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क्या प्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति भारत में रोज़गार की प्रोन्नति करने में सहायक हो सकती है ? (250 words) [UPSC 2019]
प्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति और रोज़गार की प्रोन्नति 1. स्थानीय संसाधनों के माध्यम से रोज़गार सृजन: प्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति का उद्देश्य स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर उद्योगों की स्थापना करना है, जिससे ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर बढ़ सकते हैं। उदाRead more
प्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति और रोज़गार की प्रोन्नति
1. स्थानीय संसाधनों के माध्यम से रोज़गार सृजन:
प्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति का उद्देश्य स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर उद्योगों की स्थापना करना है, जिससे ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर बढ़ सकते हैं। उदाहरणस्वरूप, गुजरात का वस्त्र उद्योग, जो स्थानीय कपास पर आधारित है, ने कृषि और विनिर्माण दोनों क्षेत्रों में व्यापक रोज़गार उत्पन्न किया है।
2. सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को बढ़ावा:
यह रणनीति सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को प्रोत्साहित कर सकती है, जो भारत में रोज़गार का एक प्रमुख स्रोत हैं। भारत के छत्तीसगढ़ में बांस आधारित उद्योग का उदाहरण लिया जा सकता है, जिसने स्थानीय कारीगरों और छोटे उद्यमों को सशक्त किया है, जिससे रोज़गार के अवसर बढ़े हैं।
3. समावेशी आर्थिक विकास:
स्थानीय संसाधनों पर आधारित उद्योगों से समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच आर्थिक असमानता कम होगी। उदाहरण के लिए, ओडिशा का इस्पात और एल्यूमीनियम उद्योग, जो स्थानीय खनिज संसाधनों पर आधारित है, ने न केवल रोज़गार सृजन किया है बल्कि क्षेत्रीय विकास में भी योगदान दिया है।
4. पर्यावरणीय स्थिरता और लागत में कमी:
स्थानीय संसाधनों पर आधारित विनिर्माण पर्यावरणीय स्थिरता को भी बढ़ावा देता है क्योंकि इससे परिवहन लागत और ऊर्जा खपत में कमी आती है। उदाहरण के तौर पर, केरल का नारियल उद्योग स्थानीय नारियल की भूसी का उपयोग करता है, जिससे कार्बन उत्सर्जन कम होता है और स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलता है।
5. चुनौतियाँ और समाधान:
इस रणनीति में संभावनाएँ हैं, परंतु कौशल विकास और अवसंरचना की चुनौतियाँ सामने हैं। कौशल विकास योजनाएँ जैसे प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY) स्थानीय श्रमिकों को औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार प्रशिक्षित करने में मदद कर सकती हैं।
निष्कर्ष:
See lessप्रादेशिक संसाधन-आधारित विनिर्माण की रणनीति भारत में रोज़गार सृजन के लिए एक प्रभावी तरीका हो सकता है, विशेष रूप से ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में। गुजरात और ओडिशा जैसे राज्यों में इस रणनीति की सफलता यह दर्शाती है कि स्थानीय संसाधनों और औद्योगिक विकास के संयोजन से आर्थिक विकास और रोज़गार में वृद्धि संभव है।
हिमालय के हिमनदों के पिघलने का भारत के जल-संसाधनों पर किस प्रकार दूरगामी प्रभाव होगा ? (150 words)[UPSC 2020]
हिमालय के हिमनदों के पिघलने का भारत के जल-संसाधनों पर दूरगामी प्रभाव **1. नदियों के प्रवाह में बदलाव: हिमालय के हिमनदों के पिघलने से गंगा, यमुन और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख नदियों के प्रवाह में बदलाव होगा। शुरू में, पिघलने से नदियों में पानी की मात्रा बढ़ सकती है, लेकिन समय के साथ हिमनदों के घटने से जRead more
हिमालय के हिमनदों के पिघलने का भारत के जल-संसाधनों पर दूरगामी प्रभाव
**1. नदियों के प्रवाह में बदलाव: हिमालय के हिमनदों के पिघलने से गंगा, यमुन और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख नदियों के प्रवाह में बदलाव होगा। शुरू में, पिघलने से नदियों में पानी की मात्रा बढ़ सकती है, लेकिन समय के साथ हिमनदों के घटने से जल आपूर्ति में कमी हो सकती है। उदाहरण के लिए, गंगा का प्रवाह ग्लेशियरों के पिघलने के कारण अस्थिर हो सकता है, जिससे निचले क्षेत्रों में पानी की कमी हो सकती है।
**2. बाढ़ का जोखिम: तेजी से पिघलने से ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) का जोखिम बढ़ता है। हाल ही में उत्ताराखंड में ग्लेशियर पिघलने और भूस्खलनों के कारण बाढ़ आई थी, जो इस खतरनाक परिदृश्य को दर्शाती है।
**3. जल की कमी: हिमनदों के घटने से जल आपूर्ति पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है, विशेषकर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में जो ग्लेशियर-आधारित नदियों पर निर्भर हैं। इन क्षेत्रों में कृषि और पेयजल की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है।
**4. पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन: ग्लेशियरों के पिघलने से पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ सकता है, जिसमें ठंडे पानी पर निर्भर जीवों और वनस्पतियों की स्थिति प्रभावित हो सकती है। नदी के तापमान और प्रवाह में बदलाव से जल जीवों की विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
इस प्रकार, हिमालय के हिमनदों के पिघलने से भारत के जल-संसाधनों पर गंभीर और दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है, जिसमें जल प्रवाह की अस्थिरता, बाढ़ का खतरा, जल की कमी और पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव शामिल हैं।
See lessभारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा चक्रवात प्रवण क्षेत्रों के लिए मौसम सम्बन्धी चेतावनियों के लिए निर्धारित रंग-संकेत के अर्थ की चर्चा करें। (150 words)[UPSC 2022]
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा चक्रवात प्रवण क्षेत्रों के लिए मौसम संबंधी चेतावनियों के रंग-संकेत **1. लाल रंग (Red): यह रंग सबसे गंभीर चेतावनी को दर्शाता है। इसका अर्थ है कि एक खतरनाक चक्रवात आ रहा है, जो बड़ी नुकसान का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए, अति गंभीर चक्रवात अम्फान (2020) के दौरान, लालRead more
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा चक्रवात प्रवण क्षेत्रों के लिए मौसम संबंधी चेतावनियों के रंग-संकेत
**1. लाल रंग (Red): यह रंग सबसे गंभीर चेतावनी को दर्शाता है। इसका अर्थ है कि एक खतरनाक चक्रवात आ रहा है, जो बड़ी नुकसान का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए, अति गंभीर चक्रवात अम्फान (2020) के दौरान, लाल रंग के संकेत दिए गए थे, जोकि भयंकर तूफान की ओर इशारा करते थे।
**2. ऑरेंज रंग (Orange): यह रंग एक उच्च स्तर की चेतावनी को संकेतित करता है। इसका मतलब है कि एक गंभीर चक्रवात आ रहा है, जिसके प्रभाव से खतरे की संभावना है। चक्रवात यास (2021) के दौरान, ऑरेंज रंग की चेतावनी जारी की गई थी।
**3. पीला रंग (Yellow): यह रंग सावधानियों को दर्शाता है। इसका मतलब है कि एक चक्रवात विकसित हो सकता है, और इसके प्रभाव से सतर्क रहने की आवश्यकता है। चक्रवात गुलाब (2021) के दौरान, पीला रंग की चेतावनी जारी की गई थी।
**4. हरा रंग (Green): यह रंग कोई चेतावनी नहीं देने को दर्शाता है। इसका मतलब है कि मौसम सामान्य है और किसी विशेष खतरे की संभावना नहीं है।
इन रंग-संकेतों के माध्यम से, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग सार्वजनिक सुरक्षा और सतर्कता सुनिश्चित करने के लिए एक स्पष्ट और प्रभावी चेतावनी प्रणाली प्रदान करता है।
See lessदक्षिण-पश्चिम मानसून भोजपुर क्षेत्र में 'पुरवैया' (पूर्वी) क्यों कहलाता है? इस दिशापरक मौसमी पवन प्रणाली ने क्षेत्र के सांस्कृतिक लोकाचार को कैसे प्रभावित किया है? ( 150 Words) [UPSC 2023]
दक्षिण-पश्चिम मानसून भोजपुर क्षेत्र में 'पुरवैया' (पूर्वी) क्यों कहलाता है? 1. वायुमंडलीय दबाव और पवन प्रणाली: दक्षिण-पश्चिम मानसून की पवनें सामान्यतः दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की दिशा में बहती हैं। जब ये पवनें भोजपुर क्षेत्र में पहुँचती हैं, तो ये स्थानीय भाषा और सांस्कृतिक संदर्भ में पुरवैया (पRead more
दक्षिण-पश्चिम मानसून भोजपुर क्षेत्र में ‘पुरवैया’ (पूर्वी) क्यों कहलाता है?
1. वायुमंडलीय दबाव और पवन प्रणाली: दक्षिण-पश्चिम मानसून की पवनें सामान्यतः दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की दिशा में बहती हैं। जब ये पवनें भोजपुर क्षेत्र में पहुँचती हैं, तो ये स्थानीय भाषा और सांस्कृतिक संदर्भ में पुरवैया (पूर्वी) के नाम से जानी जाती हैं। इसका कारण पवनों की दिशा और क्षेत्रीय स्थानीयकरण है।
2. सांस्कृतिक प्रभाव: पुरवैया की उपस्थिति ने क्षेत्रीय सांस्कृतिक लोकाचार को गहरे प्रभावित किया है। फसल चक्र, त्योहारों और मूल्य प्रणालियों में इस पवन प्रणाली का महत्वपूर्ण योगदान है। उदाहरण के लिए, अवध और बिहार में चतुरथा (छठ) जैसे त्योहार, जो मानसून के आगमन और फसल की समयानुकूलता से जुड़े हैं, इसका हिस्सा हैं।
3. स्थानीय जीवन पर प्रभाव: पुरवैया पवनें फसल उत्पादन को प्रभावित करती हैं और कृषि पर निर्भरता को बढ़ाती हैं, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ मानसून के आधार पर संचालित होती हैं।
इस प्रकार, दक्षिण-पश्चिम मानसून का ‘पुरवैया’ नामकरण और सांस्कृतिक प्रभाव भोजपुर क्षेत्र की स्थानीय परंपराओं और जीवनशैली को साकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
See lessभारत में 'महत्त्वाकांक्षी जिलों के कायाकल्प के लिए मूल रणनीतियों का उल्लेख कीजिए और इसकी सफलता के लिए, अभिसरण, सहयोग व प्रतिस्पर्धा की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए। (250 words) [UPSC 2018]
भारत में 'महत्त्वाकांक्षी जिलों के कायाकल्प के लिए मूल रणनीतियाँ 1. लक्षित हस्तक्षेप: महत्त्वाकांक्षी जिलों की योजना (2018) स्वास्थ्य, शिक्षा, आधारभूत संरचना और आर्थिक विकास के क्षेत्रों में सुधार पर केंद्रित है। मिवात (हरियाणा) और दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) जैसे जिलों में शैक्षिक परिणाम और स्वास्थ्य सेवRead more
भारत में ‘महत्त्वाकांक्षी जिलों के कायाकल्प के लिए मूल रणनीतियाँ
1. लक्षित हस्तक्षेप: महत्त्वाकांक्षी जिलों की योजना (2018) स्वास्थ्य, शिक्षा, आधारभूत संरचना और आर्थिक विकास के क्षेत्रों में सुधार पर केंद्रित है। मिवात (हरियाणा) और दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) जैसे जिलों में शैक्षिक परिणाम और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए विशेष कार्यक्रम लागू किए गए हैं।
2. डेटा-संचालित शासन: वास्तविक समय के डेटा और प्रदर्शन मैट्रिक्स का उपयोग कार्यक्रमों की प्रगति को ट्रैक करने के लिए किया जाता है। NITI Aayog द्वारा प्रस्तुत डेल्टा रैंकिंग प्रणाली जिलों के प्रदर्शन पर तिमाही अद्यतन प्रदान करती है, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
3. स्थानीय आवश्यकताओं पर ध्यान: रणनीतियाँ स्थानीय चुनौतियों को संबोधित करने के लिए तैयार की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कंधमाल (ओडिशा) में आदिवासी कल्याण और जीविका के अवसरों में सुधार के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं।
अभिसरण, सहयोग और प्रतिस्पर्धा की प्रकृति
1. अभिसरण: प्रभावी कायाकल्प के लिए विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों का एकीकृत प्रयास आवश्यक है। केंद्रीय और राज्य योजनाओं का अभिसरण सुनिश्चित करता है कि संसाधन प्रभावी ढंग से उपयोग हों। उदाहरण के लिए, MNREGA और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का एकीकरण ग्रामीण आधारभूत संरचना में सुधार करता है।
2. सहयोग: सफल कार्यान्वयन में सरकारी एजेंसियों, स्थानीय निकायों, और नागरिक समाज संगठनों के बीच सहयोग शामिल है। NGOs और निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ साझेदारी अतिरिक्त संसाधन और विशेषज्ञता प्रदान करती है। लाल पथ लैब्स ने ग्रामीण क्षेत्रों में डायग्नोस्टिक सेवाओं में सुधार के लिए स्थानीय स्वास्थ्य विभागों के साथ सहयोग किया है।
3. प्रतिस्पर्धा: जिलों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने से प्रगति को बढ़ावा मिलता है। प्रदर्शन सूचकांक और पुरस्कार शीर्ष प्रदर्शन करने वाले जिलों के लिए प्रेरणा उत्पन्न करते हैं। धमतरी (छत्तीसगढ़) जैसे जिलों ने इस प्रतिस्पर्धात्मक भावना के कारण स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं।
इन रणनीतियों और सहयोगात्मक प्रयासों से महत्त्वाकांक्षी जिलों के कायाकल्प में सफलता सुनिश्चित होती है और वे अपनी पूरी क्षमता प्राप्त कर पाते हैं।
See lessभारतीय प्रादेशिक नौपरिवहन उपग्रह प्रणाली (आई. आर. एन. एस. एस.) की आवश्यकता क्यों है ? यह नौपरिवहन में किस प्रकार सहायक है ? (150 words) [UPSC 2018]
भारतीय प्रादेशिक नौपरिवहन उपग्रह प्रणाली (आई. आर. एन. एस. एस.) की आवश्यकता क्यों है? सामरिक स्वायत्तता: भारतीय प्रादेशिक नौपरिवहन उपग्रह प्रणाली (IRNSS), जिसे नाविक (NavIC) भी कहा जाता है, भारत को एक स्वतंत्र नेविगेशन सिस्टम प्रदान करता है, जिससे विदेशी उपग्रह प्रणालियों जैसे GPS पर निर्भरता कम होतीRead more
भारतीय प्रादेशिक नौपरिवहन उपग्रह प्रणाली (आई. आर. एन. एस. एस.) की आवश्यकता क्यों है?
सामरिक स्वायत्तता: भारतीय प्रादेशिक नौपरिवहन उपग्रह प्रणाली (IRNSS), जिसे नाविक (NavIC) भी कहा जाता है, भारत को एक स्वतंत्र नेविगेशन सिस्टम प्रदान करता है, जिससे विदेशी उपग्रह प्रणालियों जैसे GPS पर निर्भरता कम होती है। यह विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण है।
क्षेत्रीय सटीकता: IRNSS भारत और उसके आसपास के क्षेत्र में बेहतर सटीकता प्रदान करता है, जो चुनौतीपूर्ण इलाकों और घनी शहरी क्षेत्रों में नेविगेशन के लिए उपयोगी है। हाल ही में 2023 में, IRNSS को उन्नत स्मार्टफोन में शामिल किया गया, जिससे स्थानीय जीपीएस सेवाएं सुदृढ़ हुईं।
ऑपरेशनल दक्षता: IRNSS आपदा प्रबंधन, विमानन और मरीन नेविगेशन में सुधार करता है, जिससे आपातकालीन सेवाओं और सैन्य संचालन की दक्षता में वृद्धि होती है।
See lessजल प्रतिबल (वाटर स्ट्रैस) का क्या मतलब है ? भारत में यह किस प्रकार और किस कारण प्रादेशिकतः भिन्न-भिन्न है ? (250 words) [UPSC 2019]
जल प्रतिबल (वाटर स्ट्रेस) का अर्थ और भारत में प्रादेशिक भिन्नताएँ जल प्रतिबल का अर्थ जल प्रतिबल (Water Stress) उस स्थिति को दर्शाता है जब किसी क्षेत्र में जल की मांग उपलब्ध जल आपूर्ति से अधिक हो जाती है, या जल की गुणवत्ता इतनी खराब हो जाती है कि वह उपयोग के योग्य नहीं रहती। इसका प्रमुख कारण अत्यधिकRead more
जल प्रतिबल (वाटर स्ट्रेस) का अर्थ और भारत में प्रादेशिक भिन्नताएँ
जल प्रतिबल का अर्थ
जल प्रतिबल (Water Stress) उस स्थिति को दर्शाता है जब किसी क्षेत्र में जल की मांग उपलब्ध जल आपूर्ति से अधिक हो जाती है, या जल की गुणवत्ता इतनी खराब हो जाती है कि वह उपयोग के योग्य नहीं रहती। इसका प्रमुख कारण अत्यधिक जल दोहन, जलवायु परिवर्तन और तेजी से बढ़ती जनसंख्या है, जिससे कृषि, उद्योग और घरेलू जरूरतों के लिए जल की कमी हो जाती है। भारत में जल प्रतिबल एक गंभीर समस्या है, जो विभिन्न क्षेत्रों में जल उपलब्धता और उपयोग के आधार पर अलग-अलग है।
भारत में जल प्रतिबल की प्रादेशिक भिन्नताएँ
निष्कर्ष
See lessभारत में जल प्रतिबल जलवायु, भूगोल और जल प्रबंधन प्रणालियों के आधार पर क्षेत्रीय रूप से भिन्न-भिन्न है। इस समस्या से निपटने के लिए जल संरक्षण, सतत कृषि, और नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है, ताकि सभी क्षेत्रों में जल सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
प्राचीन भारत के विकास की दिशा में भौगोलिक कारकों की भूमिका को स्पष्ट कीजिए। (150 words)[UPSC 2023]
प्राचीन भारत के विकास की दिशा में भौगोलिक कारकों की भूमिका भौगोलिक कारकों ने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिमालय ने उत्तरी सीमाओं की रक्षा की और एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य किया। इसके कारण भारत में विदेशी आक्रमणों की आवृत्ति सीमित रही, जबकि इसे उतRead more
प्राचीन भारत के विकास की दिशा में भौगोलिक कारकों की भूमिका
भौगोलिक कारकों ने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिमालय ने उत्तरी सीमाओं की रक्षा की और एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य किया। इसके कारण भारत में विदेशी आक्रमणों की आवृत्ति सीमित रही, जबकि इसे उत्तर-पश्चिमी दर्रों (जैसे खैबर और बोलन दर्रा) के माध्यम से बाहरी संस्कृतियों के संपर्क में भी रखा।
नदियाँ, विशेष रूप से सिंधु, गंगा, और यमुना ने कृषि और सभ्यता के विकास को बढ़ावा दिया। सिंधु घाटी सभ्यता (2500-1700 BCE) सिंधु नदी के किनारे विकसित हुई, जहाँ समृद्ध कृषि ने शहरीकरण को प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार, गंगा-यमुना का मैदान महाजनपद काल (600-300 BCE) में राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बना, जिससे मौर्य और गुप्त साम्राज्यों का उदय हुआ।
इसके अलावा, दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्र व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क के प्रमुख केंद्र बने, जहाँ से प्राचीन भारत का व्यापार रोम और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ हुआ। उदाहरणस्वरूप, चोल साम्राज्य (9वीं-13वीं शताब्दी) ने समुद्री व्यापार और सांस्कृतिक प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भौगोलिक विविधता ने भारत के क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता को जन्म दिया, जिससे भारत में कई संस्कृतियों और परंपराओं का समन्वय हुआ।
See lessभारत की खनिज विकास नीति की व्याख्या कीजिए । (200 Words) [UPPSC 2023]
भारत की खनिज विकास नीति 1. उद्देश्य और दृष्टिकोण: भारत की खनिज विकास नीति का मुख्य उद्देश्य खनिज संसाधनों का सतत और समावेशी विकास करना है। इसके तहत, खनिज संसाधनों की खोज, विवेकपूर्ण उपयोग, और सभी क्षेत्रों में उनके लाभ को सुनिश्चित करना शामिल है। सरकार की नीति विकास और नवाचार, वित्तीय और तकनीकी समर्Read more
भारत की खनिज विकास नीति
1. उद्देश्य और दृष्टिकोण: भारत की खनिज विकास नीति का मुख्य उद्देश्य खनिज संसाधनों का सतत और समावेशी विकास करना है। इसके तहत, खनिज संसाधनों की खोज, विवेकपूर्ण उपयोग, और सभी क्षेत्रों में उनके लाभ को सुनिश्चित करना शामिल है। सरकार की नीति विकास और नवाचार, वित्तीय और तकनीकी समर्थन, और स्थानीय समुदायों की भागीदारी पर आधारित है।
2. महत्वपूर्ण नीतिगत पहल:
1. खदान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम (1957): यह अधिनियम खनिज संसाधनों के अनुसंधान, खनन और विनियमन के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है। हाल ही में माइनिंग एक्ट (2020) को लागू किया गया है, जो खनन क्षेत्र में सुधार और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है।
2. विविधीकरण और कच्चे माल की आपूर्ति: भारत ने कच्चे माल की आपूर्ति को स्थिर करने के लिए विविधीकरण की नीति अपनाई है। भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के तहत खनिज आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
3. स्थानीय समुदायों का सशक्तिकरण: खनन कंपनियों को स्थानीय समुदायों के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने की सलाह दी जाती है। उदाहरण के लिए, संग्रहीत खनिज क्षेत्र में वृक्षारोपण और स्थानीय शिक्षा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
4. स्वच्छता और सुरक्षा: खनन कार्यों के दौरान स्वच्छता और सुरक्षा मानकों को लागू करना महत्वपूर्ण है। ई-परमिट और निगरानी प्रणाली के माध्यम से, पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
3. हालिया उदाहरण और पहल:
**1. **प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में माइनिंग क्षेत्र में सुधार के लिए उठाए गए कदम, जैसे कि ब्लॉक्स की नीलामी और पारदर्शिता को बढ़ावा देना।
**2. आधुनिक तकनीकों का उपयोग, जैसे कि स्मार्ट खनन और डेटा एनालिटिक्स, जो खनन प्रक्रियाओं को अधिक कुशल और पारदर्शी बनाते हैं।
निष्कर्ष: भारत की खनिज विकास नीति खनिज संसाधनों के सतत उपयोग, पारदर्शिता, और स्थानीय समुदायों की भागीदारी को प्राथमिकता देती है। यह नीति न केवल आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती है, बल्कि पर्यावरण और सामाजिक जिम्मेदारियों को भी ध्यान में रखती है।
See lessभारत में भूकम्प पेटियों का वर्णन कीजिए। (200 Words) [UPPSC 2022]
भारत में भूकम्प पेटियाँ 1. हिमालयी पेटी: हिमालयी पेटी भारत के सबसे सक्रिय भूकम्प क्षेत्रों में से एक है। यहाँ भारतीय प्लेट और एशियाई प्लेट के बीच टकराव के कारण भूकम्पीय गतिविधियाँ होती हैं। इस पेटी में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखंड शामिल हैं। उदाहरण के लिए, 2015 नेपाल भूकम्प ने उत्तर भारRead more
भारत में भूकम्प पेटियाँ
1. हिमालयी पेटी: हिमालयी पेटी भारत के सबसे सक्रिय भूकम्प क्षेत्रों में से एक है। यहाँ भारतीय प्लेट और एशियाई प्लेट के बीच टकराव के कारण भूकम्पीय गतिविधियाँ होती हैं। इस पेटी में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखंड शामिल हैं। उदाहरण के लिए, 2015 नेपाल भूकम्प ने उत्तर भारत के हिस्सों को भी प्रभावित किया और इसकी तीव्रता ने इस पेटी की भूकम्पीय संवेदनशीलता को उजागर किया।
2. उत्तर-पूर्वी पेटी: उत्तर-पूर्वी पेटी में असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, और मिजोरम शामिल हैं। यह क्षेत्र भारतीय प्लेट, बर्मी प्लेट, और चाइना प्लेट के जटिल टेक्टोनिक सेटिंग्स के कारण भूकम्पीय रूप से सक्रिय है। 2004 मणिपुर भूकम्प और 2011 सिक्किम भूकम्प इस पेटी में हुए प्रमुख भूकम्प हैं।
3. कच्छ पेटी: कच्छ पेटी गुजरात में स्थित है और यहाँ भारतीय प्लेट के कच्छ रिफ्ट जोन के कारण भूकम्पीय गतिविधियाँ होती हैं। 2001 भुज भूकम्प इस पेटी का एक प्रमुख उदाहरण है, जिसने व्यापक नुकसान और जानमाल की हानि की।
4. पश्चिमी घाट और तटीय क्षेत्र: पश्चिमी घाट और तटीय क्षेत्र जैसे मुंबई और गोवा में भूकम्पीय गतिविधियाँ अपेक्षाकृत कम होती हैं, लेकिन यहाँ भी कभी-कभार भूकम्प हो सकते हैं। 1993 लातूर भूकम्प ने महाराष्ट्र में इस क्षेत्र की भूकम्पीय संवेदनशीलता को दिखाया।
5. प्रायद्वीपीय भारत: प्रायद्वीपीय भारत अपेक्षाकृत कम भूकम्पीय गतिविधि वाला क्षेत्र है, लेकिन यहाँ भी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे क्षेत्रों में मध्यम भूकम्प हो सकते हैं। 1967 कोयनानगर भूकम्प महाराष्ट्र में हुआ एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।
निष्कर्ष: भारत की भूकम्प पेटियाँ हिमालयी क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, और गुजरात में प्रमुख हैं, जिनमें भूकम्पीय गतिविधियाँ विभिन्न स्तरों पर होती हैं। इन पेटियों की समझ से भूकम्पीय आपदाओं के प्रबंधन और तैयारी में मदद मिलती है।
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