69वें संविधान संशोधन अधिनियम के उन अत्यावश्यक तत्त्वों और विषमताओं, यदि कोई हों, पर चर्चा कीजिए, जिन्होंने दिल्ली के प्रशासन में निर्वाचित प्रतिनिधियों और उप-राज्यपाल के बीच हाल में समाचारों में आए मतभेदों को पैदा कर दिया है। क्या आपके विचार में इससे भारतीय परिसंघीय राजनीति के प्रकार्यण में एक नई प्रवृत्ति का उदय होगा ? (200 words) [UPSC 2016]
69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 ने दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसमें एक विधायिका और उप-राज्यपाल (LG) की नियुक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत:
अत्यावश्यक तत्त्व:
विधायिका की स्थापना: इस अधिनियम के तहत, दिल्ली को एक विधायिका प्राप्त हुई, जो राज्य सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों पर कानून बना सकती है जो संसद के विशिष्ट अधिकार में नहीं हैं।
उप-राज्यपाल की भूमिका: उप-राज्यपाल को दिल्ली का प्रशासक नियुक्त किया गया, जो कानून व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर नियंत्रण रखते हैं।
शक्ति विभाजन: दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों और उप-राज्यपाल के शक्तियों में स्पष्ट विभाजन किया गया, ताकि दैनिक प्रशासन दिल्ली सरकार देख सके, जबकि उप-राज्यपाल केंद्रीय नियंत्रण बनाए रखे।
विषमताएँ और मतभेद:
शक्ति का ओवरलैप: दिल्ली सरकार और उप-राज्यपाल के बीच शक्तियों का ओवरलैप, विशेष रूप से कानून व्यवस्था और भूमि मामलों में, अक्सर विवाद का कारण बनता है।
प्रशासनिक संघर्ष: उप-राज्यपाल की हस्तक्षेप और दिल्ली सरकार की स्वायत्तता के बीच टकराव ने प्रशासनिक कार्यों और नीतियों पर प्रभाव डाला है।
न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय ने इन विवादों के समाधान के लिए हस्तक्षेप किया, लेकिन इसने स्थिति की जटिलता और विवादों को बढ़ा दिया है।
भारतीय परिसंघीय राजनीति पर प्रभाव:
ये मतभेद भारतीय परिसंघीय राजनीति में नई प्रवृत्तियों को दर्शाते हैं। यह संकेत करता है कि केंद्रीय और राज्य अथवा क्षेत्रीय सरकारों के बीच शक्ति संतुलन और स्वायत्तता की समस्याएँ बढ़ सकती हैं। इससे भारतीय संघीय संरचना की पुनरावलोकन और बेहतर सुसंगतता की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है, ताकि इस तरह के संघर्षों को प्रभावी ढंग से हल किया जा सके।