उत्तर लेखन के लिए रोडमैप
प्रश्न: ”शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को समझाइए। भारतीय संविधान में कौन-से प्रावधान हैं जो इस पृथक्करण को दर्शाते हैं?”
1. प्रस्तावना
- परिभाषा: शक्तियों के पृथक्करण का संक्षिप्त परिचय।
- महत्त्व: इसकी आवश्यकता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसका स्थान।
2. शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत
- इतिहास: इस सिद्धांत का विकास फ्रांसीसी विचारक मोंटेस्क्यू (Montesquieu) द्वारा हुआ।
- मुख्य तत्व:
- राज्य के तीन अंगों (विधायी, कार्यकारी, और न्यायिक) का पृथक्करण।
- एक अंग द्वारा दूसरे में हस्तक्षेप का निषेध।
- प्रत्येक अंग के कार्यों का सीमित आवंटन।
3. शक्तियों के पृथक्करण के लाभ
- संप्रभुता की सुरक्षा: शासन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को बढ़ाना।
- भ्रष्टाचार में कमी: विफलताओं और भाई-भतीजावाद की रोकथाम।
4. भारतीय संविधान में प्रावधान
- अनुच्छेद 50: न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का निर्देश। (नीति निदेशक तत्व)
- अनुच्छेद 53 और 154: कार्यपालिका शक्तियों का समावेश राष्ट्रपति और राज्यपाल में।
- अनुच्छेद 121 और 211: न्यायाधीशों के आचरण पर संसद की चर्चा का लिंक।
- अनुच्छेद 361: राष्ट्रपति और राज्यपालों को न्यायालय की कार्यवाहियों से उन्मुक्ति।
5. न्यायिक प्रवृत्तियाँ
- महत्वपूर्ण मामले:
- गोलकनाथ वाद: शक्तियों के पृथक्करण को संविधान का अनिवार्य तत्व माना गया।
- केशवानंद भारती वाद: इसे संविधान की ‘मूल संरचना’ के रूप में स्थापित किया गया।
6. निष्कर्ष
- संक्षेप में: शक्तियों का पृथक्करण लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में एक आवश्यक तत्व है।
- वर्तमान संदर्भ: भारत में कार्यकारी और विधायी के बीच का संबंध, और इसके प्रभाव।
प्रासंगिक तथ्य
- मोंटेस्क्यू का सिद्धांत: “दि स्पिरिट ऑफ द लॉज” – फ्रांसीसी विचारक का योगदान।
- गोलकनाथ वाद (1967) – सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के रूप में माना।
- केशवानंद भारती वाद (1973) – भारतीय संविधान की मूल संरचना को संरक्षित किया गया।
- अनुच्छेद 50 – “राज्य के नीति निदेशक तत्वों में एक प्रावधान।”
- अनुच्छेद 361 – राष्ट्रपति और राज्यपालों की सुरक्षा के लिए न्यायालय से अव्यवस्था।
श्रोत: भारतीय संविधान, मोंटेस्क्यू की रचनाएँ, और संबंधित न्यायिक निर्णय।
इस रोडमैप के माध्यम से, आप सवाल को संपूर्णता में समझ सकते हैं और उत्तर को सुव्यवस्थित और तार्किक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं।
परिचय:
शक्तियों का पृथक्करण एक संगठनात्मक प्रणाली है जहाँ जिम्मेदारियों, प्राधिकारों और शक्तियों को केंद्रीय रूप से संग्रहीत करने के बजाय समूहों के बीच विभाजित किया जाता है।
शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में कुछ विचार शामिल हैं:
कोई भी व्यक्ति सरकार में एक से अधिक पद धारण नहीं कर सकता
किसी अन्य शाखा का कोई भी कार्य किसी के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए।
किसी भी शाखा को दो अन्य शाखाओं के कार्यों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।
भारतीय संविधान में कई प्रावधान हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे समानता, शक्तियों के पृथक्करण और मौलिक अधिकारों जैसे विभिन्न सिद्धांतों को शामिल करते हैं:
मौलिक अधिकार
संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय का वादा किया गया है और मौलिक अधिकार इस वादे को क्रियान्वित करते हैं।
शक्तियों का पृथक्करण
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का यह पृथक्करण इनमें से किसी भी प्राधिकरण को बहुत मजबूत होने से रोकता है।
अवसर की समानता
प्रस्तावना नागरिकों को अवसर की समानता प्रदान करती है, और अनुच्छेद 14 राज्य को सभी को समान चीजें वितरित करने में उनके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराकर ऐसा करता है।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
वे दिशानिर्देश हैं जिनके तहत सरकार द्वारा कानून और नीतियां बनाई जानी हैं
सेना पर नागरिक नियंत्रण
सैन्य और पुलिस दोनों शक्तियां कार्यकारी सरकार की अन्य शाखाओं की तरह संवैधानिक और वैधानिक प्रतिबंधों द्वारा नियंत्रित होती हैं। व्यक्तियों के अधिकार संवैधानिक न्यायालय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय हैं जो व्यक्तिगत व्यक्तियों के अधिकारों को कायम रखते हैं।
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के विभिन्न कार्यों को अलग-अलग शाखाओं में विभाजित करता है, ताकि किसी एक संस्था का अत्यधिक नियंत्रण न हो सके। यह सिद्धांत लोकतंत्र में संतुलन और पारदर्शिता बनाए रखने में मदद करता है।
भारतीय संविधान में यह सिद्धांत तीन मुख्य शाखाओं के माध्यम से दर्शाया गया है: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। कार्यपालिका का प्रावधान अनुच्छेद 52 से 78 के बीच है, जिसमें राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल शामिल हैं। विधायिका, जो अनुच्छेद 79 से 122 में वर्णित है, संसद के माध्यम से कानून बनाने का कार्य करती है। न्यायपालिका, अनुच्छेद 124 से 147 के तहत, कानूनों की व्याख्या और न्याय सुनिश्चित करती है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 50 में भी दर्शाया गया है, जो न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच पृथक्करण की आवश्यकता को बताता है। यह प्रणाली भारतीय लोकतंत्र की मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
मॉडल उत्तर
“ट्रायस पॉलिटिका” या “शक्तियों का पृथक्करण” का सिद्धांत फ्रांसीसी विचारक मोंटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इसके अनुसार, राज्य की राजनीतिक शक्तियां विधायी, कार्यकारी, और न्यायिक शक्तियों में विभाजित होनी चाहिए। यह सिद्धांत स्वतंत्रता को अधिकतम रूप से सुरक्षित रखने के लिए बेहद आवश्यक है, और इसके अनुसार इन तीनों शक्तियों को एक-दूसरे से अलग और स्वतंत्र रूप से कार्य करने की आवश्यकता होती है।
इस सिद्धांत के तीन प्रमुख तत्व हैं:
इस प्रकार, शक्तियों का पृथक्करण प्रशासन और शासन में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को कम करने में मदद करता है।
भारतीय संविधान में प्रावधान
भारतीय संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, लेकिन कुछ प्रावधान इस सिद्धांत को दर्शाते हैं:
गोलकनाथ वाद में इसे भारतीय संविधान का एक अनिवार्य तत्व माना गया। बाद में, केशवानंद भारती वाद में इसे ‘मूल संरचना’ के रूप में मान्यता दी गई।
हालाँकि, भारत में कार्यात्मक अतिव्यापन भी होता है, जैसे कि कार्यपालिका विधायिका का हिस्सा है तथा न्यायिक नियुक्तियों में भी शामिल है।
श्रोत: भारतीय संविधान; मोंटेस्क्यू का “दि स्पिरिट ऑफ द लॉज”; न्यायिक मामले (गोलकनाथ, केशवानंद भारती)।