मूर्ति तैयार हुई। शिल्पी उसे लेकर बाजार गया। पर दुर्भाग्य। वह न बिकी। अब कौन सा मुँह लेकर घर लौटे। आखिर घर तो लौटना ही था। उसे देखते ही बच्चा ‘बताशा बताशा’ चिल्लाता हुआ दौड़ा और उसके आगे उसने हाथ फैला दिये। शिल्पी के मुँह से कोई शब्द न निकला। वह बच्चे को अपनी गोद में लेकर रोने लगा। जिसने पूंजीवाद की सृष्टि की थी, जिसने प्रकृति के भंडार पर एकाधिकार की व्यवस्था की थी, जिसने भू के पग-पग का बँटवारा किया था, क्या उसकी बुद्धि यहाँ तक पहुँची थी कि किसी दिन मानव संसार ऐसा हो जायेगा कि कुछ लोग सुमन-शय्या पर आराम से लेटे-लेटे मेवा-मिष्ठान्न उड़ाया करेंगे और कुछ लोग पसीने के रूप में दिन-रात रक्त बहाने पर भी मुठ्ठी भर चने तक न पा सकेंगे? [उत्तर सीमा: 125 शब्द, अंक: 10] [UKPSC 2012]
गद्यांश में एक शिल्पी की दुखद कहानी प्रस्तुत की गई है। उसने एक मूर्ति बनाई और उसे बेचने बाजार गया, लेकिन दुर्भाग्यवश वह न बिकी। घर लौटते समय उसका बच्चा ‘बताशा’ मांगते हुए दौड़ा। शिल्पी शब्दहीन होकर अपने बच्चे को गोद में लेकर रोने लगा। यह दृश्य पूंजीवाद और असमानता की आलोचना करता है, जिसमें कुछ लोग ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जीते हैं जबकि अन्य कठिन परिश्रम के बावजूद बुनियादी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते। लेखक प्रश्न करता है कि क्या पूंजीवाद की व्यवस्था में बुद्धि इतनी सीमित रह गई है कि समाज में इतनी भारी विषमता कायम हो गई है।