भारत में जनजातियों के सशक्तिकरण में मूल बाधाओं का परीक्षण कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2019]
जाति व्यवस्था और नई पहचानों का प्रभाव परिचय: जाति व्यवस्था भारत की सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो नई पहचानों और सहकारी रूपों के साथ विकसित हो रही है। यह व्यवस्था सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं को दर्शाती है, लेकिन इसके उन्मूलन की संभावना पर विचार करते समय यह आवश्यक है कि इसे समग्र दृRead more
जाति व्यवस्था और नई पहचानों का प्रभाव
परिचय: जाति व्यवस्था भारत की सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो नई पहचानों और सहकारी रूपों के साथ विकसित हो रही है। यह व्यवस्था सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं को दर्शाती है, लेकिन इसके उन्मूलन की संभावना पर विचार करते समय यह आवश्यक है कि इसे समग्र दृष्टिकोण से समझा जाए।
जाति व्यवस्था में नई पहचानों का समावेश:
- आधुनिक सामाजिक गतिशीलता:
- जाति व्यवस्था में नई पहचान और सहकारी स्वरूप जैसे कि “जाति आधारित जाति संघ” और “आत्म-सहायता समूह” ने जाति व्यवस्था को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया है। उदाहरण के लिए, “स्वर्ण आयोग” और “शहरी अनुसूचित जाति” जैसे प्रयास जाति के पारंपरिक स्वरूप को चुनौती देते हैं और नए सामाजिक ढांचे को बढ़ावा देते हैं।
- आर्थिक और शैक्षिक परिवर्तन:
- आर्थिक प्रगति और शैक्षिक सुधार ने जाति आधारित भेदभाव को कम करने में योगदान दिया है। हाल ही में, “उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति और जनजाति छात्रों की संख्या में वृद्धि” ने जाति की परिभाषा को बदलने में मदद की है।
जाति व्यवस्था का उन्मूलन:
- संविधान और कानूनी सुधार:
- भारतीय संविधान और विभिन्न कानूनी सुधार जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में प्रयासरत हैं। हालांकि, जाति व्यवस्था के कुछ पहलू सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में गहराई से जुड़े हुए हैं।
- सामाजिक समरसता की दिशा:
- जाति व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करने के बजाय, सामाजिक समरसता और समाज में समानता को बढ़ावा देना अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण हो सकता है। “आत्म-सहायता समूहों” और “कला और सांस्कृतिक आदान-प्रदान” के माध्यम से जाति आधारित भेदभाव को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष: जाति व्यवस्था नई पहचानों और सहकारी रूपों के साथ बदल रही है, लेकिन इसका पूर्ण उन्मूलन एक जटिल प्रक्रिया है। जाति व्यवस्था को समझने और प्रासंगिक सुधार लागू करने की दिशा में सतत प्रयास महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक समरसता और समानता को बढ़ावा देने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
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1. आर्थिक पिछड़ापन: जनजातियों का आर्थिक पिछड़ापन उनकी विकास में सबसे बड़ी बाधा है। परंपरागत जीवनशैली और अवसंरचना की कमी के कारण वे अक्सर निम्न आय और सीमित रोजगार अवसर का सामना करते हैं। उदाहरणस्वरूप, छत्तीसगढ़ की आदिवासी बस्तियाँ बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रही हैं। 2. शैक्षिक चुनौतियाँ: जनजातियRead more
1. आर्थिक पिछड़ापन: जनजातियों का आर्थिक पिछड़ापन उनकी विकास में सबसे बड़ी बाधा है। परंपरागत जीवनशैली और अवसंरचना की कमी के कारण वे अक्सर निम्न आय और सीमित रोजगार अवसर का सामना करते हैं। उदाहरणस्वरूप, छत्तीसगढ़ की आदिवासी बस्तियाँ बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रही हैं।
2. शैक्षिक चुनौतियाँ: जनजातियों में शिक्षा की पहुँच सीमित है, जिसके परिणामस्वरूप उच्च शिक्षा और साक्षरता दर में कमी है। आंध्र प्रदेश के कोंडागांव जैसे क्षेत्रों में विद्यालयों की कमी और शिक्षण संसाधनों की कमी ने शिक्षा में बाधाएँ उत्पन्न की हैं।
3. स्वास्थ्य असमानता: स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य असमानता को बढ़ावा देती है। मध्य प्रदेश के बांसवाड़ा जिले में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी एक प्रमुख समस्या है।
**4. सामाजिक बहिष्कार: जनजातियों का सामाजिक बहिष्कार और विभाजन भी उनके सशक्तिकरण में रुकावट डालता है। संस्कृतिक भिन्नताएँ और भेदभाव उनकी सामाजिक समावेशिता में बाधा उत्पन्न करते हैं।
निष्कर्ष: भारत में जनजातियों के सशक्तिकरण में आर्थिक पिछड़ापन, शैक्षिक चुनौतियाँ, स्वास्थ्य असमानता, और सामाजिक बहिष्कार जैसी मूल बाधाएँ हैं, जिनका समाधान समग्र विकास योजनाओं और संवेदनशील नीतियों के माध्यम से किया जा सकता है।
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