पिछली शताब्दी के तीसरे दशक से भारतीय स्वतंत्रता की स्वप्न दृष्टि के साथ सम्बद्ध हो गए नए उद्देश्यों के महत्त्व को उजागर कीजिए। (250 words) [UPSC 2017]
राज्यसभा और लोकसभा के गठन में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया का योगदान और इसका भारतीय लोकतंत्र पर प्रभाव 1. संवैधानिक विकास की प्रक्रिया a. भारतीय संविधान का प्रारूप संविधान सभा का गठन (1946): भारतीय संविधान की निर्माण प्रक्रिया की शुरुआत 1946 में संविधान सभा के गठन से हुई, जिसमें प्रतिनिधि विभिन्न प्Read more
राज्यसभा और लोकसभा के गठन में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया का योगदान और इसका भारतीय लोकतंत्र पर प्रभाव
1. संवैधानिक विकास की प्रक्रिया
a. भारतीय संविधान का प्रारूप
- संविधान सभा का गठन (1946): भारतीय संविधान की निर्माण प्रक्रिया की शुरुआत 1946 में संविधान सभा के गठन से हुई, जिसमें प्रतिनिधि विभिन्न प्रांतों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करते थे। संविधान सभा ने लोकसभा और राज्यसभा के गठन पर विचार किया।
- संविधान का अंगीकरण (1950): भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, जिसमें लोकसभा और राज्यसभा की संरचना को परिभाषित किया गया।
b. लोकसभा का गठन
- साधारण चुनाव प्रणाली: लोकसभा का गठन प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से होता है, जिसमें भारत के नागरिक सीधे अपने प्रतिनिधियों का चयन करते हैं। 1951-52 के पहले आम चुनाव के साथ लोकसभा का पहला चुनाव आयोजित किया गया।
- अधिकार और जिम्मेदारियाँ: लोकसभा को कानून बनाने, वित्तीय बिल पास करने, और सरकार की कार्यप्रणाली पर निगरानी रखने का अधिकार प्राप्त है।
c. राज्यसभा का गठन
- नियुक्ति और चुनाव: राज्यसभा का गठन आंशिक रूप से नियुक्ति और आंशिक रूप से चुनाव के माध्यम से होता है। इसके सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभाओं द्वारा किया जाता है, और राष्ट्रपति कुछ सदस्यों की नियुक्ति करते हैं।
- भिन्न भूमिका: राज्यसभा को संविधान संशोधन, अंतर्राष्ट्रीय संधियों, और कानूनों की समीक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार प्राप्त है।
2. संविधानिक विकास का योगदान
a. प्रतिनिधित्व की विविधता
- लोकसभा में प्रतिनिधित्व: लोकसभा के माध्यम से भारतीय नागरिकों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है, जिससे विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों की समस्याएँ और जरूरतें सीधे संसद में उठाई जा सकती हैं।
- राज्यसभा में विविधता: राज्यसभा में राज्यों और विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व होता है, जिससे कानूनों और नीतियों में विविध दृष्टिकोण को शामिल किया जा सकता है।
b. विधान और नियामक प्रक्रिया
- विधायी प्रक्रिया का विकास: लोकसभा और राज्यसभा के गठन ने भारतीय विधायिका की विधान निर्माण और नियामक प्रक्रिया को व्यवस्थित किया। दोनों सदनों की संयुक्त कार्यप्रणाली ने संविधान और कानूनों में आवश्यक सुधार और संशोधन किए हैं।
- संसदीय लोकतंत्र की मजबूती: यह प्रक्रिया संविधानिक तंत्र को मज़बूती प्रदान करती है, जिससे सांसदीय लोकतंत्र को सुदृढ़ किया जा सके।
3. भारतीय लोकतंत्र पर प्रभाव
a. लोकतांत्रिक संतुलन और स्थिरता
- प्रतिनिधित्व का संतुलन: लोकसभा और राज्यसभा के माध्यम से राज्य और केंद्र के बीच संविधानिक संतुलन सुनिश्चित किया जाता है। लोकसभा में प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा जनसामान्य का प्रतिनिधित्व होता है, जबकि राज्यसभा में राज्यों और विशिष्ट व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व होता है।
- राजनीतिक स्थिरता: दोनों सदनों की संयुक्त कार्यप्रणाली ने भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक स्थिरता और संविधानिक व्यवस्था को बनाए रखने में मदद की है।
b. संवैधानिक और विधायिका सुधार
- विधान सभा की समीक्षा: राज्यसभा को कानूनों की समीक्षा और संविधान संशोधन में भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाया गया है, जिससे विधायिका में गुणवत्ता और सुधार को सुनिश्चित किया जा सके।
- लोकप्रिय मुद्दों पर ध्यान: लोकसभा के माध्यम से सीधे जनसमस्याओं और लोकप्रिय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जिससे सरकार को आम जनता की वास्तविक समस्याओं को समझने और उनके समाधान की दिशा में काम करने का मौका मिलता है।
4. हाल के उदाहरण
a. 2019 में संविधान संशोधन
- आरक्षण और सामाजिक न्याय: 124वां संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के माध्यम से ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) को 10% आरक्षण प्रदान किया गया। इस संशोधन ने लोकसभा और राज्यसभा में स्वीकृति और समीक्षा के बाद लागू किया गया, जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा मिला।
b. 2020 में कृषि कानून
- कृषि कानूनों पर विवाद: 2020 में कृषि कानूनों पर लोकसभा और राज्यसभा में विभिन्न विचार विमर्श हुआ। इन कानूनों के माध्यम से कृषि सुधारों पर चर्चा और विवाद ने संसद की कार्यप्रणाली और लोकप्रिय मुद्दों पर ध्यान देने की प्रक्रिया को स्पष्ट किया।
निष्कर्ष:
लोकसभा और राज्यसभा के गठन में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया ने भारतीय लोकतंत्र को सुदृढ़ और व्यवस्थित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह प्रक्रिया प्रतिनिधित्व, विधान निर्माण, और राजनीतिक स्थिरता में योगदान करती है। लोकसभा और राज्यसभा के संयोजन ने भारतीय संविधानिक तंत्र को एक मजबूत आधार प्रदान किया है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किया जा सकता है।
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पिछली शताब्दी के तीसरे दशक के नए उद्देश्यों की महत्ता पिछली शताब्दी के तीसरे दशक (1930-1940) में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक नया मोड़ आया, जिसमें नए उद्देश्यों और दृष्टिकोणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन नए उद्देश्यों ने स्वतंत्रता संग्राम को न केवल एक नई दिशा दी, बल्कि इसे व्यापक और प्रभावशालRead more
पिछली शताब्दी के तीसरे दशक के नए उद्देश्यों की महत्ता
पिछली शताब्दी के तीसरे दशक (1930-1940) में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक नया मोड़ आया, जिसमें नए उद्देश्यों और दृष्टिकोणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन नए उद्देश्यों ने स्वतंत्रता संग्राम को न केवल एक नई दिशा दी, बल्कि इसे व्यापक और प्रभावशाली बना दिया।
**1. नवीन दृष्टिकोण और आंदोलन
1930 में महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह के माध्यम से अंग्रेजी सरकार के खिलाफ व्यापक जन आंदोलन शुरू किया। यह आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसने जनसाधारण को सीधे संघर्ष में शामिल किया। इस प्रकार, गांधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम को केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आर्थिक आंदोलन भी बना दिया।
**2. आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा
1930 के दशक में गांधीजी ने स्वदेशी वस्त्र और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने पर जोर दिया। इससे भारतीय जनता की आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रति जागरूकता बढ़ी और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के खिलाफ एक महत्वपूर्ण संघर्ष छेड़ा गया। हाल ही में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत अभियान का उद्देश्य भी इसी सोच को आगे बढ़ाता है, जिससे देश की आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलता है।
**3. राजनीतिक गोलबंदी और समाज सुधार
1935 का भारत सरकार अधिनियम और असंतोष की प्रवृत्तियाँ ने भारतीय राजनीति में नए लक्ष्य और दृष्टिकोण पेश किए। विशेष रूप से, इस दशक में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विभाजन और अलगाववादी आंदोलन ने भारतीय राजनीति को प्रभावित किया। यह समय भारतीय समाज में एक नए राजनीतिक चिह्न और दिशा की ओर संकेत करता है, जो आज भी विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में देखा जा सकता है।
**4. नये नेतृत्व की उपस्थिति
इस समय ने नेहरूवादी विकास दृष्टिकोण और सामाजिक न्याय के महत्व को उजागर किया, जो स्वतंत्रता संग्राम के बाद स्वतंत्र भारत की नीतियों का आधार बने। जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी दृष्टिकोण और औद्योगिकीकरण की योजनाओं ने भारतीय राजनीति में नये उद्देश्यों को स्थापित किया।
इन उद्देश्यों ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और प्रासंगिकता दी, जो आज भी भारतीय राजनीति और समाज में गहराई से विद्यमान है।
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