भारतीय लोकतंत्र का दर्शन भारत वर्ष के संविधान की प्रस्तावना में सत्रिहित है। व्याख्या कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2019]
केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को "आधारभूत संरचना" के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति "आधारभूत सRead more
केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को “आधारभूत संरचना” के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति “आधारभूत संरचना” (Basic Structure) को परिवर्तित या नष्ट नहीं कर सकती।
संदर्भ में, केशवानंद भारती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान की आधारभूत संरचना को परिवर्तित कर सकती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान की आधारभूत संरचना में लोकतंत्र, संघीय संरचना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मूल अधिकार जैसे तत्व शामिल हैं, जिन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करने में इस वाद का महत्व अत्यधिक है:
संवैधानिक सुरक्षा: यह निर्णय संविधान की संरचनात्मक स्थिरता और मूलभूत सिद्धांतों की सुरक्षा करता है। यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के मूल तत्व, जैसे लोकतंत्र और मौलिक अधिकार, संविधान संशोधन के दायरे से बाहर हैं।
न्यायपालिका की भूमिका: न्यायपालिका को संविधान की आधारभूत संरचना की रक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की शक्ति मिलती है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि संविधान में बदलाव जनता के मूल अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं कर सकते।
संवैधानिक संतुलन: यह निर्णय विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन को बनाए रखने में सहायक है। यह बताता है कि संविधान की मौलिक संरचना की रक्षा करना केवल संसद का काम नहीं है, बल्कि न्यायपालिका का भी है।
इस प्रकार, केशवानंद भारती वाद ने संविधान की स्थिरता और न्यायपूर्ण शासन के सिद्धांतों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमाओं को स्पष्ट किया।
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भारतीय लोकतंत्र का दर्शन संविधान की प्रस्तावना में **1. मूलभूत मूल्य भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र के दर्शन को स्पष्ट करती है। यह भारत को संप्रभु, साम्यवादिता, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में परिभाषित करती है, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा की प्रतिबद्धता हैRead more
भारतीय लोकतंत्र का दर्शन संविधान की प्रस्तावना में
**1. मूलभूत मूल्य
भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र के दर्शन को स्पष्ट करती है। यह भारत को संप्रभु, साम्यवादिता, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में परिभाषित करती है, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा की प्रतिबद्धता है।
**2. संप्रभुता और गणराज्य
संप्रभुता भारत की आंतरिक और बाहरी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करती है, जबकि गणराज्य का मतलब है कि राष्ट्र प्रमुख का चुनाव विरासत द्वारा नहीं, बल्कि चुनाव के माध्यम से होता है, जैसा कि राष्ट्रपति के चुनाव में देखा जाता है।
**3. साम्यवादिता और धर्मनिरपेक्षता
साम्यवादिता का तात्पर्य आर्थिक समानता से है, जिसे प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे कार्यक्रमों से बढ़ावा दिया गया है। धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों को समान मानती है, जैसा कि धार्मिक विविधता को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों में देखा जा सकता है।
**4. लोकतांत्रिक सिद्धांत
लोकतंत्र प्रतिनिधि शासन और मुक्त चुनाव सुनिश्चित करता है, जैसे कि हाल के आम चुनाव में देखा गया।
सारांश में, प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को स्पष्ट करती है और देश की नीति-निर्माण को मार्गदर्शन प्रदान करती है।
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