मौर्योत्तर काल की वास्तुकला में शिल्पकला की नई प्रवृत्तियाँ क्या थीं? इस काल में विकसित शैलियों का विश्लेषण करें।
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मौर्योत्तर काल की वास्तुकला और शिल्पकला में कई नई प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इस काल के दौरान शिल्पकला में जो परिवर्तन और नवाचार देखने को मिले, वे निम्नलिखित रूप में सामने आए:
1. सांस्कृतिक विविधता का समावेश:
मौर्य काल के बाद विभिन्न राजवंशों ने भारत पर शासन किया, जिनमें शुंग, कुषाण, सातवाहन, और गुप्त राजवंश प्रमुख हैं। इनके शासनकाल में शिल्पकला पर बौद्ध, हिंदू और जैन धार्मिक प्रभावों का मिश्रण दिखाई देता है। इस काल की कला में धार्मिक विविधता के साथ-साथ क्षेत्रीय शैलियों का भी उदय हुआ।
2. शिलालेख और मूर्तिकला का विस्तार:
मौर्योत्तर काल में मंदिरों, स्तूपों और विहारों में पत्थर की मूर्तियों का प्रमुखता से उपयोग हुआ। उदाहरण के लिए, सांची स्तूप की तोरण द्वार पर उत्कृष्ट नक्काशी और मूर्तिकला का अद्भुत नमूना देखने को मिलता है। इस काल में मूर्तिकला अधिक सजीव और विवरणपूर्ण हो गई, जिसमें धार्मिक पात्रों और देवी-देवताओं की आकृतियाँ अधिक जटिल और यथार्थवादी बनीं।
3. नागरी शैली और गुफा वास्तुकला:
इस काल की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति गुफा वास्तुकला थी। विशेषकर बौद्ध विहारों और चैत्यगृहों का निर्माण गुफाओं में किया गया। अजंता, एलोरा और नासिक की गुफाएँ इस काल की उत्कृष्ट गुफा वास्तुकला का उदाहरण हैं। इन गुफाओं में उकेरी गई मूर्तियाँ, स्तूप, और चित्रकारी धार्मिक और सांस्कृतिक संदेशों को दर्शाती हैं।
4. मंदिर वास्तुकला का प्रारंभ:
मौर्योत्तर काल में हिंदू मंदिरों के निर्माण की भी शुरुआत हुई। इस काल के मंदिरों में गार्भगृह (मूल पूजा स्थान) और शिखर (ऊंची संरचना) की विशेषता देखी गई। प्रारंभिक मंदिरों में उड़ीसा की लिंगराज मंदिर और भीतरगाँव का मंदिर प्रमुख उदाहरण हैं, जिनमें ईंटों और पत्थरों का उपयोग किया गया।
5. मूर्तियों की भावभंगिमा:
इस काल की मूर्तियों में मानव आकृतियों की भावभंगिमाओं और मुद्राओं पर विशेष ध्यान दिया गया। उदाहरण के लिए, बौद्ध मूर्तियों में ध्यानस्थ बुद्ध, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा, और अन्य शांति एवं करुणा के प्रतीक भाव देखे जा सकते हैं।
6. संगमरमर और अन्य पत्थरों का उपयोग:
मौर्य काल में चूंकि मुख्यत: पॉलिश किए गए पत्थरों का प्रयोग होता था, वहीं मौर्योत्तर काल में संगमरमर, बलुआ पत्थर, और अन्य स्थानीय पत्थरों का उपयोग व्यापक रूप से किया गया। विशेषकर मथुरा और गांधार कला में संगमरमर और बलुआ पत्थर की मूर्तियों का उपयोग देखने को मिलता है।
7. गांधार और मथुरा कला:
इस काल में गांधार और मथुरा कला का भी विकास हुआ। गांधार कला में ग्रीक-रोमन प्रभाव देखा गया, जहाँ मूर्तियों में यथार्थवादी और विस्तृत शारीरिक संरचना दिखाई देती है। मथुरा कला में भारतीय विशेषताओं को अधिक महत्व दिया गया, जहाँ मूर्तियाँ अधिक सजीव और आध्यात्मिक थीं।
8. स्थापत्य की संरचनात्मक जटिलता:
मौर्योत्तर काल में स्थापत्य कला अधिक जटिल और सजीव हो गई। स्तंभों, छतों और दीवारों पर नक्काशी और चित्रांकन का प्रयोग बढ़ा। दीवारों पर फूलों की बेल, मानव आकृतियाँ और धार्मिक कथाओं का चित्रण किया गया।
निष्कर्ष:
मौर्योत्तर काल की शिल्पकला और वास्तुकला में नवाचार और विविधता की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। धार्मिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताओं के कारण इस काल की वास्तुकला अधिक समृद्ध और जटिल हो गई।