सोवियत संघ के विघटन के समय ग्लास्नोस्ट और पेरोस्त्रोइका नीतियों का क्या महत्व था? इन नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण करें।
भारत के संविधान में मूल अधिकार, मूल कर्तव्य और राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत तीनों महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधान हैं जो नागरिकों और राज्य के बीच संबंधों को स्पष्ट करते हैं। ये तीनों संविधान के विभिन्न भागों में उल्लिखित हैं और भारत के लोकतंत्र और शासन व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।Read more
भारत के संविधान में मूल अधिकार, मूल कर्तव्य और राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत तीनों महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधान हैं जो नागरिकों और राज्य के बीच संबंधों को स्पष्ट करते हैं। ये तीनों संविधान के विभिन्न भागों में उल्लिखित हैं और भारत के लोकतंत्र और शासन व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
1. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights):
भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों का समावेश अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। ये अधिकार भारतीय नागरिकों को राज्य से सुरक्षित करने वाले व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता के अधिकार हैं। ये अधिकार न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं, बल्कि नागरिकों को न्याय, समानता और गरिमा प्रदान करते हैं। इनमें प्रमुख अधिकारों में शामिल हैं:
समानता का अधिकार (अनु. 14-18)
स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 19-22)
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु. 23-24)
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु. 25-28)
संस्कृति और शिक्षा के अधिकार (अनु. 29-30)
संविधान संशोधन से बचाव (अनु. 32)
2. मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties):
मौलिक कर्तव्य भारतीय नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 51A में दिए गए हैं। ये कर्तव्य नागरिकों को समाज के प्रति जिम्मेदारी और कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करते हैं। यह कर्तव्यों का उद्देश्य नागरिकों को राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका और कर्तव्यों का एहसास कराना है। इन कर्तव्यों में भारतीय संस्कृति और धरोहर का सम्मान करना, पर्यावरण की रक्षा करना, और संविधान के प्रति आस्था रखना शामिल है।
3. राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy):
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में शामिल हैं। ये सिद्धांत राज्य को नीति निर्माण के दौरान मार्गदर्शन देने वाले दिशानिर्देश प्रदान करते हैं, जो समाज की सामाजिक और आर्थिक समानता को सुनिश्चित करने के लिए होते हैं। हालांकि ये सिद्धांत कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होते, लेकिन इनका उद्देश्य सरकार को समाज में न्याय, समानता और भ्रातृत्व को बढ़ावा देने के लिए नीति बनाते समय मार्गदर्शन देना है। इसमें शामिल सिद्धांतों में:
समान जीवन स्तर प्रदान करना
शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार करना
गरीबी उन्मूलन और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना
इन तीनों प्रावधानों का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन स्थापित करना, और राज्य को समाज के समग्र कल्याण के लिए नीति बनाने के लिए प्रेरित करना है।
सोवियत संघ के विघटन के समय ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका नीतियों का महत्व 1. परिचय: ग्लास्नोस्ट (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा 1980 के दशक में शुरू की गईं प्रमुख नीतियाँ थीं। इन नीतियों का उद्देश्य सोवियत संघ की कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और राजनीRead more
सोवियत संघ के विघटन के समय ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका नीतियों का महत्व
1. परिचय: ग्लास्नोस्ट (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा 1980 के दशक में शुरू की गईं प्रमुख नीतियाँ थीं। इन नीतियों का उद्देश्य सोवियत संघ की कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना था। हालाँकि, इन नीतियों ने अप्रत्याशित रूप से सोवियत संघ के विघटन में योगदान दिया।
2. ग्लास्नोस्ट (खुलापन) का महत्व:
सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता:
राजनीतिक जागरूकता और आंदोलन:
3. पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) का महत्व:
आर्थिक सुधार और बाजार-आधारित नीतियाँ:
राजनीतिक ढांचे में बदलाव:
4. इन नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण:
अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार न होना:
राष्ट्रीयता और अलगाववाद की लहर:
कम्युनिस्ट पार्टी की शक्ति का ह्रास:
सोवियत संघ का विघटन (1991):
5. निष्कर्ष: ग्लास्नोस्ट और पेरेस्त्रोइका सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारक थे। हालाँकि इन नीतियों का उद्देश्य सुधार और पुनर्निर्माण था, लेकिन इनके परिणामस्वरूप सोवियत संघ में अस्थिरता और विघटन उत्पन्न हुआ। गोर्बाचेव की इन नीतियों ने सोवियत संघ के अंत की प्रक्रिया को तेज किया और वैश्विक राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।
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