69वें संविधान संशोधन अधिनियम के उन अत्यावश्यक तत्त्वों और विषमताओं, यदि कोई हों, पर चर्चा कीजिए, जिन्होंने दिल्ली के प्रशासन में निर्वाचित प्रतिनिधियों और उप-राज्यपाल के बीच हाल में समाचारों में आए मतभेदों को पैदा कर दिया है। क्या आपके ...
101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2021, भारतीय संघीय ढांचे में एक महत्वपूर्ण सुधार है, जो मुख्यतः निर्वाचन क्षेत्रों की परिसीमन और अनुसूचित जातियों (SCs) तथा अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिए आरक्षित सीटों से संबंधित है। इसके महत्व और संघवाद की समावेशी भावना को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकतRead more
101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2021, भारतीय संघीय ढांचे में एक महत्वपूर्ण सुधार है, जो मुख्यतः निर्वाचन क्षेत्रों की परिसीमन और अनुसूचित जातियों (SCs) तथा अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिए आरक्षित सीटों से संबंधित है। इसके महत्व और संघवाद की समावेशी भावना को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:
महत्व
- पारिसीमन और प्रतिनिधित्व: इस संशोधन के तहत, 2026 तक परिसीमन पर लगी रोक को बढ़ा दिया गया है, जिससे मौजूदा लोकसभा और विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं स्थिर रहती हैं। यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व में स्थिरता सुनिश्चित करता है और जनसंख्या परिवर्तन के कारण असमान प्रभाव को नियंत्रित करता है।
- आरक्षण के प्रावधान: यह अधिनियम SCs और STs के लिए विधान मंडलों में सीटों के आरक्षण की अवधि को बढ़ाता है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि इन समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलता रहे, और सामाजिक न्याय की दिशा में प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- स्थानीय शासन का सशक्तिकरण: सीटों के आरक्षण और परिसीमन से संबंधित प्रावधानों को स्पष्ट करके, यह अधिनियम स्थानीय शासन संरचनाओं को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि वंचित समुदायों की प्रतिनिधित्व की रक्षा हो।
संघवाद की समावेशी भावना
- सत्ता संतुलन: परिसीमन पर रोक और आरक्षण प्रावधानों के विस्तार से केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखा जाता है। यह स्थिर राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता को मान्यता देता है और विभिन्न स्तरों की सरकारों के हितों को संतुलित करता है।
- राज्य स्वायत्तता: यह अधिनियम परिसीमन प्रक्रिया और आरक्षण के प्रावधानों में राज्य स्वायत्तता की महत्वपूर्णता को मान्यता देता है। मौजूदा निर्वाचन क्षेत्रों को बनाए रखकर और SCs तथा STs के लिए आरक्षित सीटें सुनिश्चित करके, यह राज्यों को स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है।
- समावेशिता और न्याय: SCs और STs के लिए आरक्षण का विस्तार संघवाद के समावेशी सिद्धांत को दर्शाता है। यह सुनिश्चित करता है कि वंचित समुदायों को विभिन्न स्तरों पर प्रतिनिधित्व मिले, जो संघीय ढांचे की समानता और न्याय को प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार, 101वें संविधान संशोधन अधिनियम का महत्व राजनीतिक प्रतिनिधित्व की स्थिरता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में है, और यह संघवाद की समावेशी भावना को प्रकट करता है।
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69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 ने दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसमें एक विधायिका और उप-राज्यपाल (LG) की नियुक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत: अत्यावश्यक तत्त्व: विधायिका की स्थापना: इस अधिनियम के तहत, दिल्ली को एक विधायिका प्राप्त हुई, जो राज्य सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों पर काRead more
69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 ने दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसमें एक विधायिका और उप-राज्यपाल (LG) की नियुक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत:
अत्यावश्यक तत्त्व:
विधायिका की स्थापना: इस अधिनियम के तहत, दिल्ली को एक विधायिका प्राप्त हुई, जो राज्य सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों पर कानून बना सकती है जो संसद के विशिष्ट अधिकार में नहीं हैं।
उप-राज्यपाल की भूमिका: उप-राज्यपाल को दिल्ली का प्रशासक नियुक्त किया गया, जो कानून व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर नियंत्रण रखते हैं।
शक्ति विभाजन: दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों और उप-राज्यपाल के शक्तियों में स्पष्ट विभाजन किया गया, ताकि दैनिक प्रशासन दिल्ली सरकार देख सके, जबकि उप-राज्यपाल केंद्रीय नियंत्रण बनाए रखे।
विषमताएँ और मतभेद:
शक्ति का ओवरलैप: दिल्ली सरकार और उप-राज्यपाल के बीच शक्तियों का ओवरलैप, विशेष रूप से कानून व्यवस्था और भूमि मामलों में, अक्सर विवाद का कारण बनता है।
प्रशासनिक संघर्ष: उप-राज्यपाल की हस्तक्षेप और दिल्ली सरकार की स्वायत्तता के बीच टकराव ने प्रशासनिक कार्यों और नीतियों पर प्रभाव डाला है।
न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय ने इन विवादों के समाधान के लिए हस्तक्षेप किया, लेकिन इसने स्थिति की जटिलता और विवादों को बढ़ा दिया है।
भारतीय परिसंघीय राजनीति पर प्रभाव:
See lessये मतभेद भारतीय परिसंघीय राजनीति में नई प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं। यह संकेत करता है कि केंद्रीय और राज्य अथवा क्षेत्रीय सरकारों के बीच शक्ति संतुलन और स्वायत्तता की समस्याएँ बढ़ सकती हैं। इससे भारतीय संघीय संरचना की पुनरावलोकन और बेहतर सुसंगतता की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है, ताकि इस तरह के संघर्षों को प्रभावी ढंग से हल किया जा सके।