डिवाइड एंड रूल नीति का भारतीय प्रशासन में क्या योगदान था? इसके दीर्घकालिक परिणामों का अध्ययन करें।
ब्रिटिश शासन के तहत स्थानीय स्वशासन की स्थापना और विकास का उद्देश्य एक ओर ब्रिटिश प्रशासन को सशक्त बनाना था, जबकि दूसरी ओर इसे भारतीयों को सीमित राजनीतिक अधिकार देने के रूप में प्रस्तुत किया गया। स्थानीय स्वशासन भारतीय राजनीतिक जागरूकता के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिएRead more
ब्रिटिश शासन के तहत स्थानीय स्वशासन की स्थापना और विकास का उद्देश्य एक ओर ब्रिटिश प्रशासन को सशक्त बनाना था, जबकि दूसरी ओर इसे भारतीयों को सीमित राजनीतिक अधिकार देने के रूप में प्रस्तुत किया गया। स्थानीय स्वशासन भारतीय राजनीतिक जागरूकता के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक प्रेरणास्रोत भी बना। यह स्वशासन प्रशासनिक सुधारों के हिस्से के रूप में उभरा, लेकिन इसकी सीमाएँ और चुनौतियाँ भी काफी गहरी थीं।
1. स्थानीय स्वशासन का विकास
(i) प्रारंभिक दौर: 1882 का लॉर्ड रिपन का सुधार:
- स्थानीय स्वशासन के विकास की नींव लॉर्ड रिपन ने 1882 में रखी, जिन्हें “भारतीय स्थानीय स्वशासन का जनक” कहा जाता है। उन्होंने स्थानीय निकायों (म्युनिसिपल और जिला बोर्ड) की स्थापना का समर्थन किया और भारतीयों को इन निकायों में भाग लेने के अवसर दिए। इसका उद्देश्य स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारियों को विकेंद्रीकृत करना और स्थानीय लोगों को प्रशासन में भागीदारी देना था।
- इस सुधार का एक उद्देश्य अंग्रेजी अधिकारियों पर प्रशासन का बोझ कम करना और भारतीयों को सीमित मात्रा में सत्ता सौंपना भी था। स्थानीय निकायों को सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, और सड़क जैसे विषयों पर अधिकार दिए गए थे।
(ii) मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909):
- मॉर्ले-मिंटो सुधार ने स्थानीय निकायों में भारतीयों के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को और मजबूत किया। इसमें विधान परिषदों में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, और विभिन्न निर्वाचन मंडलों से प्रतिनिधियों का चुनाव होना शुरू हुआ। इससे भारतीय समाज में राजनीतिक भागीदारी का बीजारोपण हुआ।
- हालांकि, यह सुधार सीमित था और केवल उच्च वर्ग के शिक्षित भारतीयों को ही चुनाव में भाग लेने का अधिकार था। इससे भारतीय समाज के बड़े हिस्से, विशेषकर गरीब और ग्रामीण वर्ग, इस प्रक्रिया से वंचित रहे।
(iii) मॉन्टेग-चेम्सफोर्ड सुधार (1919):
- 1919 के मॉन्टेग-चेम्सफोर्ड सुधार ने स्थानीय स्वशासन को और विस्तार दिया। इस सुधार के तहत द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) लागू की गई, जिसके तहत प्रांतीय स्तर पर कुछ विभागों का नियंत्रण भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया। इसके अलावा, स्थानीय निकायों को अधिक अधिकार और स्वायत्तता प्रदान की गई।
- इस सुधार के कारण स्थानीय स्वशासन के निकायों में भारतीयों की भागीदारी बढ़ी, और प्रांतीय स्तर पर राजनीतिक जागरूकता का विस्तार हुआ। साथ ही, इसे ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को आत्मनिर्णय के अधिकार की ओर एक कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया।
(iv) 1935 का भारत सरकार अधिनियम:
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने स्थानीय स्वशासन को एक और महत्वपूर्ण धक्का दिया। इस अधिनियम ने प्रांतीय स्वशासन को और विस्तृत किया और पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता की व्यवस्था की गई। प्रांतीय स्तर पर अधिकांश विभाग भारतीय मंत्रियों के नियंत्रण में आ गए, और स्थानीय निकायों की भूमिका बढ़ी।
- इस अधिनियम के तहत चुनाव प्रक्रिया में और अधिक लोगों को भाग लेने का अधिकार मिला, जिससे स्थानीय स्वशासन का दायरा बढ़ा। हालांकि, यह सुधार भी सीमित था, क्योंकि केंद्रीय स्तर पर सत्ता अभी भी ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में थी।
2. स्थानीय स्वशासन की चुनौतियाँ:
(i) राजनीतिक अधिकारों की सीमाएँ:
- ब्रिटिश शासन के दौरान स्थानीय स्वशासन की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसमें भारतीयों को बहुत सीमित राजनीतिक अधिकार दिए गए। भारतीयों को केवल सीमित और गैर-महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गई। महत्त्वपूर्ण विषय जैसे रक्षा, विदेश नीति और कानून व्यवस्था ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में थे।
- स्थानीय निकायों को दिए गए अधिकार नाममात्र के थे, और अधिकांश मामलों में अंतिम निर्णय ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ही लिया जाता था। इससे स्थानीय स्वशासन की प्रभावशीलता कमजोर हो गई।
(ii) प्रशासनिक और वित्तीय सीमाएँ:
- स्थानीय निकायों के पास वित्तीय संसाधनों की भारी कमी थी। उन्हें राजस्व जुटाने के सीमित अधिकार दिए गए थे, और अपने कार्यों को पूरा करने के लिए वे ब्रिटिश सरकार पर निर्भर थे। इससे उनके कार्यों की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता पर असर पड़ा।
- इसके अलावा, प्रशासनिक अनुभव और कुशलता की कमी भी एक बड़ी चुनौती थी। भारतीयों के पास प्रशासन का पर्याप्त अनुभव नहीं था, और उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों के मार्गदर्शन पर निर्भर रहना पड़ता था।
(iii) सामाजिक और वर्गीय विभाजन:
- स्थानीय स्वशासन की प्रक्रिया में ज्यादातर उच्च जाति, धनी और शिक्षित भारतीयों का ही वर्चस्व था। ग्रामीण और पिछड़े वर्गों के लोग इस प्रक्रिया से बाहर रह गए। इस विभाजन ने स्थानीय प्रशासन को जनसाधारण की समस्याओं से दूर कर दिया, और भारतीय समाज के बड़े हिस्से को इस प्रणाली से लाभ नहीं मिला।
- स्थानीय स्वशासन के भीतर वर्गीय विभाजन भी स्पष्ट था। धनी ज़मींदार और व्यापारी वर्ग के लोग ही इन निकायों में प्रमुख भूमिका निभाते थे, जबकि गरीब किसानों और श्रमिकों की आवाज़ दब जाती थी।
(iv) राजनीतिक अस्थिरता:
- स्थानीय स्वशासन का विकास कई बार राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हुआ। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजनीतिक दलों के दबाव में कभी-कभी सुधार किए, लेकिन इन सुधारों को लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ थीं। इसके अलावा, द्वैध शासन प्रणाली भी विफल साबित हुई, क्योंकि भारतीय मंत्रियों के पास वास्तविक सत्ता नहीं थी।
- भारतीयों की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता और स्वतंत्रता की मांगों ने ब्रिटिश सरकार के सुधारों को चुनौती दी, और स्थानीय स्वशासन के निकायों पर जनसाधारण का अविश्वास बढ़ने लगा।
3. स्थानीय स्वशासन के सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव:
(i) राजनीतिक जागरूकता का विकास:
- स्थानीय स्वशासन के माध्यम से भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी का अवसर मिला, जिससे उनके बीच राजनीतिक जागरूकता का विकास हुआ। स्थानीय निकायों में काम करने के अनुभव ने भारतीय नेताओं को राजनीति और प्रशासन की समझ दी, जिसका उपयोग उन्होंने बाद में स्वतंत्रता संग्राम में किया।
- यह राजनीतिक जागरूकता और प्रशासनिक अनुभव भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में फैला, जिससे स्वतंत्रता संग्राम को गति मिली। इसने भारतीय जनता को यह महसूस कराया कि वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकते हैं, और ब्रिटिश शासन के बिना भी प्रशासन चला सकते हैं।
(ii) राष्ट्रीय एकता की दिशा में कदम:
- स्थानीय स्वशासन ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का मौका दिया, जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिला। विभिन्न प्रांतों और समुदायों के लोग एक साथ काम करने लगे, और राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने लगे।
- हालांकि यह प्रक्रिया सीमित थी, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक व्यापक आधार तैयार किया और लोगों को एकजुट किया।
(iii) स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन:
- ब्रिटिश प्रशासन के अधीन स्थानीय स्वशासन ने भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना करने और सुधार की माँग करने का मंच दिया। इससे कई राजनीतिक आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुए, जो स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन देने वाले थे।
- महात्मा गांधी और कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने स्थानीय स्वशासन के महत्व को समझा और इसे स्वतंत्रता की दिशा में एक कदम माना।
निष्कर्ष:
ब्रिटिश शासन के तहत स्थानीय स्वशासन का विकास भारतीय समाज और राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। इसने भारतीयों को प्रशासन में भाग लेने का मौका दिया और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया। हालांकि, इस प्रक्रिया में कई चुनौतियाँ और सीमाएँ थीं, जैसे सीमित राजनीतिक अधिकार, वित्तीय कठिनाइयाँ और सामाजिक विभाजन। इसके बावजूद, स्थानीय स्वशासन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक मंच तैयार किया और राष्ट्रीय एकता और स्वराज की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।
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ब्रिटिश शासन की "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) नीति भारतीय प्रशासन और समाज पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली रणनीति थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करके ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ बनाए रखना था। अंग्रेजों ने इस नीति के माध्यम से भRead more
ब्रिटिश शासन की “फूट डालो और राज करो” (Divide and Rule) नीति भारतीय प्रशासन और समाज पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली रणनीति थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करके ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ बनाए रखना था। अंग्रेजों ने इस नीति के माध्यम से भारतीयों के बीच दरारें पैदा कीं, ताकि वे संगठित होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह न कर सकें। यह नीति धीरे-धीरे भारतीय समाज और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गई, और इसके परिणाम स्वतंत्रता के बाद भी देखे गए।
1. डिवाइड एंड रूल नीति का भारतीय प्रशासन में योगदान:
(i) बंगाल विभाजन (1905):
(ii) सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व:
(iii) अलग-अलग धार्मिक समूहों का समर्थन:
(iv) जातिगत विभाजन का पोषण:
2. डिवाइड एंड रूल नीति के दीर्घकालिक परिणाम:
(i) धार्मिक विभाजन और भारत का विभाजन (1947):
(ii) सांप्रदायिक राजनीति का उदय:
(iii) जातिगत और सामाजिक विभाजन:
(iv) सामुदायिक असुरक्षा और अविश्वास:
(v) राष्ट्रीय एकता में बाधा:
निष्कर्ष:
ब्रिटिश प्रशासन की “फूट डालो और राज करो” नीति ने भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया। इस विभाजनकारी नीति ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को कमजोर किया, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी समाज में विभाजन को बढ़ावा दिया। दीर्घकालिक रूप से इस नीति का परिणाम भारत के विभाजन, सांप्रदायिक राजनीति, जातिगत संघर्ष, और सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आया। भारतीय समाज में आज भी इस नीति के परिणामस्वरूप उत्पन्न चुनौतियाँ विद्यमान हैं, जो राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई हैं।
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