‘आधारिक संरचना’ के सिद्धांत से प्रारंभ करते हुए, न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत एक उन्नतिशील लोकतंत्र के रूप में विकसित करे, एक उच्चतः अग्रलक्षी (प्रोऐक्टिव) भूमिका निभाई है। इस कथन के प्रकाश में, लोकतंत्र के आदर्शों ...
पृथक्करणीयता (Separation of Powers) का सिद्धांत एक संविधानिक सिद्धांत है जो सरकारी शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करता है। इसका उद्देश्य सरकार के तीन मुख्य अंगों—विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका—के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखना है, ताकि कोई एक अंग अधिक शक्तिशाली न हो जाए और सरकार की गतिविधियोंRead more
पृथक्करणीयता (Separation of Powers) का सिद्धांत एक संविधानिक सिद्धांत है जो सरकारी शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करता है। इसका उद्देश्य सरकार के तीन मुख्य अंगों—विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका—के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखना है, ताकि कोई एक अंग अधिक शक्तिशाली न हो जाए और सरकार की गतिविधियों पर प्रभावी निगरानी रखी जा सके।
प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों:
- “Indira Nehru Gandhi v. Raj Narain (1975)” में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पृथक्करणीयता के सिद्धांत को स्वीकार किया और यह माना कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है।
- “Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973)” में, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा पृथक्करणीयता है, जिसे संशोधित नहीं किया जा सकता।
ये निर्णय सिद्धांत को समर्थन देते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न सरकारी अंग स्वतंत्र और प्रभावी रूप से कार्य करें।
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'आधारिक संरचना' के सिद्धांत के अंतर्गत, न्यायपालिका ने भारत के लोकतंत्र की संरचना और उसकी मूलभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए एक सक्रिय भूमिका निभाई है। इस सिद्धांत के अनुसार, संविधान के मूलभूत ढांचे को किसी भी विधायिका या कार्यपालिका द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से, न्यायपालिका ने 'नRead more
‘आधारिक संरचना’ के सिद्धांत के अंतर्गत, न्यायपालिका ने भारत के लोकतंत्र की संरचना और उसकी मूलभूत मान्यताओं की रक्षा के लिए एक सक्रिय भूमिका निभाई है। इस सिद्धांत के अनुसार, संविधान के मूलभूत ढांचे को किसी भी विधायिका या कार्यपालिका द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता। इस दृष्टिकोण से, न्यायपालिका ने ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ (Judicial Activism) को अपनाते हुए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं, जो लोकतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति में सहायक रहे हैं।
हाल के समय में, न्यायिक सक्रियतावाद ने कई प्रमुख क्षेत्रों में अपनी भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए, ‘विवाह के अधिकार’ और ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ पर न्यायालय ने विस्तार से विचार किया है। ‘आधार’ और ‘प्रवासी श्रमिकों के अधिकार’ पर न्यायालय के फैसलों ने सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और असमानताओं को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
न्यायिक सक्रियतावाद ने सार्वजनिक हित में सरकार की नीतियों पर नजर रखने और संविधान की मूलभूत संरचना की रक्षा करने में योगदान दिया है। हालांकि, इसके साथ ही न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इसका हस्तक्षेप विधायिका और कार्यपालिका की स्वायत्तता में हस्तक्षेप न करे, ताकि लोकतंत्र का संतुलन बना रहे।
इस प्रकार, न्यायिक सक्रियतावाद ने भारत के उन्नतिशील लोकतंत्र के निर्माण में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, लेकिन इसके उपयोग में संतुलन और सावधानी की आवश्यकता है।
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