विश्व भर के विभिन्न संविधानों का मिश्रण होने के बावजूद, भारतीय संविधान अपने विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से सामाजिक न्याय, बहुलवाद और समानता को आत्मसात किए हुए है। टिप्पणी कीजिए। (250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को "आधारभूत संरचना" के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति "आधारभूत सRead more
केशवानंद भारती वाद (1973) भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव को “आधारभूत संरचना” के सिद्धांत के माध्यम से निपटाया। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय किया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन यह शक्ति “आधारभूत संरचना” (Basic Structure) को परिवर्तित या नष्ट नहीं कर सकती।
संदर्भ में, केशवानंद भारती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान की आधारभूत संरचना को परिवर्तित कर सकती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान की आधारभूत संरचना में लोकतंत्र, संघीय संरचना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मूल अधिकार जैसे तत्व शामिल हैं, जिन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करने में इस वाद का महत्व अत्यधिक है:
संवैधानिक सुरक्षा: यह निर्णय संविधान की संरचनात्मक स्थिरता और मूलभूत सिद्धांतों की सुरक्षा करता है। यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के मूल तत्व, जैसे लोकतंत्र और मौलिक अधिकार, संविधान संशोधन के दायरे से बाहर हैं।
न्यायपालिका की भूमिका: न्यायपालिका को संविधान की आधारभूत संरचना की रक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की शक्ति मिलती है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि संविधान में बदलाव जनता के मूल अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं कर सकते।
संवैधानिक संतुलन: यह निर्णय विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन को बनाए रखने में सहायक है। यह बताता है कि संविधान की मौलिक संरचना की रक्षा करना केवल संसद का काम नहीं है, बल्कि न्यायपालिका का भी है।
इस प्रकार, केशवानंद भारती वाद ने संविधान की स्थिरता और न्यायपूर्ण शासन के सिद्धांतों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमाओं को स्पष्ट किया।
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भारतीय संविधान, जो विश्व भर के विभिन्न संविधानों के तत्वों का मिश्रण है, अपने व्यापक और समावेशी प्रावधानों के माध्यम से सामाजिक न्याय, बहुलवाद और समानता की अवधारणाओं को आत्मसात करता है। संविधान की प्रस्तावना, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की गारंटी देती है, भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत मान्यताओंRead more
भारतीय संविधान, जो विश्व भर के विभिन्न संविधानों के तत्वों का मिश्रण है, अपने व्यापक और समावेशी प्रावधानों के माध्यम से सामाजिक न्याय, बहुलवाद और समानता की अवधारणाओं को आत्मसात करता है। संविधान की प्रस्तावना, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की गारंटी देती है, भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत मान्यताओं को दर्शाती है।
सामाजिक न्याय की दिशा में, भारतीय संविधान विशेष रूप से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित नौकरियों और शिक्षा के अवसरों की व्यवस्था करता है। अनुच्छेद 15 और 16 जाति, धर्म, लिंग, या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं। इसके अतिरिक्त, सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए विभिन्न योजनाएं और कानून बनाए गए हैं।
बहुलवाद को अपनाने में, भारतीय संविधान विभिन्न धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक समूहों के अधिकारों की रक्षा करता है। अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी संस्कृति, भाषा और शिक्षा के अधिकार प्रदान करते हैं। यह बहुलवादी संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देता है।
समानता की दिशा में, संविधान का अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है और कानून के समक्ष समानता की गारंटी करता है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके धर्म, जाति, लिंग, या सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव का सामना न करना पड़े।
इन प्रावधानों के माध्यम से, भारतीय संविधान न केवल विश्व के विभिन्न संविधानों से प्रेरित है, बल्कि अपने अद्वितीय दृष्टिकोण से सामाजिक न्याय, बहुलवाद और समानता को मजबूत करता है, जो भारतीय समाज की विविधता और समृद्धि को प्रतिबिंबित करता है।
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