‘उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था में, भारत द्वारा प्राप्त नव-भूमिका के कारण, उत्पीड़ित एवं उपेक्षित राष्ट्रों के मुखिया के रूप में दीर्घ काल से संपोषित भारत की पहचान लुप्त हो गई है।’ विस्तार से समझाइये । (250 words) [UPSC 2019]
**1960 के दशक में भारत के बाह्य संबंध** और घरेलू बाध्यताओं के बीच अंतर्संबंध को समझने के लिए हमें उस समय के ऐतिहासिक, राजनीतिक, और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा। **घरेलू बाध्यताएँ:** 1. **विकास और गरीबी**: 1960 के दशक में भारत ने स्वतंत्रता के बाद आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा में कई प्रयाRead more
**1960 के दशक में भारत के बाह्य संबंध** और घरेलू बाध्यताओं के बीच अंतर्संबंध को समझने के लिए हमें उस समय के ऐतिहासिक, राजनीतिक, और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा।
**घरेलू बाध्यताएँ:**
1. **विकास और गरीबी**: 1960 के दशक में भारत ने स्वतंत्रता के बाद आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा में कई प्रयास किए। गरीबी उन्मूलन, औद्योगिकीकरण, और कृषि सुधार प्राथमिक लक्ष्यों में थे, जो संसाधनों और विदेशी सहायता की मांग को प्रभावित कर रहे थे।
2. **आंतरिक अस्थिरता**: इस समय भारत में कई आंतरिक चुनौतियाँ थीं, जैसे जातीय और धार्मिक तनाव, नक्सल आंदोलन, और राजनीतिक अस्थिरता। ये घरेलू समस्याएँ विदेशी नीति पर ध्यान देने की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती थीं।
**अंतर्राष्ट्रीय परिवेश:**
1. **भारत-चीन युद्ध (1962)**: भारत और चीन के बीच युद्ध ने भारतीय सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा दिया और भारत को सोवियत संघ के साथ समीकरण को मजबूत करने की दिशा में प्रेरित किया। यह घटना भारत की विदेश नीति में बदलाव का एक प्रमुख बिंदु थी।
2. **शीत युद्ध का प्रभाव**: 1960 के दशक में शीत युद्ध ने वैश्विक राजनीति को प्रभावित किया। भारत ने निरपेक्षता की नीति अपनाई, लेकिन उसकी विदेश नीति सोवियत संघ के प्रति झुकाव और पश्चिमी शक्तियों के साथ संतुलन बनाने के प्रयासों को दर्शाती थी।
3. **गैर-संरेखित आंदोलन**: भारत ने इस आंदोलन की अगुवाई की, जिसका उद्देश्य उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष था। यह विदेश नीति में एक स्वतंत्र और तटस्थ रुख अपनाने के प्रयास को प्रदर्शित करता था।
**दोतरफा अंतर्संबंध:**
भारत की विदेश नीति 1960 के दशक में घरेलू बाध्यताओं और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के बीच संतुलन बनाने का प्रयास थी। घरेलू चुनौतियों ने भारत की विदेश नीति को आंतरिक सुरक्षा और आर्थिक विकास के संदर्भ में नया दिशा दिया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने भारत को वैश्विक राजनीति में अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करने पर मजबूर किया। इस प्रकार, 1960 के दशक में भारत के विदेश मामलों का संचालन घरेलू जरूरतों और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के बीच जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है।
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भारत की उभरती वैश्विक भूमिका और उसकी दीर्घकालिक पहचान के बीच का संबंध एक जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दा है। यहाँ पर विस्तार से इस मुद्दे की विवेचना की जा सकती है: 1. भारत की नव-भूमिका: हाल के वर्षों में, भारत ने वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक वृद्धि, सामरिक शक्ति, और अंतर्राष्ट्रीयRead more
भारत की उभरती वैश्विक भूमिका और उसकी दीर्घकालिक पहचान के बीच का संबंध एक जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दा है। यहाँ पर विस्तार से इस मुद्दे की विवेचना की जा सकती है:
1. भारत की नव-भूमिका:
हाल के वर्षों में, भारत ने वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक वृद्धि, सामरिक शक्ति, और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सक्रियता के कारण भारत एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी बन चुका है। भारत की नव-भूमिका ने उसे एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में स्थापित किया है, जिससे वह वैश्विक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।
2. उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों की पहचान:
विगत दशकों में, भारत ने उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के अधिकारों की रक्षा और उनकी सहायता के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत ने वैश्विक दक्षिण (Global South) के प्रमुख देश के रूप में विकासशील देशों के मुद्दों को प्रोत्साहित किया और उनके हितों की रक्षा की। इस संदर्भ में, भारत ने दक्षिण-सुत्र सहयोग, विकास सहायता, और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उनकी आवाज उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. नव-भूमिका के प्रभाव:
भारत की नई वैश्विक भूमिका ने उसकी पुरानी पहचान को प्रभावित किया है। उसकी बढ़ती आर्थिक और सामरिक शक्ति ने उसे एक प्रमुख शक्ति बना दिया है, जिससे उसका ध्यान अब बड़े वैश्विक मुद्दों और भू-राजनीतिक खेलों पर केंद्रित हो गया है। इस प्रक्रिया में, उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के प्रति भारत की पारंपरिक पहचान और भूमिका कम हो गई है।
4. संतुलन बनाए रखने की चुनौती:
भारत को अपनी वैश्विक भूमिका और पारंपरिक पहचान के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वैश्विक शक्तियों के साथ रणनीतिक साझेदारी और आर्थिक सहयोग के बावजूद, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के प्रति अपनी ऐतिहासिक प्रतिबद्धता को बनाए रखे।
5. आगे की दिशा:
भारत को अपने नव-भूमिका के साथ-साथ अपनी पारंपरिक पहचान को पुनर्जीवित करने के प्रयास करने होंगे। यह आवश्यक है कि भारत अपने विकासशील देशों के साथ सहयोग, सहायता और समर्थन की नीतियों को मजबूत करे और वैश्विक मंच पर उनके अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाए।
इस प्रकार, भारत की उभरती वैश्विक भूमिका ने उसके उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के मुखिया के रूप में दीर्घकालिक पहचान को प्रभावित किया है, लेकिन इसे संतुलित करने और समग्र वैश्विक राजनीति में अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण को बनाए रखने की आवश्यकता है।
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