Home/upsc: ugravadi rashtravad krantikari gatividhi (1905-1918)
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एक लोकप्रिय जन चरित्र होने के बावजूद, स्वदेशी आंदोलन 1908 के मध्य तक आते-आते समाप्त हो गया। स्पष्ट कीजिए।(उत्तर 200 शब्दों में दें)
स्वदेशी आंदोलन का विघटन (1908 के मध्य तक): स्वदेशी आंदोलन, जो ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के खिलाफ भारतीय स्वाधीनता की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था, 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ। इसके अंतर्गत भारतीय वस्त्रों और उत्पादों की खरीद को बढ़ावा देने और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने का आह्वाRead more
स्वदेशी आंदोलन का विघटन (1908 के मध्य तक):
स्वदेशी आंदोलन, जो ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के खिलाफ भारतीय स्वाधीनता की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था, 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ। इसके अंतर्गत भारतीय वस्त्रों और उत्पादों की खरीद को बढ़ावा देने और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने का आह्वान किया गया। आंदोलन ने व्यापक समर्थन प्राप्त किया और भारतीयों में एकता और स्वदेशी भावना को प्रोत्साहित किया।
हालांकि, 1908 तक आते-आते आंदोलन की प्रभावशीलता में कमी आ गई। इसके मुख्य कारण थे:
इन कारकों के संयोजन ने स्वदेशी आंदोलन की गतिविधियों को कमजोर कर दिया, और यह 1908 के मध्य तक समाप्त हो गया, हालांकि इसके विचार और उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के अन्य चरणों में जीवित रहे।
See lessभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सूरत विभाजन के कारणों को उजागर करते हुए, राष्ट्रीय आंदोलन पर इसके परिणामों की विवेचना कीजिए। (उत्तर 250 शब्दों में दें)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सूरत विभाजन 1907 में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके कारण और परिणाम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाले। कारण: आंतरिक मतभेद: कांग्रेस के भीतर दो प्रमुख गुटों—लाल-बाल-पाल (लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल) और जोधीश चंद्र चटर्जी (अल्बर्टा और सुधारवादी)Read more
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सूरत विभाजन 1907 में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके कारण और परिणाम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर गहरा प्रभाव डाले।
कारण:
आंतरिक मतभेद: कांग्रेस के भीतर दो प्रमुख गुटों—लाल-बाल-पाल (लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल) और जोधीश चंद्र चटर्जी (अल्बर्टा और सुधारवादी) के बीच मतभेद उभर आए। लाल-बाल-पाल गुट ने अधिक सशक्त और जनसंगठन आधारित आंदोलन की मांग की, जबकि सुधारवादी गुट ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग और सुधार पर जोर दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन: तिलक और उनके अनुयायी सविनय अवज्ञा और अधिक आक्रामक दृष्टिकोण की ओर बढ़ रहे थे, जबकि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व उदार सुधारों और संविधानिक दृष्टिकोण की ओर झुका हुआ था। यह असहमति विभाजन का एक बड़ा कारण बनी।
आंतरिक संघर्ष और असंतोष: सूरत के अधिवेशन में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर गहरे विवाद हुए। अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के चयन पर मतभेद और अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की प्रक्रिया ने तनाव को बढ़ा दिया।
परिणाम:
विभाजन का प्रभाव: सूरत विभाजन ने कांग्रेस में गहरे आंतरिक संघर्ष पैदा किए। इससे कांग्रेस की एकता को नुकसान पहुंचा और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया। यह विभाजन दो स्पष्ट ध्रुवों में बांट दिया—सुधारवादी और उग्रवादियों में।
उग्रवादियों का उभार: विभाजन के बाद, तिलक और उनके अनुयायी उग्रवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने में सफल रहे, जिससे उग्रवादियों की स्थिति मजबूत हुई और अधिक जनसमर्थन प्राप्त हुआ।
नेतृत्व का पुनर्गठन: सूरत विभाजन ने नए नेतृत्व और नई रणनीतियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। कांग्रेस में इस विभाजन के बाद के वर्षों में गांधीजी का आगमन हुआ, जिन्होंने एकता और अहिंसात्मक आंदोलन को बढ़ावा दिया और भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को नई दिशा दी।
राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव: सूरत विभाजन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को स्थगित किया, लेकिन इससे नए आंदोलनों और विचारों को जन्म मिला। अंततः, इस संघर्ष ने कांग्रेस को पुनर्गठित किया और स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया।
इस प्रकार, सूरत विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर महत्वपूर्ण बदलाव लाए और स्वतंत्रता आंदोलन को स्थायी रूप से प्रभावित किया।
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