यद्यपि परिसंघीय सिद्धांत हमारे संविधान में प्रबल है और वह सिद्धांत संविधान के आधारिक अभिलक्षणों में से एक है, परंतु यह भी इतना ही सत्य है कि भारतीय संविधान के अधीन परिसंघवाद (फैडरलिज्म) सशक्त केन्द्र के पक्ष में झुका हुआ है। यह एक ऐसा लक्षण है जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विरोध में है। चर्चा कीजिये। (200 words) [UPSC 2014]
भारतीय संविधान में परिसंघीय सिद्धांत (फैडरलिज्म) को स्वीकार किया गया है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण करता है। हालांकि, भारतीय संविधान में परिसंघीय सिद्धांत के बावजूद, यह केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है, जो प्रबल परिसंघवाद (फे़डरलिज़्म) की संकल्पना के विपरीत है।
भारतीय संविधान का केंद्रीयकृत स्वरूप कई पहलुओं से स्पष्ट है। पहले, संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, जिसमें केंद्र के पास कुछ महत्वपूर्ण शक्तियाँ अधिक हैं, जैसे रक्षा, विदेश नीति, और परमाणु ऊर्जा। यह शक्ति असंतुलन केंद्रीय सरकार को व्यापक अधिकार प्रदान करता है।
दूसरे, संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 के तहत, केंद्र सरकार को राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार प्राप्त है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता पर प्रभाव पड़ता है।
तीसरे, संविधान के अनुच्छेद 249 और 350B जैसे प्रावधानों के माध्यम से, केंद्र सरकार को राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने की शक्ति प्राप्त होती है, जैसे कि राज्य सभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर केंद्रीय विधायी नियंत्रण लागू किया जा सकता है।
ये तत्व भारत के परिसंघीय ढांचे को एक सशक्त केंद्र के पक्ष में झुका हुआ दिखाते हैं, जो प्रबल परिसंघवाद की संकल्पना के विपरीत है, जिसमें राज्यों को अधिक स्वायत्तता और अधिकार दिए जाते हैं। हालांकि, इस संतुलन को बनाए रखते हुए, भारतीय संविधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक विशिष्ट शक्ति वितरण की व्यवस्था करता है, जो देश की विविधता और अखंडता को सुनिश्चित करता है।