गाँधीवादी प्रावस्था के दौरान विभिन्न स्वरों ने राष्ट्रवादी आन्दोलन को सुदृढ़ एवं समृद्ध बनाया था । विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिए। (250 words) [UPSC 2019]
1920 के दशक से राष्ट्रीय आंदोलन: वैचारिक विविधता और सामाजिक आधार का विस्तार 1920 के दशक में, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने वैचारिक धारणाओं और सामाजिक आधार को काफी विस्तारित किया। इस अवधि में, आंदोलन ने विभिन्न बौद्धिक धाराओं को अपनाया और समाज के कई वर्गों में अपनी अपील बढ़ाई। कुछ प्रमुख बिंदु और हRead more
1920 के दशक से राष्ट्रीय आंदोलन: वैचारिक विविधता और सामाजिक आधार का विस्तार
1920 के दशक में, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने वैचारिक धारणाओं और सामाजिक आधार को काफी विस्तारित किया। इस अवधि में, आंदोलन ने विभिन्न बौद्धिक धाराओं को अपनाया और समाज के कई वर्गों में अपनी अपील बढ़ाई। कुछ प्रमुख बिंदु और हालिया उदाहरण इस प्रकार हैं:
वैचारिक विविधता:
राष्ट्रीय आंदोलन ने कई वैचारिक दृष्टिकोणों को अपनाया, जिनमें शामिल हैं:
- गांधीवादी समाजवाद: गांधी जैसे नेताओं द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया, यह दृष्टिकोण आत्म-निर्भरता, अहिंसा और सामाजिक सुधार पर जोर देता था।
- मार्क्सवाद और समाजवाद: रूसी क्रांति से प्रभावित, यह धारा शहरी श्रमिक वर्ग और बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हुई, जैसा कि 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के उदय में देखा गया।
- हिंदू राष्ट्रवाद: हिंदू महासभा जैसे संगठनों द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया, यह विचारधारा हिंदू हितों की रक्षा और हिंदू राष्ट्र की स्थापना की मांग करती है।
सामाजिक आधार का विस्तार:
1920 के दशक में, राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने सामाजिक आधार को काफी बढ़ाया, जिसमें शामिल हैं:
- किसान आंदोलन: बरदोली सत्याग्रह और केरल में मप्पिल्ला विद्रोह जैसे आंदोलनों ने किसानों और भूमिहीन श्रमिकों को शामिल किया।
- महिला सहभागिता: असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में सरोजिनी नायडू और कस्तूरबा गांधी जैसी महिलाओं की बढ़ती भागीदारी देखी गई।
- युवा जुड़ाव: ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन जैसे छात्र संगठनों का उदय, राष्ट्रीय आंदोलन में युवा पीढ़ी को शामिल किया।
क्षेत्रीय विविधता:
राष्ट्रीय आंदोलन ने क्षेत्रीय स्तर पर भी अलग-अलग अभिव्यक्तियों का विकास किया, जैसे कि संयुक्त प्रांतों में खिलाफत आंदोलन, तमिलनाडु में स्वराज्य आंदोलन और बंगाल में अनुशीलन समिति।
अंतरराष्ट्रीयकरण:
राष्ट्रीय आंदोलन ने वैश्विक विरोधी-औपनिवेशिक और विरोधी-साम्राज्यवादी आंदोलनों के साथ संबंध स्थापित करना शुरू कर दिया, जैसा कि लाला लाजपत राय के संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा और 1931 में आयोजित ऑल एशियन महिला सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधियों की भागीदारी में देखा गया।
संगठनात्मक विकास:
राष्ट्रीय आंदोलन ने राजनीतिक दलों, श्रम संघों और किसान संघठनों जैसी संस्थागत संरचनाओं को मजबूत और विविध किया, जिसने समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट करने और प्रतिनिधित्व करने में मदद की।
संक्षेप में, 1920 का दशक राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के एक महत्वपूर्ण चरण के रूप में उभरा, क्योंकि इसने वैचारिक धाराओं और सामाजिक आधारों की एक व्यापक श्रृंखला को अपनाकर, भारतीय उपमहाद्वीप में अपील और प्रभाव को बढ़ाया।
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गाँधीवादी प्रावस्था (1917-1947) के दौरान राष्ट्रवादी आंदोलन में विभिन्न स्वरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष को और मजबूत एवं समृद्ध बनाया। इन स्वरों में प्रमुख हैं: महिलाओं की भागीदारी: सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी, अरुणा आसफ अली और विजयलक्ष्मी पंडित जैसी प्रमुRead more
गाँधीवादी प्रावस्था (1917-1947) के दौरान राष्ट्रवादी आंदोलन में विभिन्न स्वरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष को और मजबूत एवं समृद्ध बनाया। इन स्वरों में प्रमुख हैं:
महिलाओं की भागीदारी:
सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी, अरुणा आसफ अली और विजयलक्ष्मी पंडित जैसी प्रमुख महिला नेताओं ने नागरिक अवज्ञा, असहयोग और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।
महिलाओं की इस भागीदारी ने न केवल राष्ट्रवादी संघर्ष में लिंग समानता लाई, बल्कि महिला अधिकारों और सशक्तिकरण के मुद्दों को भी प्रमुखता दी।
रैडिकल क्रांतिकारी:
भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ अधिक आक्रामक, सशस्त्र संघर्ष का समर्थन किया।
उनके क्रांतिकारी कार्यकलापों और शहादत ने युवाओं को प्रेरित किया और राष्ट्रवादी आंदोलन में तीव्रता का संचार किया।
समाजवादी और कम्युनिस्ट स्वर:
जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने समाजवादी और मार्क्सवादी विचारधारा को राष्ट्रवादी वार्ता में शामिल किया।
उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को संबोधित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
दलित दावे:
बी.आर. आंबेडकर दलितों और समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों के लिए एक शक्तिशाली आवाज़ बने।
जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ उनका संघर्ष और दलितों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल की मांग ने राष्ट्रवादी आंदोलन की समावेशी प्रकृति को मज़बूत किया।
क्षेत्रीय आंदोलन:
See lessतमिलनाडु में ई.वी. रामास्वामी (पेरियार), केरल में कोकिलामेडु विद्रोह और बंगाल में तेभागा आंदोलन जैसे नेताओं ने क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं और स्थानीय पहचानों के दावों को प्रतिनिधित्व दिया।
ये आंदोलन राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को क्षेत्रीय विविधताओं को समायोजित करने की आवश्यकता पर जोर देकर समृद्ध बनाते हैं।
गाँधीवादी प्रावस्था के दौरान, इन विभिन्न स्वरों का संगम जो एक विशिष्ट दृष्टिकोण और アDृष्टीकरण प्रस्तुत करते थे, ने राष्ट्रवादी आंदोलन को और मज़बूत और समावेशी बनाया। यह आंदोलन भारतीय जनता की विविध चिंताओं को संबोधित करने वाले एक व्यापक संघर्ष में विकसित हुआ, जिसका अंततः स्वतंत्रता प्राप्ति में परिणाम हुआ।