राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में अकेले एक संसद सदस्य की भूमिका अवनति की ओर है, जिसके फलस्वरूप वादविवादों की गुणता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ भी चुका है। चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 में भारत के राष्ट्रपति को वीटो शक्ति प्रदान की गई है। राष्ट्रपति के पास तीन प्रकार की वीटो होती हैं - सुसम्मति वीटो, निरसम्मति वीटो, और पोकेट वीटो। सुसम्मति वीटो: जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकार करने से इनकार करते हैं। इससे विधेयक विफल हो जाता है और संसद को इसे पुRead more
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 में भारत के राष्ट्रपति को वीटो शक्ति प्रदान की गई है। राष्ट्रपति के पास तीन प्रकार की वीटो होती हैं – सुसम्मति वीटो, निरसम्मति वीटो, और पोकेट वीटो।
- सुसम्मति वीटो: जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकार करने से इनकार करते हैं। इससे विधेयक विफल हो जाता है और संसद को इसे पुनः जमा करना पड़ता है।
- निरसम्मति वीटो: जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकार करने से इनकार करते हैं और उसे विफल कर देते हैं बिना संसद में पुनः जमा किए।
- पोकेट वीटो: जब राष्ट्रपति विधेयक को राख करके उसे अपने पास संविधान में दी गई समय सीमा के अंदर नहीं भेजते हैं, जिससे विधेयक पूर्णविधान से विफल हो जाता है।
राष्ट्रपति की वीटो शक्तियाँ उसके कार्यक्षेत्र के महत्वपूर्ण हिस्से हैं जो संविधानिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करती हैं। यह एक महत्वपूर्ण संविधानिक उपकरण है जो सरकार को संसद के साथ संविधानिक प्रक्रिया में सामंजस्य बनाए रखने में मदद करता है।
See less
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. विधायी प्रभावशीलता की कमी: एक अकेला संसद सदस्य, विशRead more
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. विधायी प्रभावशीलता की कमी:
एक अकेला संसद सदस्य, विशेष रूप से एक छोटे दल या स्वतंत्र सदस्य, अक्सर विधायी प्रक्रिया में प्रभावी भूमिका निभाने में असमर्थ हो सकता है। उसके पास सीमित संसाधन, समर्थन और आवाज होती है, जो उसे प्रमुख मुद्दों पर प्रभाव डालने से रोकती है।
2. विवादों की गुणवत्ता:
एक सदस्य की सीमित शक्ति और संसाधनों के कारण, वादविवादों की गुणवत्ता में कमी हो सकती है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन और सूक्ष्म विवेचन की कमी हो सकती है, जो विधायिका के समग्र कार्यक्षमता को प्रभावित करती है।
3. संसदीय कार्यप्रणाली पर प्रभाव:
एक सदस्य की सीमित भूमिका के कारण, विधायिका में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। महत्वपूर्ण विधायी प्रस्तावों और निर्णयों में गहन बहस और विचार-विमर्श की कमी हो सकती है, जिससे पारदर्शिता और गुणात्मक निर्णयों पर असर पड़ता है।
4. संसदीय दायित्व और प्राथमिकताएँ:
अक्सर एक सदस्य की प्राथमिकताएँ और संसदीय दायित्व उसके स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं और उसकी व्यक्तिगत चिंताओं पर केंद्रित हो सकती हैं, जो राष्ट्रीय मुद्दों पर व्यापक दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।
5. समर्थन की कमी:
अकेला सदस्य अक्सर पार्टी के नेतृत्व, संसदीय दल, और संसदीय समितियों के समर्थन से वंचित रहता है। यह स्थिति उसे विधायी कार्यों में सक्रिय और प्रभावी भागीदारी में कठिनाई का सामना कराती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए, संसदीय प्रक्रियाओं में सुधार, दलगत सहयोग को बढ़ावा देना और संसदीय कार्यप्रणाली को अधिक समावेशी और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। इस प्रकार, एक सदस्य की भूमिका को मजबूत करने के लिए आवश्यक संसाधनों और समर्थन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
See less