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कौटिल्य के प्रशासन में भ्रष्टाचार के कितने मार्ग बताये गए हैं?
कौटिल्य के प्रशासन में भ्रष्टाचार के मार्ग कौटिल्य, जिन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार के चार प्रमुख मार्ग बताए हैं। ये मार्ग प्रशासनिक ईमानदारी को चुनौती देते हैं और शासन के प्रभावी संचालन को प्रभावित करते हैं। 1. घूस (रिष्वता) घूस वह प्रक्रिया है जिसRead more
कौटिल्य के प्रशासन में भ्रष्टाचार के मार्ग
कौटिल्य, जिन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार के चार प्रमुख मार्ग बताए हैं। ये मार्ग प्रशासनिक ईमानदारी को चुनौती देते हैं और शासन के प्रभावी संचालन को प्रभावित करते हैं।
1. घूस (रिष्वता)
घूस वह प्रक्रिया है जिसमें पैसे या वस्तुओं का लेन-देन निर्णयों और क्रियाओं को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। कौटिल्य के अनुसार, घूस एक महत्वपूर्ण भ्रष्टाचार का मार्ग है जो शासन की निष्पक्षता को प्रभावित करता है।
2. धन की हेराफेरी (व्यापद)
धन की हेराफेरी में उन निधियों की चोरी या दुरुपयोग शामिल है जो किसी के पास रखी गई हैं। कौटिल्य ने इसे गंभीर मुद्दा माना क्योंकि यह राज्य की वित्तीय संसाधनों को सीधे प्रभावित करता है।
3. अधिकारियों को घूस देना (अमात्य-रिष्वता)
यह भ्रष्टाचार का प्रकार है जिसमें अधिकारियों को विशेष लाभ प्राप्त करने के लिए घूस दी जाती है। कौटिल्य ने इसे प्रशासन की निष्पक्षता और प्रभावशीलता को प्रभावित करने वाला माना।
4. प्रशासनिक भ्रष्टाचार (आरण्य-व्यापद)
प्रशासनिक भ्रष्टाचार का तात्पर्य उन व्यापक भ्रष्टाचार से है जो प्रशासनिक ढांचे के भीतर होती है। इसमें उन प्रथाओं की भी शामिल होती है जहां भ्रष्टाचार प्रणाली में गहराई से समाहित हो जाता है।
निष्कर्ष
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार के चार प्रमुख मार्ग: घूस, धन की हेराफेरी, अधिकारियों को घूस देना, और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का उल्लेख किया है। वर्तमान उदाहरण जैसे विजय माल्या मामला, सत्याम घोटाला, कैश-फॉर-वीट घोटाला, और दिल्ली पुलिस भर्ती घोटाला इन मार्गों की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता को दर्शाते हैं। इन बिन्दुओं को समझना आधुनिक भ्रष्टाचार निवारण नीतियों के लिए महत्वपूर्ण है और प्रशासनिक सुधारों में उनकी प्रभावशीलता को बढ़ावा देने में सहायक है।
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कौटिल्य की विदेश नीति की समकालीन प्रासंगिकता परिचय कौटिल्य, जिन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने अपने ग्रंथ "अर्थशास्त्र" में विदेश नीति पर महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। उनकी नीतियों का मुख्य उद्देश्य राज्य की सुरक्षा, शक्ति, और समृद्धि को सुनिश्चित करना था। आधुनिक समय में, कौटिल्य की वRead more
कौटिल्य की विदेश नीति की समकालीन प्रासंगिकता
परिचय
कौटिल्य, जिन्हें चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने अपने ग्रंथ “अर्थशास्त्र” में विदेश नीति पर महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए हैं। उनकी नीतियों का मुख्य उद्देश्य राज्य की सुरक्षा, शक्ति, और समृद्धि को सुनिश्चित करना था। आधुनिक समय में, कौटिल्य की विदेश नीति के सिद्धांत कई वैश्विक परिदृश्यों में प्रासंगिक साबित हो रहे हैं। इस उत्तर में, हम देखेंगे कि कौटिल्य की विदेश नीति की समकालीन प्रासंगिकता क्या है और हाल की घटनाओं के उदाहरणों के माध्यम से इसे समझेंगे।
1. शक्ति संतुलन और नीति
2. सहयोग और विरोध की रणनीति
3. आंतरिक और बाहरी सुरक्षा
4. कूटनीति और राजनयिकता
5. अनुकूलन और लचीलापन
6. आर्थिक और व्यापारिक हित
निष्कर्ष
कौटिल्य की विदेश नीति के सिद्धांत आज भी वैश्विक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रासंगिक हैं। शक्ति संतुलन, कूटनीति, आंतरिक सुरक्षा, और आर्थिक हितों पर ध्यान देने वाले उनके विचार आधुनिक परिदृश्य में भी महत्वपूर्ण हैं। UPSC Mains aspirants के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि ऐतिहासिक सिद्धांतों का आधुनिक संदर्भ में कैसे उपयोग किया जा सकता है और उनके अनुसार नीतियाँ कैसे विकसित की जा सकती हैं।
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परिचय: महात्मा गांधी, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और विचारक, ने राज्य के बारे में एक अद्वितीय और आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनकी विचारधारा अहिंसा और स्वराज के सिद्धांतों पर आधारित थी। गांधीजी का राज्य के प्रति दृष्टिकोण समाज और शासन के उनके व्यापक दृष्टिकोण से जुड़ा था, जिसमें उRead more
परिचय: महात्मा गांधी, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और विचारक, ने राज्य के बारे में एक अद्वितीय और आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनकी विचारधारा अहिंसा और स्वराज के सिद्धांतों पर आधारित थी। गांधीजी का राज्य के प्रति दृष्टिकोण समाज और शासन के उनके व्यापक दृष्टिकोण से जुड़ा था, जिसमें उन्होंने राज्य के न्यूनतम हस्तक्षेप और व्यक्तियों एवं समुदायों के सशक्तिकरण पर जोर दिया।
गांधीजी की राज्य की आलोचना:
समकालीन प्रासंगिकता: हाल के समय में, गांधीजी के विचार विभिन्न आंदोलनों में प्रतिध्वनित होते हैं, जो विकेंद्रीकरण और समुदाय-आधारित विकास का समर्थन करते हैं। उदाहरण के लिए, केरल मॉडल ऑफ डेवलपमेंट विकेंद्रीकृत योजना और स्थानीय स्व-शासन पर जोर देता है, जो गांधीजी के समुदायों के सशक्तिकरण के दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है। इसी प्रकार, अन्ना हज़ारे द्वारा लोकपाल बिल के कार्यान्वयन के लिए चलाए गए आंदोलन को केंद्रीकृत राज्य शक्ति को कम करने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक धक्का के रूप में देखा जा सकता है, जो गांधीजी की राज्य के जबरदस्ती शक्ति के बारे में चिंता को प्रतिध्वनित करता है।
निष्कर्ष: महात्मा गांधी के राज्य के बारे में विचार अहिंसा, स्वराज और नैतिक शासन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से प्रेरित थे। यद्यपि उन्होंने समाज में राज्य की भूमिका को स्वीकार किया, फिर भी उन्होंने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की, जहां स्व-शासित समुदाय राज्य के एक ज़बरदस्त तंत्र की आवश्यकता को कम कर देंगे। उनके विचार आज भी शासन, विकेंद्रीकरण और न्याय एवं समानता सुनिश्चित करने में राज्य की भूमिका पर समकालीन बहसों को प्रभावित करते हैं।
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जे.एल. नेहरू के पंचशील सिद्धान्त के तीन बिन्दु पंचशील सिद्धान्त, जिसे पञ्चशील के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण आधार है जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में प्रस्तुत किया। यह सिद्धान्त शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा देने के लिए प्रस्तावित किया गया थRead more
जे.एल. नेहरू के पंचशील सिद्धान्त के तीन बिन्दु
पंचशील सिद्धान्त, जिसे पञ्चशील के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण आधार है जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में प्रस्तुत किया। यह सिद्धान्त शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा देने के लिए प्रस्तावित किया गया था। यहाँ पंचशील के तीन प्रमुख बिन्दु दिए गए हैं:
निष्कर्ष:
जे.एल. नेहरू के पंचशील सिद्धान्त में राष्ट्रों के बीच शांति और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण बिन्दुओं को सम्मिलित किया गया है। ये बिन्दु आज भी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और वैश्विक कूटनीति में प्रासंगिक हैं, और इनका पालन शांतिपूर्ण और समानतर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जाता है।
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जयप्रकाश नारायण का ‘सच्चे लोकतन्त्र’ का सिद्धान्त
जयप्रकाश नारायण (जेपी), भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता और लोकतान्त्रिक मूल्यों के समर्थक, ने ‘सच्चे लोकतन्त्र’ की एक परिभाषा प्रस्तुत की जो पारंपरिक राजनीतिक ढांचे से आगे बढ़कर सामाजिक और नैतिक पहलुओं को भी शामिल करती है। उनके अनुसार, सच्चा लोकतन्त्र केवल चुनावी प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें नागरिकों की सक्रिय भागीदारी, सामाजिक न्याय और नैतिक नेतृत्व भी महत्वपूर्ण है।
सच्चे लोकतन्त्र के प्रमुख तत्व:
हाल के उदाहरण और प्रासंगिकता:
निष्कर्ष:
जयप्रकाश नारायण का ‘सच्चे लोकतन्त्र’ का सिद्धान्त एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जिसमें केवल चुनावी प्रक्रिया ही नहीं बल्कि नागरिकों की सक्रिय भागीदारी, सामाजिक न्याय और नैतिक शासन भी शामिल हैं। उनका दृष्टिकोण लोकतन्त्र को एक समावेशी और नैतिक प्रणाली के रूप में परिभाषित करता है, जो आज भी समाज की समानता और न्याय की दिशा में मार्गदर्शक है।
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अम्बेडकर का लोकतन्त्र का दृष्टिकोण:
हाल के उदाहरण और प्रासंगिकता:
निष्कर्ष:
बाबा साहेब अम्बेडकर ने लोकतन्त्र को एक समग्र दृष्टिकोण से परिभाषित किया, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आयाम शामिल हैं। उनके दृष्टिकोण ने यह सुनिश्चित किया कि लोकतन्त्र केवल वोट देने का अधिकार नहीं है, बल्कि समानता, सामाजिक न्याय, और आर्थिक समानता की गारंटी भी है। उनकी परिभाषा लोकतन्त्र के एक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है, जो आज भी समाज की समानता और न्याय की दिशा में मार्गदर्शक सिद्ध होती है।
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