भले ही LGBTQIA+ युगल एक साथ रहते हो लेकिन कानूनी तौर पर वे एक प्रतिकूल स्थिति में हैं। उन्हें वे सारे अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो विवाहित जोड़ों को प्राप्त हैं। उदाहरण के लिए- LGBTQIA+ युगल, बच्चों को गोद नहीं ले सकते या सरोगेसी से बच्चा पैदा नहीं कर सकते हैं, उनके पास विरासत, भरण-पोषण और कर लाभ के स्वतः मिलने वाले अधिकार नहीं हैं तथा अपने साथी के निधन के बाद, उन्हें पेंशन या मुआवजे जैसे लाभ नहीं मिल सकते हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि विवाह एक सामाजिक संस्था है जो कानून द्वारा निर्मित और विस्तृत रूप से विनियमित है, ऐसे में सामाजिक स्वीकृति के बिना, समलैंगिक युगल एक साथ जीवन जीने के लिए संघर्ष करते हैं।समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने के लिए हाल के वर्षों में न्यायालयों में कई याचिकाएं दायर की गई हैं। लैंगिक अधिकार प्रचारकों के अनुसार, समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के बाद समलैंगिक विवाह को मान्यता देना अगला तार्किक कदम होना चाहिए।हालांकि, दूसरा दृष्टिकोण यह है कि न्यायिक व्याख्या विवाह की अवधारणा को अस्त-व्यस्त या कमजोर न कर दे। यह तर्क दिया जाता है कि सरकार के लिए बीच का रास्ता यह हो सकता है कि वह समलैंगिक युगल की दलीलों पर गौर करने और कोई रास्ता सुझाने के लिए किसी पैनल का गठन करे।
एक जागरूक व्यक्ति के रूप में, जो इस मुद्दे के विभिन्न आयामों को समझता है, निम्नलिखित का उत्तर दीजिए:
(a) इस प्रकरण में शामिल नैतिक मुद्दों पर चर्चा कीजिए।
(b) क्या आपको लगता है कि भारत में समलैंगिक विवाह को राज्य द्वारा मान्यता दी जानी चाहिए?
(c) आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए कि क्या कानून सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रभावी हो सकता है। (250 शब्दों में उत्तर दें)
(a) नैतिक मुद्दे
समलैंगिक युगलों को कानूनी मान्यता न देना नैतिक दृष्टिकोण से कई समस्याओं को जन्म देता है:
समानता का उल्लंघन: समलैंगिक युगलों को वे अधिकार नहीं मिलते जो पारंपरिक विवाहित जोड़ों को प्राप्त हैं, जिससे समानता और न्याय का उल्लंघन होता है। यह समाज में न्याय और मानवाधिकार के मूल सिद्धांतों को चुनौती देता है।
मानवाधिकार: समलैंगिक युगलों को गोद लेने, सरोगेसी, विरासत, और पेंशन जैसे अधिकारों से वंचित करना उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यह उनके पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में अनावश्यक बाधाएं उत्पन्न करता है।
सामाजिक स्वीकृति और सम्मान: समलैंगिक युगलों को कानूनी मान्यता न देना उनके सामाजिक सम्मान और स्वीकृति की कमी को दर्शाता है। यह उनके जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और समाज में भेदभाव को बढ़ावा देता है।
(b) समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता
भारत में समलैंगिक विवाह को राज्य द्वारा मान्यता देना चाहिए।
समानता और न्याय: सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलना चाहिए, चाहे वे किसी भी यौन अभिविन्यास के हों। समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देना न्याय और समानता के सिद्धांतों के साथ मेल खाता है।
मानवाधिकार: समलैंगिक युगलों को कानूनी अधिकार देना उनके मानवाधिकारों की रक्षा करेगा और उन्हें सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान करेगा।
वैश्विक प्रवृत्तियाँ: कई देश समलैंगिक विवाह को मान्यता दे चुके हैं, और भारत को भी इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए ताकि वह वैश्विक मानदंडों के साथ मेल खाता हो।
(c) कानून और सामाजिक परिवर्तन
कानून सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रभावी हो सकता है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता कुछ कारकों पर निर्भर करती है:
प्रेरणा और साक्षात्कार: कानून सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन को प्रोत्साहित कर सकता है, जैसे कि समलैंगिक विवाह के कानूनी मान्यता से समाज में समावेशिता और समानता को बढ़ावा मिल सकता है। यह भेदभाव और पूर्वाग्रह को कम कर सकता है।
सामाजिक मान्यता: हालांकि, कानून अकेले सामाजिक परिवर्तन को सुनिश्चित नहीं कर सकता। यह सामाजिक मान्यता, शिक्षा, और जन जागरूकता के साथ मिलकर काम करता है। कानून बदलाव की दिशा में पहला कदम हो सकता है, लेकिन वास्तविक सामाजिक परिवर्तन के लिए व्यापक प्रयास की आवश्यकता होती है।
संवैधानिक समर्थन: कानून को संविधान और मानवाधिकारों के आधार पर लागू किया जाना चाहिए, ताकि यह स्थायी और प्रभावी हो।
अंततः, कानून एक महत्वपूर्ण उपकरण है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन के लिए यह एक व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा होना चाहिए, जिसमें शिक्षा, सार्वजनिक विमर्श, और सांस्कृतिक स्वीकृति भी शामिल हो।