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बायोपाइरेसी विकासशील विश्व के मौजूदा पारंपरिक ज्ञान के लिए प्रमुख चिंता का कारण क्यों है? भारत सरकार द्वारा मौजूदा पारंपरिक भारतीय ज्ञान की सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?
बायोपाइरेसी (Biopiracy) का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के दुरुपयोग और उन्हें बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights) के तहत बिना अनुमति के उपयोग करना। विकासशील देशों में यह एक प्रमुख चिंता का विषय है, खासकर उन देशों में जहाँ पारंपरिक ज्ञान और जैव विविधता की प्रचुरता है।Read more
बायोपाइरेसी (Biopiracy) का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के दुरुपयोग और उन्हें बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights) के तहत बिना अनुमति के उपयोग करना। विकासशील देशों में यह एक प्रमुख चिंता का विषय है, खासकर उन देशों में जहाँ पारंपरिक ज्ञान और जैव विविधता की प्रचुरता है।
बायोपाइरेसी की चिंता के कारण:
सांस्कृतिक और आर्थिक शोषण: विकासशील देशों, जैसे भारत, में पारंपरिक समुदायों के पास अनमोल जैविक और चिकित्सा ज्ञान होता है। बायोपाइरेसी के माध्यम से, विदेशी कंपनियाँ इस ज्ञान का उपयोग कर पेटेंट प्राप्त कर लेती हैं, जबकि मूल समुदायों को उचित क्रेडिट या मुआवजा नहीं मिलता। यह उनकी सांस्कृतिक धरोहर और आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है।
वैज्ञानिक और तकनीकी लाभ की हानि: जब विदेशी कंपनियाँ पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करती हैं, तो वे इससे वैज्ञानिक और तकनीकी लाभ प्राप्त करती हैं, जिससे विकासशील देशों को लाभ का हिस्सा नहीं मिलता। इससे पारंपरिक समुदायों का विज्ञान और प्रौद्योगिकी में योगदान मान्यता प्राप्त करने से वंचित रहता है।
पारंपरिक ज्ञान का ह्रास: बायोपाइरेसी पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा और संरक्षण को खतरे में डालती है। जब यह ज्ञान बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत पेटेंट कर लिया जाता है, तो मूल समुदायों को अपने ही ज्ञान का उपयोग करने पर प्रतिबंध लग सकता है।
भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम:
वैकल्पिक सिस्टम और कानून: भारत ने संपत्ति और जैव विविधता के संरक्षण के लिए उपनिवेशी पारंपरिक ज्ञान (Traditional Knowledge Digital Library – TKDL) स्थापित किया है। TKDL पारंपरिक भारतीय ज्ञान को डिजिटल रूप में संग्रहित करता है और इसे पेटेंट दावों से बचाने के लिए साक्ष्य प्रदान करता है।
कानूनी और नीतिगत ढांचा: भारत ने नागरिक और जैव विविधता अधिनियम के तहत पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा के लिए कानून बनाए हैं। इन कानूनों का उद्देश्य बायोपाइरेसी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना और पारंपरिक ज्ञान के अवैध उपयोग को रोकना है।
वैश्विक संधियाँ और समझौते: भारत ने जैव विविधता पर कन्वेंशन (CBD) के तहत वैश्विक स्तर पर बायोपाइरेसी और पारंपरिक ज्ञान की रक्षा के लिए संधियाँ और समझौतों का पालन किया है। ये संधियाँ पारंपरिक ज्ञान के स्वामित्व और लाभ साझा करने की अवधारणाओं को लागू करती हैं।
स्वदेशी समुदायों का सशक्तिकरण: भारत सरकार ने विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से स्वदेशी और स्थानीय समुदायों को अपने पारंपरिक ज्ञान के अधिकारों के प्रति जागरूक करने और उन्हें सशक्त बनाने की कोशिश की है।
इन प्रयासों के माध्यम से, भारत पारंपरिक ज्ञान की रक्षा और बायोपाइरेसी के खिलाफ प्रभावी उपाय कर रहा है, ताकि विकासशील देशों के सांस्कृतिक और वैज्ञानिक योगदान को सुरक्षित रखा जा सके।
See lessभारत में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष के कारणों की व्याख्या कीजिए। मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए सरकार द्वारा किए गए उपायों पर चर्चा कीजिए।(150 शब्दों में उत्तर दें)
भारत में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष के मुख्य कारणों में शहरीकरण, कृषि विस्तार, और जंगलों की अंधाधुंध कटाई शामिल हैं। जैसे-जैसे मानव बस्तियाँ और खेत जंगलों के करीब आते हैं, वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास घटता जाता है, जिससे वे भोजन और पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आकर्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त,Read more
भारत में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष के मुख्य कारणों में शहरीकरण, कृषि विस्तार, और जंगलों की अंधाधुंध कटाई शामिल हैं। जैसे-जैसे मानव बस्तियाँ और खेत जंगलों के करीब आते हैं, वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास घटता जाता है, जिससे वे भोजन और पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आकर्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त, वन्यजीवों की आदतों में बदलाव और जंगलों की अव्यवस्थित उपयोग भी संघर्ष को बढ़ाते हैं।
मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए सरकार ने कई उपाय किए हैं:
वन्यजीव सुरक्षा कानून: वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और अन्य कानूनी उपायों के माध्यम से वन्यजीवों की सुरक्षा और उनके आवास की रक्षा की जाती है।
संघर्ष निवारण उपाय: जैसे कि इलेक्ट्रीफाइड फेंसिंग, और बायो-फेंसिंग का उपयोग, और विशेष निगरानी तकनीकें।
साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रम: स्थानीय समुदायों को वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व के महत्व के बारे में जागरूक किया जाता है।
वन्यजीव राहत केंद्र: वन्यजीवों को सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने के लिए राहत केंद्र स्थापित किए गए हैं।
इन उपायों से संघर्ष को कम करके वन्यजीवों और मानवों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।
See lessभारत में पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों (ESZs) के निर्माण की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए, इससे संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिए। साथ ही, इस संबंध में हाल में किए गए प्रयासों का भी उल्लेख कीजिए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
भारत में पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों (ESZs) के निर्माण की आवश्यकता अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये क्षेत्रों जैव विविधता, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं, और पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। **आवश्यकता:** 1. **जैव विविधता संरक्षण**: ESZs पारिस्थितिकीय तंत्र और वन्यजीवRead more
भारत में पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों (ESZs) के निर्माण की आवश्यकता अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये क्षेत्रों जैव विविधता, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं, और पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
**आवश्यकता:**
1. **जैव विविधता संरक्षण**: ESZs पारिस्थितिकीय तंत्र और वन्यजीवों की विविधता को संरक्षित करने में सहायक होते हैं। ये क्षेत्रों प्राकृतिक आवासों को बचाकर कई प्रजातियों के अस्तित्व को सुरक्षित करते हैं।
2. **पर्यावरणीय संतुलन**: ESZs जलवायु परिवर्तन, भूमि उपयोग परिवर्तन, और अन्य पर्यावरणीय तनावों के प्रभावों को कम करने में मदद करते हैं, जिससे पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रहता है।
3. **स्थानीय समुदायों की रक्षा**: ESZs स्थानीय समुदायों के लिए संसाधन और जीवनयापन की सुरक्षा प्रदान करते हैं, और इनका पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक मूल्य भी संरक्षण में योगदान करता है।
**संबंधित मुद्दे:**
1. **भूमि उपयोग और विकास दबाव**: ESZs के निर्माण और संरक्षण के लिए भूमि उपयोग और विकास परियोजनाओं के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण होता है, जिससे अक्सर स्थानीय विकास योजनाओं में रुकावट आती है।
2. **प्रबंधन और निगरानी**: ESZs के प्रभावी प्रबंधन और निगरानी के लिए संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, जो अक्सर सीमित होती है।
3. **स्थानीय समुदायों की सहभागिता**: ESZs के निर्माण और प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना जरूरी है, ताकि उनके जीवन और आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े।
**हाल के प्रयास:**
1. **पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्रों का निर्धारण**: भारत सरकार ने ‘पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्रों’ (ESZs) के रूप में विभिन्न वन्यजीव संरक्षण क्षेत्रों और राष्ट्रीय उद्यानों के आसपास की भूमि को पहचानने के प्रयास किए हैं।
2. **नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) और अदालतों द्वारा दिशा-निर्देश**: NGT और अन्य न्यायिक संस्थानों ने ESZs के प्रबंधन और संरक्षण के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
3. **स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग**: भारत ने स्थानीय समुदायों, एनजीओ, और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर ESZs की योजना और प्रबंधन में सहयोग किया है, जैसे कि ‘प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र (PAs) के तहत आने वाले क्षेत्र’ की पहचान और संवर्धन।
इन प्रयासों से पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों के संरक्षण में सुधार हो सकता है, और पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सकती है।
See lessभारत में चीतों को पुनः बसाने के लिए संभावित स्थलों की पहचान करते हुए, इसके महत्व की विवेचना कीजिए और इस प्रयास से जुड़ी चुनौतियों का उल्लेख कीजिए। (150 शब्दों में उत्तर दीजिए)
भारत में चीतों को पुनः बसाने के लिए कूनो नेशनल पार्क (मध्य प्रदेश) प्रमुख स्थल है, साथ ही अन्य संभावित स्थल जैसे संजय गांधी नेशनल पार्क (मध्य प्रदेश) और कुछ अन्य संरक्षित क्षेत्र भी विचाराधीन हैं। ये स्थल चीतों के लिए उपयुक्त आवास, भोजन और सुरक्षा प्रदान करते हैं। महत्व: जैव विविधता में वृद्धि: चीतोRead more
भारत में चीतों को पुनः बसाने के लिए कूनो नेशनल पार्क (मध्य प्रदेश) प्रमुख स्थल है, साथ ही अन्य संभावित स्थल जैसे संजय गांधी नेशनल पार्क (मध्य प्रदेश) और कुछ अन्य संरक्षित क्षेत्र भी विचाराधीन हैं। ये स्थल चीतों के लिए उपयुक्त आवास, भोजन और सुरक्षा प्रदान करते हैं।
महत्व:
चुनौतियाँ:
इन चुनौतियों के समाधान के लिए ठोस योजनाओं और संसाधनों की आवश्यकता है।