यद्यपि अर्ध-न्यायिक निकायों को न्यायिक निकायों के समान शक्तियाँ प्राप्त हैं तथापि दोनों के बीच अंतर के अनेक महत्वपूर्ण बिंदु विद्यमान हैं। सविस्तार वर्णन कीजिए।(उत्तर 200 शब्दों में दें)
भारत के राज्य शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को सशक्त बनाने में अनिच्छा कार्यात्मक सशक्तिकरण में कमी: "केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति": भारतीय राज्यों में प्रशासनिक शक्ति का केंद्रीकरण अधिक होता है, जिससे शहरी स्थानीय निकायों की स्वायत्तता सीमित रहती है। उदाहरण के लिए, शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे पानी की आपूरRead more
भारत के राज्य शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को सशक्त बनाने में अनिच्छा
कार्यात्मक सशक्तिकरण में कमी:
- “केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति”: भारतीय राज्यों में प्रशासनिक शक्ति का केंद्रीकरण अधिक होता है, जिससे शहरी स्थानीय निकायों की स्वायत्तता सीमित रहती है। उदाहरण के लिए, शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे पानी की आपूर्ति और कचरा प्रबंधन पर राज्य का नियंत्रण अधिक होता है।
- “कार्यभार का अपर्याप्त वितरण”: कई राज्यों ने शहरी स्थानीय निकायों को महत्वपूर्ण कार्य जैसे शहरी नियोजन और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन का पूरा नियंत्रण नहीं सौंपा है, जिससे स्थानीय प्रशासन की क्षमता प्रभावित होती है।
वित्तीय सशक्तिकरण में कमी:
- “वित्तीय वितरण की कमी”: शहरी स्थानीय निकायों को राज्यों द्वारा पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं मिलते, जिससे उनके कार्यान्वयन और रखरखाव की क्षमता प्रभावित होती है। राज्य वित्त आयोग की सिफारिशें अक्सर पर्याप्त नहीं होतीं।
- “राजस्व सृजन में बाधाएँ”: स्थानीय निकायों को सीमित राजस्व सृजन की शक्तियाँ होती हैं, और वे राज्य हस्तांतरण पर निर्भर रहती हैं। इस पर निर्भरता और राज्यों द्वारा वित्तीय हस्तांतरण में देरी से वित्तीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
निष्कर्ष: राज्यों की शहरी स्थानीय निकायों को कार्यात्मक और वित्तीय सशक्त बनाने में अनिच्छा स्थानीय शासन की प्रभावशीलता को प्रभावित करती है। स्थानीय निकायों को अधिक स्वायत्तता और वित्तीय संसाधन प्रदान करना आवश्यक है ताकि वे शहरी विकास की चुनौतियों का बेहतर ढंग से समाधान कर सकें।
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भारतीय संविधान के अनुसार, अर्ध-न्यायिक निकाय (जैसे कि राष्ट्रपति और गवर्णर) को न्यायिक निकायों (जैसे कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय) के साथ समान शक्तियाँ प्राप्त हैं। हालांकि, दोनों के बीच कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। कार्यक्षेत्र: अर्ध-न्यायिक निकाय राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत होते हैं, जबकि न्यायिक निRead more
भारतीय संविधान के अनुसार, अर्ध-न्यायिक निकाय (जैसे कि राष्ट्रपति और गवर्णर) को न्यायिक निकायों (जैसे कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय) के साथ समान शक्तियाँ प्राप्त हैं। हालांकि, दोनों के बीच कई महत्वपूर्ण अंतर हैं।
कार्यक्षेत्र:
See lessअर्ध-न्यायिक निकाय राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत होते हैं, जबकि न्यायिक निकाय न्यायिक मुद्दों पर फैसले देने के लिए जिम्मेदार होते हैं।
अधिकारों का प्रयोग:
अर्ध-न्यायिक निकायों का प्रमुख कार्य नीति निर्धारण और मामलों का अनुशासन है, जबकि न्यायिक निकायों का काम संविधान और कानून के मामलों में न्याय देना है।
निर्णयों की पारदर्शिता:
न्यायिक निकायों के निर्णयों की पारदर्शिता और विचार-विमर्श की गुणवत्ता उच्च होती है जिससे सामान्य जनता की विश्वासीयता बनी रहती है।
स्वतंत्रता:
न्यायिक निकायों को स्वतंत्रता के अधिकार होते हैं जिनके अंतर्गत वे अपने निर्णय अनुसार काम कर सकते हैं। यह अर्ध-न्यायिक निकायों के लिए नहीं है।
इन अंतरों के कारण, न्यायिक निकायों और अर्ध-न्यायिक निकायों के बीच महत्वपूर्ण संवेदनशीलता होनी चाहिए ताकि देश की संविधानिक सिद्धांतों का अनुसरण समान रूप से हो सके।