न्यायालयों के द्वारा विधायी शक्तियों के वितरण से संबंधित मुद्दों को सुलझाने से, ‘परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त’ और ‘समरस अर्थान्वयन’ उभर कर आए हैं। स्पष्ट कीजिए । (150 words) [UPSC 2019]
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‘परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त’ और ‘समरस अर्थान्वयन’ भारतीय संविधान की संरचनात्मक और व्याख्यात्मक तासीर को समझने में महत्वपूर्ण हैं:
1. परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त:
इस सिद्धान्त के तहत, जब संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विवाद होता है, तो संघ की शक्तियाँ सर्वोच्च मानी जाती हैं। यह सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा उन मामलों में लागू किया जाता है जहाँ संविधान के तहत संघीय ढांचे की प्राथमिकता होती है। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई राज्य कानून संघीय कानून के साथ टकराता है, तो संघीय कानून को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे संघ की सर्वोच्चता सुनिश्चित होती है।
2. समरस अर्थान्वयन:
न्यायालय संविधान की धारा और उसकी विभिन्न स्तरीय व्यवस्थाओं को इस प्रकार व्याख्यायित करता है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाए रखा जा सके। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संविधान की प्रावधानों का प्रभावी और समरस तरीके से कार्यान्वयन हो, जिससे सभी स्तरों पर न्यायसंगत और समानुपातिक प्रशासन संभव हो सके। न्यायालय समरस अर्थान्वयन के माध्यम से विवादित मामलों में संतुलन और न्याय का लक्ष्य प्राप्त करने की कोशिश करता है।
इन सिद्धान्तों के माध्यम से, भारतीय संविधान संघीय संरचना में न्याय और संतुलन सुनिश्चित करता है।