“विदेशी मामलों का संचालन घरेलू बाध्यताओं और मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के बीच दोतरफा अंतर्संबंध का एक परिणाम है।” 1960 के दशक में भारत के बाह्य संबंधों के संदर्भ में इस कथन पर चर्चा कीजिए।(250 शब्दों में उत्तर दीजिए)
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**1960 के दशक में भारत के बाह्य संबंध** और घरेलू बाध्यताओं के बीच अंतर्संबंध को समझने के लिए हमें उस समय के ऐतिहासिक, राजनीतिक, और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा।
**घरेलू बाध्यताएँ:**
1. **विकास और गरीबी**: 1960 के दशक में भारत ने स्वतंत्रता के बाद आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा में कई प्रयास किए। गरीबी उन्मूलन, औद्योगिकीकरण, और कृषि सुधार प्राथमिक लक्ष्यों में थे, जो संसाधनों और विदेशी सहायता की मांग को प्रभावित कर रहे थे।
2. **आंतरिक अस्थिरता**: इस समय भारत में कई आंतरिक चुनौतियाँ थीं, जैसे जातीय और धार्मिक तनाव, नक्सल आंदोलन, और राजनीतिक अस्थिरता। ये घरेलू समस्याएँ विदेशी नीति पर ध्यान देने की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती थीं।
**अंतर्राष्ट्रीय परिवेश:**
1. **भारत-चीन युद्ध (1962)**: भारत और चीन के बीच युद्ध ने भारतीय सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा दिया और भारत को सोवियत संघ के साथ समीकरण को मजबूत करने की दिशा में प्रेरित किया। यह घटना भारत की विदेश नीति में बदलाव का एक प्रमुख बिंदु थी।
2. **शीत युद्ध का प्रभाव**: 1960 के दशक में शीत युद्ध ने वैश्विक राजनीति को प्रभावित किया। भारत ने निरपेक्षता की नीति अपनाई, लेकिन उसकी विदेश नीति सोवियत संघ के प्रति झुकाव और पश्चिमी शक्तियों के साथ संतुलन बनाने के प्रयासों को दर्शाती थी।
3. **गैर-संरेखित आंदोलन**: भारत ने इस आंदोलन की अगुवाई की, जिसका उद्देश्य उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष था। यह विदेश नीति में एक स्वतंत्र और तटस्थ रुख अपनाने के प्रयास को प्रदर्शित करता था।
**दोतरफा अंतर्संबंध:**
भारत की विदेश नीति 1960 के दशक में घरेलू बाध्यताओं और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के बीच संतुलन बनाने का प्रयास थी। घरेलू चुनौतियों ने भारत की विदेश नीति को आंतरिक सुरक्षा और आर्थिक विकास के संदर्भ में नया दिशा दिया, जबकि अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने भारत को वैश्विक राजनीति में अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करने पर मजबूर किया। इस प्रकार, 1960 के दशक में भारत के विदेश मामलों का संचालन घरेलू जरूरतों और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के बीच जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है।