सोवियत संघ के विघटन के बाद नवीनतम स्वतंत्र देशों का गठन कैसे हुआ? इन देशों की राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का मूल्यांकन करें।
सोवियत संघ के विघटन के समय ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका नीतियों का महत्व 1. परिचय: ग्लास्नोस्ट (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा 1980 के दशक में शुरू की गईं प्रमुख नीतियाँ थीं। इन नीतियों का उद्देश्य सोवियत संघ की कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और राजनीRead more
सोवियत संघ के विघटन के समय ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका नीतियों का महत्व
1. परिचय: ग्लास्नोस्ट (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा 1980 के दशक में शुरू की गईं प्रमुख नीतियाँ थीं। इन नीतियों का उद्देश्य सोवियत संघ की कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना था। हालाँकि, इन नीतियों ने अप्रत्याशित रूप से सोवियत संघ के विघटन में योगदान दिया।
2. ग्लास्नोस्ट (खुलापन) का महत्व:
सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता:
- ग्लास्नोस्ट नीति के तहत नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकार की आलोचना करने की अनुमति दी गई। इससे पहले, सोवियत संघ में मीडिया पर कड़ा नियंत्रण था और असंतोष की आवाज़ों को दबा दिया जाता था।
- इस नीति ने स्वतंत्र प्रेस, सरकार की पारदर्शिता, और खुली चर्चा को बढ़ावा दिया। लोग अब सरकारी भ्रष्टाचार, राजनीतिक विफलताओं, और आर्थिक समस्याओं पर खुलकर बोल सकते थे, जिससे विरोधी विचारधाराएँ और असंतोष उभरने लगा।
राजनीतिक जागरूकता और आंदोलन:
- ग्लास्नोस्ट ने जनता को राजनीतिक जागरूकता प्रदान की, जिससे स्वतंत्रता आंदोलनों और राष्ट्रीयता की भावनाएँ तेज हुईं। विशेष रूप से सोवियत संघ के बाल्टिक राज्यों (लिथुआनिया, लातविया, एस्टोनिया) और अन्य गणराज्यों में स्वतंत्रता की मांग बढ़ी।
- बर्लिन की दीवार का गिरना (1989) और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट शासन का अंत ग्लास्नोस्ट के प्रभावों के बड़े उदाहरण थे।
3. पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) का महत्व:
आर्थिक सुधार और बाजार-आधारित नीतियाँ:
- पेरेस्त्रोइका नीति का उद्देश्य सोवियत अर्थव्यवस्था में सुधार लाना था, जो केंद्रीकृत योजना और सरकारी नियंत्रण के कारण धीमी हो गई थी। इस नीति के तहत, निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया, और बाजार-आधारित सुधार लाने के प्रयास किए गए।
- कृषि और उद्योग क्षेत्रों में उत्पादन को बढ़ाने के लिए निजी उद्यमों और विदेशी निवेश की अनुमति दी गई। हालांकि, यह सुधार उतने सफल नहीं हुए क्योंकि सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था लंबे समय से सरकारी नियंत्रण में जकड़ी हुई थी और सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सका।
राजनीतिक ढांचे में बदलाव:
- पेरेस्त्रोइका के तहत राजनीतिक सुधार भी किए गए, जिससे कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ कमजोर हुई। विधानसभा चुनाव और बहुदलीय प्रणाली को बढ़ावा दिया गया, जिससे विपक्षी दल और नेता उभरने लगे।
- राजनीतिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन इससे सोवियत संघ में राजनीतिक अस्थिरता और असंतोष बढ़ा, जिससे गणराज्यों में अलगाववादी आंदोलन तेज हुए।
4. इन नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण:
अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार न होना:
- पेरेस्त्रोइका का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को मजबूत करना था, लेकिन इसके विपरीत, सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था और अधिक अस्थिर हो गई। सुधारों के बीच में आने से कमीशन प्रणाली और आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो गई, जिससे उत्पादन और वितरण में बाधा उत्पन्न हुई।
- वित्तीय संकट और मुद्रास्फीति के कारण जनता का जीवनस्तर गिर गया और समाज में असंतोष बढ़ने लगा।
राष्ट्रीयता और अलगाववाद की लहर:
- ग्लास्नोस्ट के तहत राजनीतिक स्वतंत्रता और खुलेपन के कारण स्वतंत्रता आंदोलनों ने जोर पकड़ा। बाल्टिक देशों और अन्य गणराज्यों में स्वतंत्रता की मांग बढ़ी और अंततः ये देश सोवियत संघ से अलग हो गए।
- राष्ट्रीयतावादी भावनाएँ इतनी प्रबल हो गईं कि सोवियत संघ के अंदर राजनीतिक एकता बनाए रखना मुश्किल हो गया।
कम्युनिस्ट पार्टी की शक्ति का ह्रास:
- ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका के कारण कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता पर पकड़ कमजोर हो गई। जनता में सरकार और पार्टी के प्रति विश्वास घटने लगा और विपक्षी दलों की मांग बढ़ी। इससे सोवियत संघ के राजनीतिक ढांचे में अराजकता फैल गई।
सोवियत संघ का विघटन (1991):
- अंततः, गोर्बाचेव की नीतियों ने राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट, और राष्ट्रीय असंतोष को जन्म दिया। 1991 में, सोवियत संघ विघटित हो गया और उसके 15 गणराज्य स्वतंत्र देश बन गए।
5. निष्कर्ष: ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारक थे। हालाँकि इन नीतियों का उद्देश्य सुधार और पुनर्निर्माण था, लेकिन इनके परिणामस्वरूप सोवियत संघ में अस्थिरता और विघटन उत्पन्न हुआ। गोर्बाचेव की इन नीतियों ने सोवियत संघ के अंत की प्रक्रिया को तेज किया और वैश्विक राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।
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सोवियत संघ के विघटन के बाद नवीनतम स्वतंत्र देशों का गठन 1. सोवियत संघ का विघटन और स्वतंत्र देशों का गठन: 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, 15 स्वतंत्र देशों का गठन हुआ। इनमें प्रमुख थे रूस, यूक्रेन, बेलारूस, कजाखस्तान, उज़्बेकिस्तान, अज़रबैजान, और अन्य मध्य एशियाई एवं यूरोपीय राज्य। यह स्वतंत्रताRead more
सोवियत संघ के विघटन के बाद नवीनतम स्वतंत्र देशों का गठन
1. सोवियत संघ का विघटन और स्वतंत्र देशों का गठन:
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, 15 स्वतंत्र देशों का गठन हुआ। इनमें प्रमुख थे रूस, यूक्रेन, बेलारूस, कजाखस्तान, उज़्बेकिस्तान, अज़रबैजान, और अन्य मध्य एशियाई एवं यूरोपीय राज्य। यह स्वतंत्रता सोवियत संघ की केंद्रीय सत्ता के कमजोर होने और विभिन्न गणराज्यों में स्वतंत्रता आंदोलनों के तेज होने के कारण संभव हुई।
2. स्वतंत्र देशों के गठन की प्रक्रिया:
सोवियत संघ के विघटन के दौरान, गणराज्यों में राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी। बाल्टिक राज्य (लिथुआनिया, लातविया, एस्टोनिया) ने पहले स्वतंत्रता की घोषणा की, इसके बाद अन्य गणराज्यों ने भी सोवियत संघ से अलग होने की मांग की। अंततः, 1991 में सोवियत संघ के औपचारिक विघटन के साथ ये देश स्वतंत्र राष्ट्र बने।
स्वतंत्र देशों की राजनीतिक चुनौतियाँ:
1. राजनीतिक अस्थिरता और संक्रमण:
सोवियत संघ के विघटन के बाद, अधिकांश देशों ने कम्युनिस्ट शासन से लोकतांत्रिक प्रणाली की ओर परिवर्तन किया। यह परिवर्तन अस्थिरता, सत्ता संघर्ष, और लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरियों के कारण चुनौतीपूर्ण साबित हुआ।
उदाहरण: यूक्रेन में 2004 का ऑरेंज रिवॉल्यूशन और 2014 का मैदान क्रांति राजनीतिक अस्थिरता के प्रतीक हैं।
2. राष्ट्रीयता और जातीय संघर्ष:
विभिन्न गणराज्यों में सोवियत काल के बाद जातीय संघर्ष और अलगाववादी आंदोलन उभरे। उदाहरण के तौर पर, अर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच नागोर्नो-कराबाख विवाद में संघर्ष देखने को मिला।
इसी प्रकार, रूस और यूक्रेन के बीच क्रीमिया संकट (2014) और उसके बाद के संघर्ष ने भी राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित किया।
स्वतंत्र देशों की आर्थिक चुनौतियाँ:
1. केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था से बाजार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन:
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था केंद्रीकृत योजना और सरकारी नियंत्रण पर आधारित थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन देशों को बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन करना पड़ा। इससे कई देशों में आर्थिक अस्थिरता, मुद्रास्फीति, और बेरोजगारी की समस्याएँ बढ़ीं।
उदाहरण: रूस का आर्थिक संकट (1998), जब रूस को अपने कर्जों का भुगतान करने में समस्या हुई और देश की मुद्रा रूबल की कीमत गिर गई।
2. भ्रष्टाचार और कुशासन:
अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रयासों के बावजूद, कई देशों को भ्रष्टाचार और कुशासन की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। आर्थिक संसाधनों पर कुछ लोगों का प्रभुत्व स्थापित हुआ और अधिनायकवादी शासन का उदय हुआ।
उदाहरण: कजाखस्तान और तुर्कमेनिस्तान में अधिनायकवादी नेताओं ने सत्ता पर पकड़ मजबूत की और आर्थिक संसाधनों का केंद्रीकरण किया।
3. ऊर्जा संसाधनों पर निर्भरता:
कुछ देशों, विशेषकर रूस, कजाखस्तान, और अज़रबैजान ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए तेल और गैस के निर्यात पर निर्भरता बढ़ाई। हालांकि, वैश्विक तेल बाजार में उतार-चढ़ाव के कारण उनकी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा।
उदाहरण: रूस की अर्थव्यवस्था पर 2014 के तेल की कीमतों में गिरावट का गहरा असर हुआ।
दीर्घकालिक चुनौतियाँ और भविष्य की दिशा:
1. क्षेत्रीय सुरक्षा और भू-राजनीति:
स्वतंत्र देशों के बीच क्षेत्रीय संघर्ष और बाहरी ताकतों, जैसे रूस और पश्चिमी देशों के बीच तनाव, भविष्य की चुनौतियाँ बनी हुई हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध (2022) इसका ताजा उदाहरण है, जिसने इन देशों की सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता पर गहरा प्रभाव डाला है।
2. लोकतंत्र और मानवाधिकारों का भविष्य:
हालांकि कुछ देशों ने लोकतंत्र की दिशा में प्रगति की है, लेकिन कई जगहों पर अभी भी अधिनायकवाद और मानवाधिकारों का उल्लंघन चिंता का विषय है।
उदाहरण: बेलारूस में 2020 के चुनावों के बाद अलेक्जेंडर लुकाशेंको की सरकार के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन सत्ता में बदलाव नहीं आया।
निष्कर्ष:
See lessसोवियत संघ के विघटन के बाद बने स्वतंत्र देशों ने कई राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना किया है। हालांकि कुछ देशों ने स्थिरता और विकास की दिशा में कदम उठाए हैं, फिर भी राष्ट्रीयता, सत्ता संघर्ष, और अंतर्राष्ट्रीय भू-राजनीतिक दबाव इन देशों के लिए दीर्घकालिक चुनौतियाँ बने हुए हैं।