69वें संविधान संशोधन अधिनियम के उन अत्यावश्यक तत्त्वों और विषमताओं, यदि कोई हों, पर चर्चा कीजिए, जिन्होंने दिल्ली के प्रशासन में निर्वाचित प्रतिनिधियों और उप-राज्यपाल के बीच हाल में समाचारों में आए मतभेदों को पैदा कर दिया है। क्या आपके ...
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. संविधान की संशोधन शक्ति: अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संRead more
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. संविधान की संशोधन शक्ति:
अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की शक्ति है, जो एक विधायी प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है। संशोधन के लिए संसद में प्रस्ताव पेश किया जाता है, और इसे दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है, उसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है।
2. संविधान के मूल ढांचे की रक्षा:
केशवानंद भारती केस (1973) में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं है। संविधान का मूल ढांचा उन आधारभूत सिद्धांतों और प्रावधानों का समूह है जो संविधान की स्थिरता और पहचान को बनाए रखते हैं। इनमें संघीय ढांचा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मौलिक अधिकार शामिल हैं।
3. संशोधन की सीमाएँ:
संसद की संशोधन शक्ति परिसीमित है, जिसका अर्थ है कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसा संशोधन प्रस्तावित करती है जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या उसे कमजोर करता है, तो वह संशोधन न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन की समीक्षा कर सकता है और यह तय कर सकता है कि क्या वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या नहीं।
इस प्रकार, संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करने की शक्ति नहीं है, और उसकी संशोधन शक्ति इस ढांचे के प्रति संरक्षित रहती है।
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69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 ने दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसमें एक विधायिका और उप-राज्यपाल (LG) की नियुक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत: अत्यावश्यक तत्त्व: विधायिका की स्थापना: इस अधिनियम के तहत, दिल्ली को एक विधायिका प्राप्त हुई, जो राज्य सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों पर काRead more
69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 ने दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसमें एक विधायिका और उप-राज्यपाल (LG) की नियुक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत:
अत्यावश्यक तत्त्व:
विधायिका की स्थापना: इस अधिनियम के तहत, दिल्ली को एक विधायिका प्राप्त हुई, जो राज्य सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों पर कानून बना सकती है जो संसद के विशिष्ट अधिकार में नहीं हैं।
उप-राज्यपाल की भूमिका: उप-राज्यपाल को दिल्ली का प्रशासक नियुक्त किया गया, जो कानून व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर नियंत्रण रखते हैं।
शक्ति विभाजन: दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों और उप-राज्यपाल के शक्तियों में स्पष्ट विभाजन किया गया, ताकि दैनिक प्रशासन दिल्ली सरकार देख सके, जबकि उप-राज्यपाल केंद्रीय नियंत्रण बनाए रखे।
विषमताएँ और मतभेद:
शक्ति का ओवरलैप: दिल्ली सरकार और उप-राज्यपाल के बीच शक्तियों का ओवरलैप, विशेष रूप से कानून व्यवस्था और भूमि मामलों में, अक्सर विवाद का कारण बनता है।
प्रशासनिक संघर्ष: उप-राज्यपाल की हस्तक्षेप और दिल्ली सरकार की स्वायत्तता के बीच टकराव ने प्रशासनिक कार्यों और नीतियों पर प्रभाव डाला है।
न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय ने इन विवादों के समाधान के लिए हस्तक्षेप किया, लेकिन इसने स्थिति की जटिलता और विवादों को बढ़ा दिया है।
भारतीय परिसंघीय राजनीति पर प्रभाव:
See lessये मतभेद भारतीय परिसंघीय राजनीति में नई प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं। यह संकेत करता है कि केंद्रीय और राज्य अथवा क्षेत्रीय सरकारों के बीच शक्ति संतुलन और स्वायत्तता की समस्याएँ बढ़ सकती हैं। इससे भारतीय संघीय संरचना की पुनरावलोकन और बेहतर सुसंगतता की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है, ताकि इस तरह के संघर्षों को प्रभावी ढंग से हल किया जा सके।