप्रथम, एक आयोग के सांविधानिकीकरण के लिए एक विधेयक तैयार किया जाता है, जिसमें आयोग की संरचना, कार्यक्षेत्र और अधिकारों की विस्तृत जानकारी होती है। यह विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है। 2. विधेयक का पारित होना:Read more
एक आयोग के सांविधानिकीकरण के लिए निम्नलिखित चरण आवश्यक हैं:
1. प्रस्ताव और विधेयक:
सर्वप्रथम, एक आयोग के सांविधानिकीकरण के लिए एक विधेयक तैयार किया जाता है, जिसमें आयोग की संरचना, कार्यक्षेत्र और अधिकारों की विस्तृत जानकारी होती है। यह विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
2. विधेयक का पारित होना:
विधेयक को संसद के दोनों सदनों—लोकसभा और राज्यसभा—से पारित होना आवश्यक है। यह प्रक्रिया विधायिका की समीक्षा और संशोधन के बाद पूरी होती है।
3. राष्ट्रपति की स्वीकृति:
विधेयक के संसद से पारित होने के बाद, इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद, विधेयक कानून बन जाता है और आयोग को सांविधानिक मान्यता मिलती है।
4. संविधान में संशोधन:
यदि आवश्यक हो, तो संविधान में उपयुक्त संशोधन किए जाते हैं ताकि आयोग को सांविधानिक दर्जा प्रदान किया जा सके। यह संशोधन संविधान की पहली अनुसूची या अनुच्छेद में शामिल किया जाता है।
राष्ट्रीय महिला आयोग को सांविधानिकता प्रदान करने के लाभ:
संवैधानिक दर्जा: राष्ट्रीय महिला आयोग को सांविधानिक दर्जा मिलने से आयोग की स्वायत्तता और अधिकारों की पुष्टि होगी, जो उसकी कार्यप्रणाली और प्रभावशीलता को बढ़ाएगा।
लैंगिक न्याय सुनिश्चित करना: सांविधानिक दर्जा आयोग को अधिक अधिकार और संसाधन प्रदान करेगा, जिससे वह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और लैंगिक न्याय को अधिक प्रभावी ढंग से लागू कर सकेगा।
सशक्तिकरण: आयोग के लिए स्पष्ट कानूनी आधार और शक्ति होने से महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में स्थायी और प्रभावी नीतियाँ और कार्यक्रम विकसित किए जा सकेंगे।
प्रशासनिक प्रभाव: सांविधानिक दर्जा प्राप्त करने के बाद, आयोग को बेहतर संसाधन और समर्थन मिलेगा, जिससे उसकी प्रशासनिक कार्यप्रणाली और सामाजिक प्रभावशीलता में सुधार होगा।
इस प्रकार, राष्ट्रीय महिला आयोग को सांविधानिकता प्रदान करने से भारत में लैंगिक न्याय और सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है। यह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा को सुनिश्चित करेगा और समाज में समानता को बढ़ावा देगा।
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भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह 'नियंत्रण एवं संतुलन' के सिद्धान्त पर आधारित है। व्याख्या: 1. शक्ति का पृथक्करण: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है, लेकिन इसे कठोर पृथक्करण के बजाय लचीले तरीRead more
भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार नहीं करता है, बल्कि यह ‘नियंत्रण एवं संतुलन’ के सिद्धान्त पर आधारित है।
व्याख्या:
1. शक्ति का पृथक्करण: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है, लेकिन इसे कठोर पृथक्करण के बजाय लचीले तरीके से लागू किया गया है। संघीय ढांचा शक्तियों के विभाजन को मान्यता देता है, परंतु कुछ क्षेत्रों में केंद्र को अधिक प्रभावी प्राधिकरण प्रदान किया गया है।
2. नियंत्रण और संतुलन: संविधान में ‘नियंत्रण और संतुलन’ का सिद्धान्त लागू होता है, जहाँ विभिन्न अंग (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) एक-दूसरे की शक्तियों की निगरानी और संतुलन बनाए रखते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति का वीटो अधिकार, उच्चतम न्यायालय की समीक्षा शक्ति, और संसद द्वारा विधायकों की नियुक्ति यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी अंग अत्यधिक शक्ति का प्रयोग न करे और सभी अंग आपस में संतुलित रहें।
इस प्रकार, भारतीय संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के बजाय एक समन्वित और संतुलित दृष्टिकोण को अपनाता है, जिससे प्रशासनिक और न्यायिक प्रणाली की कार्यप्रणाली को सुचारु रूप से संचालित किया जा सके।
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