Home/नीतिशास्त्र/नैतिक विचारक तथा दार्शनिक/Page 2
Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link and will create a new password via email.
Please briefly explain why you feel this question should be reported.
Please briefly explain why you feel this answer should be reported.
Please briefly explain why you feel this user should be reported.
एस० राधाकृष्णन के अनुसार, अंतर्ज्ञान और बुद्धि में क्या अंतर है?
एस. राधाकृष्णन के अनुसार अंतर्ज्ञान और बुद्धि में अंतर एस. राधाकृष्णन की परिभाषा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जो एक प्रमुख दार्शनिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति थे, ने अंतर्ज्ञान (Intuition) और बुद्धि (Intellect) के बीच महत्वपूर्ण भिन्नताओं को स्पष्ट किया। उनके अनुसार, ये दोनों ज्ञान प्राप्त करने और समझRead more
एस. राधाकृष्णन के अनुसार अंतर्ज्ञान और बुद्धि में अंतर
एस. राधाकृष्णन की परिभाषा
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जो एक प्रमुख दार्शनिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति थे, ने अंतर्ज्ञान (Intuition) और बुद्धि (Intellect) के बीच महत्वपूर्ण भिन्नताओं को स्पष्ट किया। उनके अनुसार, ये दोनों ज्ञान प्राप्त करने और समझने के विभिन्न तरीके हैं।
1. अंतर्ज्ञान
परिभाषा और विशेषताएँ: राधाकृष्णन के अनुसार, अंतर्ज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है जो तात्कालिक, अदृश्य ज्ञान प्रदान करती है, बिना किसी सांविधानिक या तार्किक सोच के। यह एक प्रकार की “आंतरिक समझ” होती है जो बिना विचार प्रक्रिया के उत्पन्न होती है।
हालिया उदाहरण:
2. बुद्धि
परिभाषा और विशेषताएँ: बुद्धि तर्कशील, विश्लेषणात्मक और व्यवस्थित सोच को दर्शाती है। यह एक प्रौढ़ और सुसंगत प्रक्रिया होती है, जिसमें प्रमाण, तर्क और आलोचनात्मक विश्लेषण शामिल होते हैं।
हालिया उदाहरण:
मुख्य भिन्नताएँ
निष्कर्ष
एस. राधाकृष्णन के अनुसार, अंतर्ज्ञान और बुद्धि ज्ञान और समझने के दो विभिन्न तरीके हैं। अंतर्ज्ञान तात्कालिक, गैर-तर्कसंगत अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जबकि बुद्धि व्यवस्थित और तार्किक सोच पर आधारित है। दोनों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं और विभिन्न संदर्भों में महत्वपूर्ण होती हैं।
See lessमहावीर के अनुसार, पाँच महाव्रतों का नाम लिखिए।
महावीर के अनुसार, पाँच महाव्रतों का नाम स्वामी महावीर, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर, ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक अनुशासित और संयमित जीवन जीने की शिक्षा दी। उनके अनुसार, पाँच महाव्रत (पंच महाव्रत) जैन साधु-साधिकाओं के लिए अनिवार्य हैं, लेकिन ये सिद्धांत सामान्य जीवन जीने वाले जैनियों के लिए भी मार्गRead more
महावीर के अनुसार, पाँच महाव्रतों का नाम
स्वामी महावीर, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर, ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक अनुशासित और संयमित जीवन जीने की शिक्षा दी। उनके अनुसार, पाँच महाव्रत (पंच महाव्रत) जैन साधु-साधिकाओं के लिए अनिवार्य हैं, लेकिन ये सिद्धांत सामान्य जीवन जीने वाले जैनियों के लिए भी मार्गदर्शक हैं। ये महाव्रत जीवन की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
1. अहिंसा (Non-Violence)
अहिंसा का मतलब है कि किसी भी जीवित प्राणी को शारीरिक, मानसिक या वाक् द्वारा हानि न पहुँचाई जाए। महावीर के अनुसार, अहिंसा सबसे महत्वपूर्ण व्रत है क्योंकि यह सभी प्रकार की हिंसा से बचने की सलाह देता है, जिसमें जानवरों, पौधों और यहां तक कि सूक्ष्मजीवों को भी नुकसान न पहुंचाना शामिल है।
2. सत्य (Truthfulness)
सत्य का अर्थ है हमेशा सच्चाई बोलना और झूठ से दूर रहना। महावीर के अनुसार, सत्य बोलने से व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है और दूसरों के साथ संबंध भी स्पष्ट रहते हैं।
3. अस्तेय (Non-Stealing)
अस्तेय का अर्थ है किसी भी वस्तु को बिना अनुमति के न लेना। महावीर ने बताया कि चोरी केवल भौतिक वस्तुओं की नहीं होती, बल्कि किसी की भी बौद्धिक या नैतिक संपत्ति का दुरुपयोग भी चोरी के दायरे में आता है।
4. ब्रह्मचर्य (Celibacy)
महावीर के अनुसार, ब्रह्मचर्य का पालन पूर्ण विवाहिक संयम और सेक्सुअल अवशिष्टता के रूप में होता है। यह संयमित जीवन जीने में मदद करता है और मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है।
5. अपरिग्रह (Non-Possessiveness)
अपरिग्रह का मतलब है सामग्री की अति-प्राप्ति और संग्रह से बचना। महावीर ने यह व्रत सिखाया कि व्यक्ति को केवल उतना ही स्वीकार करना चाहिए जितना आवश्यक हो और सभी अनावश्यक वस्तुओं से दूर रहना चाहिए।
निष्कर्ष
महावीर के पाँच महाव्रत—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह—जीवन की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। ये व्रत न केवल जैन साधु-साधिकाओं के लिए, बल्कि आधुनिक समाज के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, जो सच्चाई, संयम, और नैतिकता की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। इन व्रतों की अवधारणा आज भी सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में प्रासंगिक है।
See lessवेदों के बारे में दयानन्द सरस्वती का क्या विचार है?
वेदों के बारे में दयानन्द सरस्वती का विचार स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ने वेदों को मानव जाति के लिए सर्वोच्च ज्ञान का स्रोत माना और उन्होंने भारतीय समाज में व्यापक सुधार के लिए वेदों की पुनः स्थापना का आह्वान किया। उनका मानना था कि वेद अनादि, अपौरुषेय और सभी प्रकार के ज्ञान का स्रोत हैं, जिसमRead more
वेदों के बारे में दयानन्द सरस्वती का विचार
स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ने वेदों को मानव जाति के लिए सर्वोच्च ज्ञान का स्रोत माना और उन्होंने भारतीय समाज में व्यापक सुधार के लिए वेदों की पुनः स्थापना का आह्वान किया। उनका मानना था कि वेद अनादि, अपौरुषेय और सभी प्रकार के ज्ञान का स्रोत हैं, जिसमें धर्म, विज्ञान, और सामाजिक जीवन के सिद्धांत शामिल हैं। दयानन्द सरस्वती के विचारों ने भारतीय समाज के धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला।
1. वेद: सभी ज्ञान का सर्वोच्च स्रोत
दयानन्द सरस्वती ने वेदों को सर्वोच्च और शाश्वत सत्य के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, वेदों में न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान है, बल्कि विज्ञान, तर्क और नैतिकता के भी आधारभूत सिद्धांत हैं। उनका मानना था कि वेदों में सभी सच्चे और शाश्वत ज्ञान निहित हैं, जिनका पालन करके व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।
2. मूर्ति पूजा और कर्मकांड का खंडन
दयानन्द सरस्वती ने वेदों की सच्ची शिक्षाओं के आधार पर मूर्ति पूजा, कर्मकांड और बहुदेववाद का खंडन किया। वेदों के अध्ययन से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ईश्वर निर्गुण और निराकार है, जिसे किसी मूर्ति या प्रतिमा में बाँधा नहीं जा सकता। उन्होंने जोर देकर कहा कि वेदों के अनुसार ईश्वर की उपासना केवल उसकी वास्तविक पहचान को समझने और ज्ञान प्राप्त करने के माध्यम से होनी चाहिए, न कि मूर्ति पूजा के द्वारा।
3. सामाजिक सुधार और वेदों की प्रासंगिकता
स्वामी दयानन्द ने वेदों को केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार के लिए एक दिशा-निर्देशक के रूप में देखा। उनका मानना था कि वेद जातिवाद, अशिक्षा, और स्त्री-पुरुष असमानता जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ हैं। उन्होंने समाज में समानता, महिलाओं के अधिकार, और सभी के लिए शिक्षा का समर्थन किया, और इन सभी सुधारों का आधार वेदों में देखा।
4. वेदों और तर्क का महत्व
दयानन्द सरस्वती ने वेदों की शिक्षाओं को तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने पर जोर दिया। उन्होंने अंधविश्वास और बिना सोचे-समझे मान्यताओं का खंडन किया और वेदों को तर्कसंगत रूप से व्याख्यायित किया। उनके अनुसार, वेदों का अध्ययन तर्क और विवेक के आधार पर किया जाना चाहिए, और इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।
5. आर्य समाज के माध्यम से वेदों का प्रचार
स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की ताकि वेदों की सच्ची शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया जा सके। आर्य समाज आज भी वेदों की शिक्षा को समाज के हर वर्ग तक पहुँचाने का काम कर रहा है। उन्होंने वेदों को आम जनता तक पहुँचाने के लिए हिंदी और अन्य भाषाओं में उनके अनुवाद का समर्थन किया।
निष्कर्ष
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों को अनंत, अपौरुषेय और तर्कसंगत ज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया। उनके विचारों के अनुसार, वेद न केवल धार्मिक ज्ञान का स्रोत हैं, बल्कि समाज सुधार, शिक्षा, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के भी मार्गदर्शक हैं। उनकी विचारधारा ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला और आज भी आर्य समाज और अन्य संगठन उनके विचारों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। वेदों की पुनरावृत्ति के लिए दयानन्द की अपील आज भी धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक सुधारों में प्रासंगिक है।
See lessकबीर और तुलसीदास के राम में क्या भेद है?
कबीर और तुलसीदास के राम में भेद कबीर और तुलसीदास दोनों भारतीय भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे, लेकिन उनके द्वारा प्रस्तुत राम की अवधारणा में महत्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं। कबीर और तुलसीदास दोनों ने अपने समय के सामाजिक और धार्मिक संदर्भों में राम को प्रस्तुत किया, लेकिन उनकी भक्ति के रूप और राम के प्रति उनकRead more
कबीर और तुलसीदास के राम में भेद
कबीर और तुलसीदास दोनों भारतीय भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे, लेकिन उनके द्वारा प्रस्तुत राम की अवधारणा में महत्वपूर्ण भिन्नताएँ हैं। कबीर और तुलसीदास दोनों ने अपने समय के सामाजिक और धार्मिक संदर्भों में राम को प्रस्तुत किया, लेकिन उनकी भक्ति के रूप और राम के प्रति उनके दृष्टिकोण एक-दूसरे से भिन्न हैं। यह भिन्नता उनकी निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति की विचारधाराओं से स्पष्ट होती है।
1. सगुण बनाम निर्गुण राम
2. भक्ति और साधना का दृष्टिकोण
3. समावेशी बनाम विशेष आध्यात्मिकता
निष्कर्ष
कबीर और तुलसीदास के राम में भिन्नता उनके भक्ति मार्ग और ईश्वर की अवधारणा के आधार पर स्पष्ट होती है। कबीर के राम निर्गुण, निराकार, और सार्वभौमिक सत्य हैं, जबकि तुलसीदास के राम साकार, मर्यादा पुरुषोत्तम और वैदिक परंपराओं में स्थापित देवता हैं। दोनों की राम की व्याख्याएँ आज के धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिदृश्य में अलग-अलग संदर्भों में महत्व रखती हैं।
See lessचार्वाक का आत्मा सम्बन्धी मत क्या है?
चार्वाक का आत्मा सम्बन्धी मत चार्वाक दर्शन, जिसे लोकायत के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन भारतीय भौतिकवादी दर्शन है जो आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष जैसी पारंपरिक अवधारणाओं को खारिज करता है। यह दर्शन नास्तिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और इसे भारतीय दार्शनिक परंपराओं में विधर्म (heterRead more
चार्वाक का आत्मा सम्बन्धी मत
चार्वाक दर्शन, जिसे लोकायत के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन भारतीय भौतिकवादी दर्शन है जो आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष जैसी पारंपरिक अवधारणाओं को खारिज करता है। यह दर्शन नास्तिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और इसे भारतीय दार्शनिक परंपराओं में विधर्म (heterodox) माना जाता है क्योंकि यह वेदांत और सांख्य जैसे सिद्धांतों का विरोध करता है।
1. आत्मा की अस्वीकृति
चार्वाक के अनुसार, आत्मा का कोई स्वतंत्र या अमर अस्तित्व नहीं होता। चार्वाक मत में आत्मा को शरीर से अलग कोई स्थायी इकाई नहीं माना गया है। उनका तर्क है कि चेतना केवल शरीर और मस्तिष्क की एक उत्पादक प्रक्रिया है, जो चार तत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु—के संयोजन से उत्पन्न होती है। इस प्रकार, चार्वाक दर्शन आत्मा के अमर या शाश्वत होने की अवधारणा को अस्वीकार करता है।
2. पुनर्जन्म और परलोक का खंडन
चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म और आत्मा के आवागमन के विचार को भी अस्वीकार करता है। उनके अनुसार, जीवन केवल शरीर के भौतिक अस्तित्व तक ही सीमित है, और जैसे ही शरीर की मृत्यु होती है, चेतना समाप्त हो जाती है। चार्वाक मानते हैं कि मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं बचता—न कोई परलोक है, न स्वर्ग, न नरक, और न आत्मा जो शरीर के नाश के बाद भी जीवित रहे।
3. धार्मिक कर्मकांडों और मोक्ष की आलोचना
चार्वाक दर्शन धार्मिक कर्मकांडों और मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करने के प्रयासों की कड़ी आलोचना करता है। चार्वाक के अनुसार, मोक्ष की अवधारणा एक मिथ्या है, और इसके लिए किए गए धार्मिक अनुष्ठान व्यर्थ हैं क्योंकि न तो कोई परलोक है और न ही आत्मा जिसे मुक्त किया जा सके। इसके विपरीत, चार्वाक सांसारिक सुखों को जीवन का उद्देश्य मानते हैं और उनका मत है कि जीवन का उद्देश्य भौतिक जगत का आनंद लेना है।
निष्कर्ष
चार्वाक दर्शन का आत्मा सम्बन्धी मत अन्य भारतीय दार्शनिक परंपराओं से बिल्कुल भिन्न है। चार्वाक आत्मा के शाश्वत अस्तित्व और पुनर्जन्म, परलोक जैसी अवधारणाओं को खारिज करता है और केवल भौतिकवादी जीवन और सांसारिक सुखों को प्राथमिकता देता है। इस दृष्टिकोण की तुलना आधुनिक समाज में धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच, और उपभोक्तावादी जीवनशैली से की जा सकती है, जहाँ धार्मिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों की आलोचना की जाती है और भौतिकवादी सिद्धांतों को प्राथमिकता दी जाती है।
See lessअरस्तू के अनुसार, चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
अरस्तू के अनुसार चार कारण प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने वस्तुओं के अस्तित्व और परिवर्तनों की व्याख्या के लिए चार कारणों के सिद्धांत (Doctrine of Four Causes) को प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत यह समझने में मदद करता है कि किसी वस्तु या घटना के पीछे क्या कारण होते हैं। ये चार कारण हैं: भौतिक कारण, औपचाRead more
अरस्तू के अनुसार चार कारण
प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने वस्तुओं के अस्तित्व और परिवर्तनों की व्याख्या के लिए चार कारणों के सिद्धांत (Doctrine of Four Causes) को प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत यह समझने में मदद करता है कि किसी वस्तु या घटना के पीछे क्या कारण होते हैं। ये चार कारण हैं: भौतिक कारण, औपचारिक कारण, क्रियात्मक कारण, और अंतिम कारण। प्रत्येक कारण किसी विशेष पहलू से वस्तु के अस्तित्व की व्याख्या करता है।
1. भौतिक कारण (Material Cause)
भौतिक कारण उस पदार्थ या सामग्री को दर्शाता है जिससे कोई वस्तु बनी होती है। यह प्रश्न का उत्तर देता है, “यह किससे बना है?”
2. औपचारिक कारण (Formal Cause)
औपचारिक कारण किसी वस्तु की संरचना, रूप या डिज़ाइन को दर्शाता है। यह प्रश्न का उत्तर देता है, “इसका आकार या स्वरूप क्या है?” औपचारिक कारण उस वस्तु की परिभाषा या उसकी पहचान को बताता है।
3. क्रियात्मक कारण (Efficient Cause)
क्रियात्मक कारण वह कारण या एजेंट है जो किसी वस्तु को अस्तित्व में लाता है। यह प्रश्न का उत्तर देता है, “किसने इसे बनाया?”
4. अंतिम कारण (Final Cause)
अंतिम कारण किसी वस्तु या घटना के होने का उद्देश्य या उद्देश्य को दर्शाता है। यह प्रश्न का उत्तर देता है, “इसका उद्देश्य क्या है?” अरस्तू के अनुसार, यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है क्योंकि यह किसी वस्तु के अंतिम लक्ष्य या उद्देश्य की व्याख्या करता है।
निष्कर्ष
अरस्तू के चार कारण वस्तुओं और घटनाओं के अस्तित्व की व्यापक समझ प्रदान करते हैं। आधुनिक संदर्भों में यह सिद्धांत विज्ञान, प्रौद्योगिकी और शासन के विभिन्न क्षेत्रों में लागू होता है। इन कारणों को समझने से किसी घटना या वस्तु के पीछे की जटिलताओं को सुलझाया जा सकता है, जैसा कि अरस्तू ने विश्व को एक संरचित दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास किया था।
See less"काण्ट का नीतिशास्त्र आकारवादी एवं कठोरतावादी है।" इस मत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये तथा नैतिक जीवन में काण्ट के नैतिक सिद्धांत के महत्त्व का मूल्यांकन कीजिये। (200 Words) [UPPSC 2018]
काण्ट का नीतिशास्त्र: आकारवादी एवं कठोरतावादी मत का आलोचनात्मक परीक्षण 1. आकारवादी स्वभाव: काण्ट का नीतिशास्त्र आकारवादी (Formalist) माना जाता है क्योंकि यह नैतिक कानूनों की रूपरेखा पर जोर देता है, न कि उनके सामग्री पर। काण्ट के अनुसार, नैतिक क्रियाएँ उन सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए जिRead more
काण्ट का नीतिशास्त्र: आकारवादी एवं कठोरतावादी मत का आलोचनात्मक परीक्षण
1. आकारवादी स्वभाव: काण्ट का नीतिशास्त्र आकारवादी (Formalist) माना जाता है क्योंकि यह नैतिक कानूनों की रूपरेखा पर जोर देता है, न कि उनके सामग्री पर। काण्ट के अनुसार, नैतिक क्रियाएँ उन सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए जिन्हें सभी पर लागू किया जा सके। उदाहरण के लिए, काण्ट का Categorical Imperative इस बात की मांग करता है कि क्रियाएँ ऐसे सिद्धांतों के अनुसार की जाएँ जिन्हें सभी सामान्य परिस्थितियों में अपनाया जा सके। यह आकारवाद सुनिश्चित करता है कि नैतिक नियम वस्तुनिष्ठ हों और व्यक्तिगत इच्छाओं या स्थितियों से प्रभावित न हों।
2. कठोरतावादी स्वभाव: काण्ट का नीतिशास्त्र कठोरतावादी (Rigorist) है, क्योंकि यह कर्तव्य और नैतिक कानूनों के प्रति अत्यधिक प्रतिबद्धता की मांग करता है। काण्ट का तर्क है कि नैतिक क्रियाएँ केवल कर्तव्य के आधार पर की जानी चाहिए, परिणामों की परवाह किए बिना। उदाहरण के लिए, दरवाजे पर खड़े हत्यारे का मामला में, काण्ट झूठ बोलने के खिलाफ हैं, भले ही यह किसी की जान बचा सकता है। यह कठोरता दर्शाती है कि काण्ट का नैतिकता प्रणाली कितनी लचीली नहीं है।
नैतिक जीवन में काण्ट के सिद्धांतों का महत्त्व
1. सार्वभौमिकता: काण्ट के सिद्धांत सार्वभौमिकता पर जोर देते हैं, जो सुनिश्चित करता है कि नैतिक क्रियाएँ सभी के लिए समान रूप से लागू होनी चाहिए। यह आधुनिक मानवाधिकार के विचारों के साथ मेल खाता है, जो सभी व्यक्तियों को समान सम्मान और विचार देने की आवश्यकता पर आधारित है।
2. व्यक्तियों की सम्मान: काण्ट का सिद्धांत व्यक्तियों को स्वायत्त उद्देश्यों के रूप में मानता है, न कि साधनों के रूप में। यह वर्तमान नैतिक प्रथाओं जैसे व्यावसायिक नैतिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों का शोषण नहीं किया जाए और उन्हें सम्मान दिया जाए।
3. नैतिक स्थिरता: काण्ट का कठोरतावादी दृष्टिकोण नैतिक स्थिरता और अखंडता प्रदान करता है। यह व्यक्तियों को जटिल नैतिक दुविधाओं का समाधान करने में मदद करता है, स्पष्ट और सार्वभौमिक सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लेने में सहायक होता है।
इस प्रकार, काण्ट का नीतिशास्त्र, भले ही आकारवादी और कठोरतावादी प्रतीत होता है, लेकिन इसका ध्यान सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांतों और व्यक्तियों की सम्मान पर नैतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
See lessगाँधी के नैतिक एंव सामाजिक विचारों का परीक्षण कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2018]
गाँधी के नैतिक और सामाजिक विचार 1. नैतिक दार्शनिकता: गाँधी के नैतिक विचारों का केंद्र अहिंसा और सत्याग्रह था। उन्होंने अहिंसा को सबसे उच्च नैतिक सिद्धांत माना। उदाहरण के लिए, नमक सत्याग्रह (1930) में उन्होंने ब्रिटिश नमक कर के खिलाफ अहिंसात्मक विरोध किया, जो उनके शांतिपूर्ण प्रतिरोध के प्रति प्रतिबदRead more
गाँधी के नैतिक और सामाजिक विचार
1. नैतिक दार्शनिकता: गाँधी के नैतिक विचारों का केंद्र अहिंसा और सत्याग्रह था। उन्होंने अहिंसा को सबसे उच्च नैतिक सिद्धांत माना। उदाहरण के लिए, नमक सत्याग्रह (1930) में उन्होंने ब्रिटिश नमक कर के खिलाफ अहिंसात्मक विरोध किया, जो उनके शांतिपूर्ण प्रतिरोध के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
2. सामाजिक सुधार: गाँधी ने सामाजिक समानता और जाति उन्मूलन का समर्थन किया। उन्होंने हरिजन आंदोलन चलाया, जिसका उद्देश्य निम्न जातियों की स्थिति सुधारना था। चंपारण सत्याग्रह (1917) के माध्यम से उन्होंने ग्रामीण संकट और किसान अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया।
3. आत्मनिर्भरता और ग्रामीण विकास: गाँधी ने खादी और ग्रामीण उद्योगों के माध्यम से आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया। उनका गांवों की गणतंत्र का दृष्टिकोण विकेन्द्रीकृत, सतत विकास पर आधारित था, जिसे उन्होंने अपने लेखों और भाषणों में प्रतिपादित किया।
गाँधी के नैतिक और सामाजिक विचार आज भी अहिंसा और सामाजिक न्याय पर चर्चा में महत्वपूर्ण हैं।
See lessकार्ल मार्क्स के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की समकालीन लोकसेवा में भूमिका की परीक्षा कीजिए। (200 Words) [UPPSC 2019]
कार्ल मार्क्स के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की समकालीन लोकसेवा में भूमिका 1. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत, जिसमें वह पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच संघर्ष की बात करते हैं, समकालीन लोकसेवाओं पर प्रभावी रहा है। उदाहरण के लिए, भारत में श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा औरRead more
कार्ल मार्क्स के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की समकालीन लोकसेवा में भूमिका
1. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत
कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत, जिसमें वह पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच संघर्ष की बात करते हैं, समकालीन लोकसेवाओं पर प्रभावी रहा है। उदाहरण के लिए, भारत में श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा और न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने के लिए श्रम कानूनों का निर्माण किया गया है, जो मार्क्स के श्रमिकों की सुरक्षा की विचारधारा को दर्शाता है।
2. राज्य की भूमिका
मार्क्स के अनुसार, राज्य मुख्य रूप से शासक वर्ग के हितों की सेवा करता है। इस विचारधारा का प्रभाव वर्तमान में निजीकरण और सरकारी सेवाओं के वितरण पर देखा जा सकता है। जैसे कि भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया, जिनके माध्यम से यह चिंता उठती है कि क्या ये सेवाएँ आम जनता की जरूरतों को पूरा कर रही हैं या आर्थिक लाभ के लिए संचालित हो रही हैं।
3. समाजिक परिवर्तन का उपकरण
मार्क्स ने कहा था कि सार्वजनिक सेवाएं समाज में बदलाव के लिए एक उपकरण हो सकती हैं। भारत में, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGA) और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे कार्यक्रम इस दिशा में उठाए गए कदम हैं, जो समाजिक समानता और विकास को बढ़ावा देते हैं।
4. संसाधनों का पुनर्वितरण
मार्क्स के विचार में, संसाधनों का पुनर्वितरण आर्थिक असमानताओं को कम करने के लिए आवश्यक है। समकालीन उदाहरणों में, उत्तरी यूरोप के देशों जैसे स्वीडन और नॉर्वे में प्रगतिशील कराधान और सामाजिक कल्याण योजनाएं लागू की गई हैं, जो सामाजिक समानता को बढ़ावा देने का प्रयास करती हैं।
इन विचारों के माध्यम से, कार्ल मार्क्स के सामाजिक और राजनीतिक विचार समकालीन लोकसेवा में सामाजिक न्याय, राज्य की भूमिका, और संसाधनों के उचित वितरण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
See less"ज्ञान के बिना ईमानदारी कमज़ोर और व्यर्थ है, परन्तु ईमानदारी के बिना ज्ञान ख़तरनाक और भयानक होता है।" इस कथन से आप क्या समझते हैं? आधुनिक सन्दर्भ से उदाहरण लेते हुए अपने अभिमत को स्पष्ट कीजिए।(150 words) [UPSC 2014]
कथन की समझ यह कथन ईमानदारी और ज्ञान के आपसी संबंध को स्पष्ट करता है। ईमानदारी के बिना ज्ञान व्यर्थ हो सकता है क्योंकि इसे सही तरीके से लागू नहीं किया जा सकता। वहीं, ज्ञान के बिना ईमानदारी खतरनाक हो सकती है क्योंकि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। ईमानदारी के बिना ज्ञान जब ज्ञान के साथ ईमानदारी नहीं होRead more
कथन की समझ
यह कथन ईमानदारी और ज्ञान के आपसी संबंध को स्पष्ट करता है। ईमानदारी के बिना ज्ञान व्यर्थ हो सकता है क्योंकि इसे सही तरीके से लागू नहीं किया जा सकता। वहीं, ज्ञान के बिना ईमानदारी खतरनाक हो सकती है क्योंकि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
ईमानदारी के बिना ज्ञान
जब ज्ञान के साथ ईमानदारी नहीं होती, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है। उदाहरण के लिए, डेटा साइंस और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के क्षेत्र में गोपनीयता का उल्लंघन और भ्रष्टाचार हो सकता है। Cambridge Analytica कांड में डेटा का दुरुपयोग कर जनमत को प्रभावित किया गया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर खतरा पैदा हुआ।
ज्ञान के बिना ईमानदारी
ईमानदारी बिना ज्ञान के भी असफल हो सकती है। उदाहरण के लिए, स्वच्छता अभियानों में बहुत अच्छा इरादा होने के बावजूद, प्रभावी योजना और कार्यान्वयन के बिना ये अभियानों की सफलता सीमित हो जाती है।
आधुनिक सन्दर्भ
COVID-19 वैक्सीनेशन एक अच्छा उदाहरण है। वैज्ञानिक ज्ञान के बिना, वैक्सीन विकसित नहीं की जा सकती थी, लेकिन ईमानदारी से किए गए परीक्षण और वितरण ने इस प्रक्रिया को सुरक्षित और प्रभावी बनाया।
इस प्रकार, ज्ञान और ईमानदारी का सामंजस्यपूर्ण संयोजन आवश्यक है, ताकि दोनों का सकारात्मक उपयोग किया जा सके और समाज को लाभ हो।
See less