भारत में 1970 के दशक में प्रारंभ हुए नवीन किसान आंदोलनों का विवरण दीजिए। (उत्तर 250 शब्दों में दें)
धार्मिकता और साम्प्रदायिकता के बीच विभेदन महत्वपूर्ण है, विशेषकर स्वतंत्र भारत में धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने की प्रक्रिया को समझने में। धार्मिकता बनाम साम्प्रदायिकता: स्वभाव और ध्यान केंद्रित: धार्मिकता: व्यक्तिगत या सामूहिक आध्यात्मिक आस्था, धार्मिक अनुष्ठान, और नैतिक मूल्यों पRead more
धार्मिकता और साम्प्रदायिकता के बीच विभेदन महत्वपूर्ण है, विशेषकर स्वतंत्र भारत में धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने की प्रक्रिया को समझने में।
धार्मिकता बनाम साम्प्रदायिकता:
- स्वभाव और ध्यान केंद्रित:
- धार्मिकता: व्यक्तिगत या सामूहिक आध्यात्मिक आस्था, धार्मिक अनुष्ठान, और नैतिक मूल्यों पर आधारित होती है। इसका उद्देश्य व्यक्तिगत शांति, आत्म-संवर्धन, और समुदाय की एकता को बढ़ावा देना होता है।
- साम्प्रदायिकता: यह एक राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा होती है जो एक विशेष धार्मिक समुदाय के हितों को दूसरों पर प्राथमिकता देती है, जिससे सामाजिक विभाजन और संघर्ष पैदा होते हैं।
- प्रभाव:
- धार्मिकता: यह व्यक्तिगत विश्वास और आस्था को बढ़ावा देती है, जिससे सामाजिक संबंध और पारस्परिक समझ विकसित होती है।
- साम्प्रदायिकता: यह सामाजिक असहमति और संघर्ष को जन्म देती है, और समाज में धार्मिक आधार पर विभाजन को बढ़ावा देती है।
उदाहरण:
गुजरात दंगों (2002) इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने को देखा जा सकता है। इस घटना के मूल में, एक ट्रेन में आग लगने की दुर्घटना थी, जिसमें कई हिंदू तीर्थयात्री मारे गए थे। इस घटना ने धार्मिक उन्माद और भावनाओं को भड़काया, जिसे कुछ राजनीतिक समूहों ने साम्प्रदायिक माहौल उत्पन्न करने के लिए भुनाया।
धार्मिक भावनाओं को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किया गया, जिससे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न का वातावरण बना। धार्मिकता, जो कि पहले व्यक्तिगत और आध्यात्मिक विश्वासों पर आधारित थी, साम्प्रदायिकता में बदल गई, जहां धार्मिक पहचान और झगड़े सामाजिक और राजनीतिक एजेंडों के लिए उपयोग किए गए।
इस प्रकार, धार्मिकता से साम्प्रदायिकता का रूपांतरण व्यक्तिगत आस्था को राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष में बदल देता है, जो व्यापक सामाजिक विभाजन और हिंसा का कारण बनता है।
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1970 के दशक में भारत में नवीन किसान आंदोलनों की शुरुआत हुई, जो किसानों की बदलती आवश्यकताओं और अधिकारों के प्रति जागरूकता का प्रतीक थे। ये आंदोलन पुराने किसान आंदोलनों से इस मायने में अलग थे कि इनमें नए प्रकार की संगठनात्मक ढांचा और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया। 1970 के दशक के किसान आंदोलनों कीRead more
1970 के दशक में भारत में नवीन किसान आंदोलनों की शुरुआत हुई, जो किसानों की बदलती आवश्यकताओं और अधिकारों के प्रति जागरूकता का प्रतीक थे। ये आंदोलन पुराने किसान आंदोलनों से इस मायने में अलग थे कि इनमें नए प्रकार की संगठनात्मक ढांचा और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
1970 के दशक के किसान आंदोलनों की शुरुआत हरित क्रांति के प्रभाव से हुई। हरित क्रांति ने जहां एक ओर कृषि उत्पादन में वृद्धि की, वहीं दूसरी ओर असमानता भी बढ़ाई। छोटे और मध्यम किसान इस क्रांति से वंचित रह गए, क्योंकि उनकी पहुंच उन्नत तकनीक और संसाधनों तक नहीं थी। इससे असंतोष फैलने लगा और किसानों ने संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।
इस काल के प्रमुख किसान आंदोलनों में महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन (शेतकरी संघटना) प्रमुख था, जिसे शरद जोशी ने 1979 में स्थापित किया। यह आंदोलन किसानों के लिए उचित मूल्य, भूमि सुधार, और सरकारी हस्तक्षेप के खिलाफ था। इसी तरह, पंजाब में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) का गठन हुआ, जिसने किसानों के आर्थिक हितों के लिए संघर्ष किया।
इन आंदोलनों में किसानों ने सरकारी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई, जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि, कर्ज माफी, और बिजली तथा सिंचाई के साधनों पर सब्सिडी की मांग। इन आंदोलनों ने किसानों को एकजुट किया और उन्हें राजनीतिक रूप से भी संगठित किया।
1970 के दशक के किसान आंदोलन न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण थे। इन्होंने भारतीय कृषि नीति में बदलाव लाने के लिए सरकार पर दबाव डाला और किसानों की समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया।
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