डिवाइड एंड रूल नीति का भारतीय प्रशासन में क्या योगदान था? इसके दीर्घकालिक परिणामों का अध्ययन करें।
ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियों का भारतीय समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा। ये नीतियाँ मुख्य रूप से ब्रिटिश आर्थिक और राजनीतिक हितों को सुरक्षित करने के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनके सामाजिक और आर्थिक परिणाम भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित हुए। इन नीतियों ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गोRead more
ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियों का भारतीय समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा। ये नीतियाँ मुख्य रूप से ब्रिटिश आर्थिक और राजनीतिक हितों को सुरक्षित करने के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनके सामाजिक और आर्थिक परिणाम भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित हुए। इन नीतियों ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों पर असमान रूप से प्रभाव डाला, जिससे शोषण, असमानता, और गरीबी का प्रसार हुआ।
आइए, इन नीतियों के सामाजिक और आर्थिक परिणामों का विश्लेषण करें:
1. आर्थिक नीतियों का प्रभाव:
(i) जमींदारी, रैयतवाड़ी, और महलवारी प्रणाली:
- जमींदारी प्रणाली (Permanent Settlement): 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा बंगाल, बिहार, और उड़ीसा में लागू की गई इस प्रणाली के तहत ज़मींदारों को राजस्व संग्रह की जिम्मेदारी दी गई। ज़मींदारों को तय राशि सरकार को जमा करनी होती थी, चाहे किसान की फसल कैसी भी हो। इससे किसानों का शोषण बढ़ा और वे भारी कर्ज में डूब गए।
- रैयतवाड़ी प्रणाली: यह प्रणाली मुख्य रूप से मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में लागू की गई थी। इसमें किसानों (रैयत) को सीधे सरकार को कर देना पड़ता था, जिससे भी किसानों पर अत्यधिक आर्थिक दबाव पड़ा। इस प्रणाली में फसल की स्थिति का ध्यान नहीं रखा गया और किसानों को ऊँचे कर का भुगतान करना पड़ा।
- महलवारी प्रणाली: यह प्रणाली उत्तर भारत में लागू की गई, जिसमें पूरे गाँव (महल) को कर जमा करने की जिम्मेदारी दी गई। इससे गाँव के प्रधान या ज़मींदार द्वारा छोटे किसानों और मजदूरों का शोषण होता था।
परिणाम:
- किसानों का भारी शोषण हुआ और उनकी आर्थिक स्थिति बदतर हो गई।
- भूमि से जुड़े संघर्ष बढ़े, क्योंकि किसान कर्ज और करों के बोझ से दबे रहते थे।
- कृषि उत्पादकता में कमी आई और भूमि पर निर्भर ग्रामीण आबादी गरीबी और भूखमरी की चपेट में आ गई।
(ii) औद्योगिक नीतियाँ और आर्थिक शोषण:
- भारतीय उद्योगों का पतन: ब्रिटिश शासन ने भारतीय हस्तशिल्प, विशेष रूप से वस्त्र उद्योग को बर्बाद कर दिया। ब्रिटिश कारखानों में बने सस्ते कपड़े भारतीय बाजारों में बेचे गए, जिससे पारंपरिक कारीगरों और बुनकरों का रोजगार छिन गया। इसके अलावा, ब्रिटिश शासन ने भारतीय कच्चे माल, विशेषकर कपास, का निर्यात करके इंग्लैंड में निर्मित वस्त्रों को भारत में वापस बेचा।
- ड्रेन ऑफ वेल्थ (धन की निकासी): भारतीय अर्थशास्त्रियों, जैसे दादाभाई नौरोजी, ने इस बात पर जोर दिया कि ब्रिटिश शासन के तहत भारत से धन का निरंतर बहिर्वाह हो रहा था। भारत में उत्पन्न धन का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेजा जाता था, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर हो गई। इसके तहत करों, व्यापारिक अधिशेष, और मुनाफे के रूप में बड़ी मात्रा में धन भारत से निकाला गया।
परिणाम:
- भारतीय उद्योगों का पतन हुआ और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैली।
- देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई और कृषि पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ गई, जिससे गरीबी और असमानता में वृद्धि हुई।
- ब्रिटिश वस्त्र उद्योग को बढ़ावा मिला, लेकिन भारतीय समाज में आर्थिक असंतुलन गहराता गया।
(iii) वाणिज्यिक कृषि:
- ब्रिटिश शासन के तहत भारतीय किसानों को नकदी फसलों, जैसे नील, कपास, चाय, और अफीम उगाने के लिए मजबूर किया गया। यह सब ब्रिटिश व्यापारिक हितों को पूरा करने के लिए किया गया। इससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी आई और अकाल की स्थिति पैदा हुई।
परिणाम:
- खाद्यान्न की कमी और अकाल की स्थितियाँ बार-बार उत्पन्न हुईं। 19वीं और 20वीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर अकाल पड़े, जिनमें लाखों लोग मारे गए।
- वाणिज्यिक कृषि से भारतीय किसानों को तत्काल लाभ नहीं हुआ, बल्कि वे गरीबी और ऋण के चक्र में फँस गए।
2. सामाजिक नीतियों का प्रभाव:
(i) सामाजिक संरचना और वर्ग विभाजन:
- नए मध्य वर्ग का उदय: अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासनिक नौकरियों के कारण भारतीय समाज में एक नया मध्य वर्ग उभरा, जो मुख्य रूप से शिक्षित और अंग्रेजी-प्रभावित था। यह वर्ग ब्रिटिश प्रशासन के लिए काम करता था और इसमें वकील, शिक्षक, पत्रकार, और व्यापारी शामिल थे। यह वर्ग औपनिवेशिक शोषण के प्रति अधिक जागरूक हुआ और स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा।
परिणाम:
- अंग्रेजी शिक्षा और नौकरियों की उपलब्धता ने भारतीय समाज में जाति और वर्ग आधारित असमानताओं को नई दिशा दी। जहाँ एक ओर शिक्षित मध्यम वर्ग उभरा, वहीं ग्रामीण और श्रमिक वर्ग पिछड़ गया।
(ii) धार्मिक और सांस्कृतिक हस्तक्षेप:
- धार्मिक और सांस्कृतिक सुधार: ब्रिटिश शासन ने भारतीय धार्मिक प्रथाओं, जैसे सती प्रथा और बाल विवाह, को समाप्त करने के लिए कानून बनाए। 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध और 1891 में बाल विवाह निषेध कानून लागू किया गया।
- धार्मिक हस्तक्षेप: ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं में हस्तक्षेप किया गया, जिससे भारतीय समाज में नाराजगी बढ़ी। धर्मांतरण को बढ़ावा दिया गया और ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म प्रचार का कार्य किया गया, जिसे भारतीय जनता ने अपने धर्म पर हमला माना।
परिणाम:
- सामाजिक सुधारों ने भारतीय समाज में कुछ हद तक प्रगति की, लेकिन धार्मिक हस्तक्षेप से असंतोष और ब्रिटिश विरोधी भावना का जन्म हुआ।
(iii) जाति व्यवस्था पर प्रभाव:
- जातिगत विभाजन: ब्रिटिश शासन के दौरान जाति आधारित जनगणना और आरक्षण जैसे कदम उठाए गए, जिससे समाज में जातिगत विभाजन गहरा हो गया। ब्रिटिश सरकार ने निचली जातियों और दलितों के लिए अलग-अलग प्रतिनिधित्व और आरक्षण की नीति अपनाई, जिससे उच्च और निम्न जातियों के बीच संघर्ष बढ़ा।
परिणाम:
- जातिगत संघर्ष और विभाजन बढ़ा। इससे भारतीय समाज में एकता की कमी रही और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी जातिगत मुद्दों का प्रभाव रहा।
3. राजनीतिक नीतियों का प्रभाव:
(i) अधिनायकवादी प्रशासन:
- ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया। प्रशासनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति सीमित थी और न्यायिक तथा विधायी अधिकार पूरी तरह से अंग्रेजों के हाथों में थे।
- रॉलेट एक्ट (1919): इस कानून के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को बिना मुकदमे के जेल में बंद करने की शक्ति हासिल कर ली। इससे भारतीय जनता में भारी असंतोष उत्पन्न हुआ, जो जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसी घटनाओं का कारण बना।
परिणाम:
- भारतीय समाज में असंतोष और विद्रोह की भावना गहराई। रॉलेट एक्ट और जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसी घटनाओं ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा पैदा की।
(ii) विभाजन की नीति (Divide and Rule):
- ब्रिटिश सरकार ने “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई, जिसके तहत भारतीय समाज को धर्म, जाति, और क्षेत्र के आधार पर विभाजित किया गया। 1905 में बंगाल विभाजन इस नीति का एक प्रमुख उदाहरण था, जहाँ धार्मिक आधार पर बंगाल को विभाजित किया गया।
परिणाम:
- धार्मिक और सामुदायिक संघर्ष बढ़े। बंगाल विभाजन ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को और गहरा किया, जो आगे चलकर भारतीय समाज के लिए एक बड़ी चुनौती बना।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव:
(i) पश्चिमी संस्कृति और जीवन शैली का प्रभाव:
- अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी जीवनशैली का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। एक नया शिक्षित वर्ग उभरा, जो पश्चिमी विचारों और जीवनशैली से प्रभावित था। इसने भारतीय समाज के उच्च और मध्यम वर्ग में एक नई सांस्कृतिक पहचान को जन्म दिया।
परिणाम:
- भारतीय समाज में एक सांस्कृतिक विभाजन पैदा हुआ। एक तरफ पारंपरिक भारतीय संस्कृति थी, तो दूसरी ओर पश्चिमी प्रभाव से प्रभावित नया वर्ग उभरा। इससे समाज में एक नई सांस्कृतिक संघर्ष की स्थिति बनी।
(ii) सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदय:
- अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी विचारों के प्रभाव से भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत हुई। राजा राममोहन
ब्रिटिश शासन की "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) नीति भारतीय प्रशासन और समाज पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली रणनीति थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करके ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ बनाए रखना था। अंग्रेजों ने इस नीति के माध्यम से भRead more
ब्रिटिश शासन की “फूट डालो और राज करो” (Divide and Rule) नीति भारतीय प्रशासन और समाज पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली रणनीति थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करके ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ बनाए रखना था। अंग्रेजों ने इस नीति के माध्यम से भारतीयों के बीच दरारें पैदा कीं, ताकि वे संगठित होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह न कर सकें। यह नीति धीरे-धीरे भारतीय समाज और राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गई, और इसके परिणाम स्वतंत्रता के बाद भी देखे गए।
1. डिवाइड एंड रूल नीति का भारतीय प्रशासन में योगदान:
(i) बंगाल विभाजन (1905):
(ii) सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व:
(iii) अलग-अलग धार्मिक समूहों का समर्थन:
(iv) जातिगत विभाजन का पोषण:
2. डिवाइड एंड रूल नीति के दीर्घकालिक परिणाम:
(i) धार्मिक विभाजन और भारत का विभाजन (1947):
(ii) सांप्रदायिक राजनीति का उदय:
(iii) जातिगत और सामाजिक विभाजन:
(iv) सामुदायिक असुरक्षा और अविश्वास:
(v) राष्ट्रीय एकता में बाधा:
निष्कर्ष:
ब्रिटिश प्रशासन की “फूट डालो और राज करो” नीति ने भारतीय समाज को धार्मिक, जातिगत, और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया। इस विभाजनकारी नीति ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को कमजोर किया, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी समाज में विभाजन को बढ़ावा दिया। दीर्घकालिक रूप से इस नीति का परिणाम भारत के विभाजन, सांप्रदायिक राजनीति, जातिगत संघर्ष, और सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आया। भारतीय समाज में आज भी इस नीति के परिणामस्वरूप उत्पन्न चुनौतियाँ विद्यमान हैं, जो राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई हैं।
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