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सरदार वल्लभभाई पटेल की भारतीय रियासतों के चिलीनीकरण में भूमिका को स्पष्ट कीजिये। (125 Words) [UPPSC 2018]
सरदार वल्लभभाई पटेल की रियासतों के एकीकरण में भूमिका नेतृत्व और प्रभाव: सरदार वल्लभभाई पटेल, जो भारत के उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे, ने स्वतंत्रता के बाद रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सफल वार्ताएँ: पटेल ने द्वारका वल्लभजी और जम्मू और कश्मीर के महाराजा जैसे प्रमुख रियासतों के सRead more
सरदार वल्लभभाई पटेल की रियासतों के एकीकरण में भूमिका
नेतृत्व और प्रभाव: सरदार वल्लभभाई पटेल, जो भारत के उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे, ने स्वतंत्रता के बाद रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सफल वार्ताएँ: पटेल ने द्वारका वल्लभजी और जम्मू और कश्मीर के महाराजा जैसे प्रमुख रियासतों के साथ प्रभावशाली वार्ताएँ की। उन्होंने आयोग की संधि का उपयोग कर अधिकांश रियासतों को भारत संघ में शामिल किया।
ऑपरेशन पोलो: 1948 में, पटेल ने ऑपरेशन पोलो का नेतृत्व किया, जिसने हैदराबाद को भारत में शामिल किया और किसी भी प्रतिरोध को समाप्त किया।
विरासत: पटेल के प्रयासों ने 500 से अधिक रियासतों को सफलतापूर्वक भारतीय संघ में शामिल किया, जिससे देश की एकता और स्थिरता सुनिश्चित हुई।
See lessक्या भाषाई राज्यों के गठन ने भारतीय एकता के उद्देश्य को मजबूती प्रदान की है? (200 words) [UPSC 2016]
भाषाई राज्यों के गठन ने भारतीय एकता के उद्देश्य को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत की विविधता को बनाए रखते हुए एकता सुनिश्चित करना एक चुनौती थी। भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन, जिसे 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया, ने इस चुRead more
भाषाई राज्यों के गठन ने भारतीय एकता के उद्देश्य को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, भारत की विविधता को बनाए रखते हुए एकता सुनिश्चित करना एक चुनौती थी। भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन, जिसे 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया, ने इस चुनौती का समाधान प्रदान किया।
पहले, राज्यों की सीमाएं ऐतिहासिक और प्रशासनिक कारकों पर आधारित थीं, लेकिन यह व्यवस्था सांस्कृतिक और भाषाई विविधताओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। भाषाई आधार पर राज्यों का गठन करने से, जनता को उनके भाषा, संस्कृति और परंपराओं के साथ पहचाने जाने का अवसर मिला। इससे न केवल प्रशासनिक दक्षता में सुधार हुआ, बल्कि नागरिकों के बीच एक मजबूत क्षेत्रीय पहचान भी विकसित हुई।
इसके परिणामस्वरूप, भाषाई तनाव और सांस्कृतिक संघर्षों में कमी आई, जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिला। हालांकि, यह भी महत्वपूर्ण है कि भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भी क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे सकता था, लेकिन भारत के संघीय ढांचे ने इसे संतुलित रखने में मदद की। समग्र रूप से, भाषाई राज्यों के गठन ने भारत की बहुलता में एकता के सिद्धांत को मजबूती प्रदान की है, जिससे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रगति मिली है।
See lessपर्यावरण आंदोलनों के उद्भव के लिए निहित कारणों और स्वातंत्र्योत्तर भारत में उनके महत्व पर चर्चा कीजिए।(250 शब्दों में उत्तर दें)
पर्यावरण आंदोलनों का उद्भव विभिन्न कारणों से हुआ है, जैसे जलवायु परिवर्तन, वन्यजीव संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, और जल संरक्षण। ये आंदोलन लोगों के जागरूक होने से उत्पन्न होते हैं जो अपने पर्यावरण के लिए जिम्मेदारी लेने के लिए सक्षम हो रहे हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में पर्यावरण आंदोलनों का महत्व विशेषRead more
पर्यावरण आंदोलनों का उद्भव विभिन्न कारणों से हुआ है, जैसे जलवायु परिवर्तन, वन्यजीव संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, और जल संरक्षण। ये आंदोलन लोगों के जागरूक होने से उत्पन्न होते हैं जो अपने पर्यावरण के लिए जिम्मेदारी लेने के लिए सक्षम हो रहे हैं।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में पर्यावरण आंदोलनों का महत्व विशेष है। ये आंदोलन लोगों को पर्यावरण संरक्षण और उसकी महत्वता के प्रति जागरूक करते हैं और सरकारों को जागरूक और कार्रवाई के लिए प्रेरित करते हैं। इन आंदोलनों के माध्यम से लोग अपने पर्यावरण की रक्षा में सक्रिय भागीदार बनते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत में पर्यावरण आंदोलनों का महत्व और व्यापक हो गया है। लोग अपने सशक्तिकरण के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। ये आंदोलन सामाजिक परिवर्तन और सुधार के लिए महत्वपूर्ण हैं और साथ ही सामाजिक सद्भावना और सहयोग को बढ़ावा देते हैं।
इस प्रकार, पर्यावरण आंदोलनों का महत्व व्यापक है और इन्हें स्वातंत्र्योत्तर भारत में बढ़ावा देना जरूरी है ताकि हम सुस्त पर्यावरण के खिलाफ लड़ाई में सक्षम हो सकें।
See lessस्वतंत्रोत्तर भारत में सहकारी समितियों के उद्भव और कृषि के विकास में उनके योगदान पर चर्चा कीजिए। (उत्तर 150 शब्दों में दें)
स्वतंत्रोत्तर भारत में सहकारी समितियों का उद्भव कृषि विकास के लिए महत्वपूर्ण था। 1950 के दशक में, सहकारी समितियों की स्थापना का उद्देश्य छोटे किसानों को संगठित करना और उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना था। इन समितियों ने किसानों को संसाधनों की साझा उपयोगिता, जैसे कि बीज, उर्वरक और ऋण, की सुविधाएं प्रRead more
स्वतंत्रोत्तर भारत में सहकारी समितियों का उद्भव कृषि विकास के लिए महत्वपूर्ण था। 1950 के दशक में, सहकारी समितियों की स्थापना का उद्देश्य छोटे किसानों को संगठित करना और उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना था। इन समितियों ने किसानों को संसाधनों की साझा उपयोगिता, जैसे कि बीज, उर्वरक और ऋण, की सुविधाएं प्रदान कीं।
सहकारी समितियाँ किसानों को सामूहिक रूप से उत्पादित फसलों की मार्केटिंग और बिक्री में भी मदद करती हैं, जिससे उन्हें बेहतर मूल्य प्राप्त होता है। इससे कृषि उत्पादन में सुधार हुआ और ग्रामीण विकास को प्रोत्साहन मिला।
इन समितियों ने कृषि में तकनीकी सुधार, जैसे कि आधुनिक बीज और कृषि विधियों को अपनाने में भी भूमिका निभाई। इस प्रकार, सहकारी समितियाँ कृषि क्षेत्र में स्थिरता और विकास को प्रोत्साहित करने के लिए एक महत्वपूर्ण तंत्र साबित हुईं।
See lessभारतीय गणराज्य के संस्थापकों का प्राथमिक कार्य इसका आर्थिक विकास करना नहीं था, बल्कि भारत के लोगों का सामाजिक- सांस्कृतिक एकीकरण करना था। चर्चा कीजिए। (उत्तर 150 शब्दों में दें)
भारतीय गणराज्य के संस्थापकों का प्राथमिक कार्य देश के सामाजिक और सांस्कृतिक एकीकरण को सुदृढ़ करना था, जो कि उनके समकालीन ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता के समय, भारत एक विविध और बहु-जातीय समाज था, जिसमें विभिन्न भाषाएं, धर्म, और सांस्कृतिक पहचान थी। संस्थापकों ने एक सRead more
भारतीय गणराज्य के संस्थापकों का प्राथमिक कार्य देश के सामाजिक और सांस्कृतिक एकीकरण को सुदृढ़ करना था, जो कि उनके समकालीन ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता के समय, भारत एक विविध और बहु-जातीय समाज था, जिसमें विभिन्न भाषाएं, धर्म, और सांस्कृतिक पहचान थी।
संस्थापकों ने एक समावेशी और एकता पर आधारित गणराज्य की नींव रखी, जिसमें सामाजिक समरसता, समानता और समान अवसरों को बढ़ावा दिया गया। भारतीय संविधान ने विभिन्न धार्मिक, जातीय और भाषाई समूहों के बीच समन्वय और समझ को प्रोत्साहित किया।
अर्थव्यवस्था का विकास भी महत्वपूर्ण था, लेकिन यह सुनिश्चित करना कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिले और सामाजिक विभाजन कम हो, पहले प्राथमिकता थी। इस सामाजिक- सांस्कृतिक एकीकरण ने दीर्घकालिक स्थिरता और आर्थिक प्रगति की आधारशिला रखी।
See lessस्वतंत्र भारत में धार्मिकता किस प्रकार साम्प्रदायिकता में रूपांतरित हो गई, इसका एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता के मध्य विभेदन कीजिए । (250 words) [UPSC 2017]
धार्मिकता और साम्प्रदायिकता के बीच विभेदन महत्वपूर्ण है, विशेषकर स्वतंत्र भारत में धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने की प्रक्रिया को समझने में। धार्मिकता बनाम साम्प्रदायिकता: स्वभाव और ध्यान केंद्रित: धार्मिकता: व्यक्तिगत या सामूहिक आध्यात्मिक आस्था, धार्मिक अनुष्ठान, और नैतिक मूल्यों पRead more
धार्मिकता और साम्प्रदायिकता के बीच विभेदन महत्वपूर्ण है, विशेषकर स्वतंत्र भारत में धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने की प्रक्रिया को समझने में।
धार्मिकता बनाम साम्प्रदायिकता:
उदाहरण:
गुजरात दंगों (2002) इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें धार्मिकता के साम्प्रदायिकता में रूपांतरित होने को देखा जा सकता है। इस घटना के मूल में, एक ट्रेन में आग लगने की दुर्घटना थी, जिसमें कई हिंदू तीर्थयात्री मारे गए थे। इस घटना ने धार्मिक उन्माद और भावनाओं को भड़काया, जिसे कुछ राजनीतिक समूहों ने साम्प्रदायिक माहौल उत्पन्न करने के लिए भुनाया।
धार्मिक भावनाओं को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किया गया, जिससे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न का वातावरण बना। धार्मिकता, जो कि पहले व्यक्तिगत और आध्यात्मिक विश्वासों पर आधारित थी, साम्प्रदायिकता में बदल गई, जहां धार्मिक पहचान और झगड़े सामाजिक और राजनीतिक एजेंडों के लिए उपयोग किए गए।
इस प्रकार, धार्मिकता से साम्प्रदायिकता का रूपांतरण व्यक्तिगत आस्था को राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष में बदल देता है, जो व्यापक सामाजिक विभाजन और हिंसा का कारण बनता है।
See lessस्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका की विवेचना कीजिए । (125 Words) [UPPSC 2023]
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका सरदार पटेल, स्वतंत्रता के बाद भारत के एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने राज्य प्रशासनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक कौशल का उपयोग किया। 1. राज्य विलय: उन्होंने 562 से अधिक प्रारंभिक स्वतंत्र रियासतों कRead more
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका
सरदार पटेल, स्वतंत्रता के बाद भारत के एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने राज्य प्रशासनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक कौशल का उपयोग किया।
1. राज्य विलय: उन्होंने 562 से अधिक प्रारंभिक स्वतंत्र रियासतों को भारत में विलीन कराया, जैसे हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर।
2. सिंहासन बंधन: पटेल ने विनम्रता और दृढ़ता से रियासतों के शासकों को समझाया और उन्हें भारतीय संघ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
3. स्थिरता और सुरक्षा: उनके नेतृत्व में भारतीय प्रशासनिक सेवा को सुदृढ़ किया और सुरक्षा की स्थिति को बनाए रखा।
पटेल की कूटनीति और प्रशासनिक क्षमता ने भारत को एक सशक्त और एकीकृत राष्ट्र में बदलने में अहम भूमिका निभाई।
See lessस्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एस.टी.) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिए, राज्य द्वारा की गई दो मुख्य विधिक पहलें क्या हैं? (150 words) [UPSC 2017]
स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एस.टी.) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिए विधिक पहलें 1. अनुसूचित जनजाति (अनुसूचित क्षेत्रों) अधिनियम, 1952: यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों और सुरक्षा की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करता है। "अनुसूचित क्षेत्रों" में स्वशासन को प्रोत्साहित किया जाता हRead more
स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एस.टी.) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिए विधिक पहलें
1. अनुसूचित जनजाति (अनुसूचित क्षेत्रों) अधिनियम, 1952:
2. अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989:
निष्कर्ष: इन विधिक पहलों के माध्यम से राज्य ने अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा और उनके प्रति भेदभाव को कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
See lessस्वतंत्रोत्तर भारत में जिन विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उनमें भारत के विभाजन के दौरान सीमा समझौता और संसाधनों का विभाजन अधिक महत्वपूर्ण थे। चर्चा कीजिए। (उत्तर 250 शब्दों में दें)
स्वतंत्रता के बाद भारत को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उनमें विभाजन के दौरान सीमा समझौता और संसाधनों का विभाजन प्रमुख थे। 1947 में भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग देश बने। इस विभाजन ने न केवल एक राजनीतिक सीमा खींची, बल्कि सामाजिक और आर्थिकRead more
स्वतंत्रता के बाद भारत को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उनमें विभाजन के दौरान सीमा समझौता और संसाधनों का विभाजन प्रमुख थे। 1947 में भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग देश बने। इस विभाजन ने न केवल एक राजनीतिक सीमा खींची, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विभाजन भी किया।
सीमा समझौते के तहत, भारत और पाकिस्तान के बीच सीमाओं का निर्धारण किया गया। इस विभाजन में पंजाब और बंगाल जैसे बड़े प्रांतों को बांटा गया, जिससे बड़े पैमाने पर जनसंख्या का विस्थापन हुआ। लाखों लोग अपनी जान बचाने के लिए नए बने देशों में पलायन करने लगे, जिससे सांप्रदायिक हिंसा, नरसंहार और अराजकता फैल गई। इस अवधि में लगभग 10-15 लाख लोग मारे गए, और लाखों लोग बेघर हो गए।
संसाधनों का विभाजन भी एक महत्वपूर्ण चुनौती थी। विभाजन के दौरान रेलवे, उद्योग, सिंचाई परियोजनाएं, सैन्य संपत्तियां, और अन्य संसाधनों का बंटवारा हुआ। इस बंटवारे ने भारत की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का पहुंचाया। विभाजन के कारण पूर्वी पंजाब और बंगाल में कृषि और उद्योग प्रभावित हुए, जिससे भारत की खाद्यान्न आपूर्ति और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई।
इसके अलावा, भारत को शरणार्थियों के पुनर्वास की भी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। लाखों शरणार्थियों को रोजगार, आश्रय और खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर प्रयास करने पड़े। इस संकट ने भारत के नवगठित प्रशासन पर भारी दबाव डाला और विकास की गति को धीमा कर दिया।
इन चुनौतियों के बावजूद, भारत ने धीरे-धीरे इन समस्याओं से उबरते हुए अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे को मजबूत किया। विभाजन के बाद की इन चुनौतियों ने भारत को एकजुट रहने और विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
See lessभारत में 1970 के दशक में प्रारंभ हुए नवीन किसान आंदोलनों का विवरण दीजिए। (उत्तर 250 शब्दों में दें)
1970 के दशक में भारत में नवीन किसान आंदोलनों की शुरुआत हुई, जो किसानों की बदलती आवश्यकताओं और अधिकारों के प्रति जागरूकता का प्रतीक थे। ये आंदोलन पुराने किसान आंदोलनों से इस मायने में अलग थे कि इनमें नए प्रकार की संगठनात्मक ढांचा और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया। 1970 के दशक के किसान आंदोलनों कीRead more
1970 के दशक में भारत में नवीन किसान आंदोलनों की शुरुआत हुई, जो किसानों की बदलती आवश्यकताओं और अधिकारों के प्रति जागरूकता का प्रतीक थे। ये आंदोलन पुराने किसान आंदोलनों से इस मायने में अलग थे कि इनमें नए प्रकार की संगठनात्मक ढांचा और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
1970 के दशक के किसान आंदोलनों की शुरुआत हरित क्रांति के प्रभाव से हुई। हरित क्रांति ने जहां एक ओर कृषि उत्पादन में वृद्धि की, वहीं दूसरी ओर असमानता भी बढ़ाई। छोटे और मध्यम किसान इस क्रांति से वंचित रह गए, क्योंकि उनकी पहुंच उन्नत तकनीक और संसाधनों तक नहीं थी। इससे असंतोष फैलने लगा और किसानों ने संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।
इस काल के प्रमुख किसान आंदोलनों में महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन (शेतकरी संघटना) प्रमुख था, जिसे शरद जोशी ने 1979 में स्थापित किया। यह आंदोलन किसानों के लिए उचित मूल्य, भूमि सुधार, और सरकारी हस्तक्षेप के खिलाफ था। इसी तरह, पंजाब में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) का गठन हुआ, जिसने किसानों के आर्थिक हितों के लिए संघर्ष किया।
इन आंदोलनों में किसानों ने सरकारी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई, जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि, कर्ज माफी, और बिजली तथा सिंचाई के साधनों पर सब्सिडी की मांग। इन आंदोलनों ने किसानों को एकजुट किया और उन्हें राजनीतिक रूप से भी संगठित किया।
1970 के दशक के किसान आंदोलन न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण थे। इन्होंने भारतीय कृषि नीति में बदलाव लाने के लिए सरकार पर दबाव डाला और किसानों की समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया।
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