“संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे आत्यंतिक शक्ति के रूप में विस्तृत नहीं किया जा सकता है।” इस कथन के आलोक में व्याख्या कीजिए कि क्या संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत अपनी संशोधन की शक्ति का विशदीकरण करके संविधान के मूल ढांचे को नष्ट कर सकती है ? (250 words) [UPSC 2019]
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. संविधान की संशोधन शक्ति:
अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की शक्ति है, जो एक विधायी प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है। संशोधन के लिए संसद में प्रस्ताव पेश किया जाता है, और इसे दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है, उसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है।
2. संविधान के मूल ढांचे की रक्षा:
केशवानंद भारती केस (1973) में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं है। संविधान का मूल ढांचा उन आधारभूत सिद्धांतों और प्रावधानों का समूह है जो संविधान की स्थिरता और पहचान को बनाए रखते हैं। इनमें संघीय ढांचा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मौलिक अधिकार शामिल हैं।
3. संशोधन की सीमाएँ:
संसद की संशोधन शक्ति परिसीमित है, जिसका अर्थ है कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसा संशोधन प्रस्तावित करती है जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या उसे कमजोर करता है, तो वह संशोधन न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन की समीक्षा कर सकता है और यह तय कर सकता है कि क्या वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या नहीं।
इस प्रकार, संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करने की शक्ति नहीं है, और उसकी संशोधन शक्ति इस ढांचे के प्रति संरक्षित रहती है।