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"Religious bigotry has always been an obstacle for progress in any democratic country." Discuss. (200 Words) [UPPSC 2019]
Religious Bigotry as an Obstacle to Progress in Democratic Countries Definition and Impact: Religious bigotry refers to intolerance and prejudice against individuals based on their religious beliefs. In democratic countries, this form of intolerance hinders social harmony and progress by creating diRead more
Religious Bigotry as an Obstacle to Progress in Democratic Countries
Definition and Impact: Religious bigotry refers to intolerance and prejudice against individuals based on their religious beliefs. In democratic countries, this form of intolerance hinders social harmony and progress by creating divisions and conflicts within society.
Historical Examples:
Impact on Progress:
Conclusion: Religious bigotry obstructs progress in democratic countries by fostering social divisions, impeding economic development, and violating human rights. Overcoming intolerance and promoting inclusivity are crucial for ensuring equitable growth and stability in democratic societies.
See lessनैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण की क्या प्रक्रिया है? क्या नैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण से चरित्र निर्माण में सहायता प्राप्त होती हैं? विवेचना करें। (125 Words) [UPPSC 2019]
नैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया 1. शिक्षा और जागरूकता: मूल्य शिक्षा: विद्यालयों और संगठनों में नैतिक शिक्षा का समावेश, जैसे कि सीबीएसई की मूल्य शिक्षा पाठ्यक्रम और विप्रो के नैतिक प्रशिक्षण कार्यक्रम, बच्चों और कर्मियों में नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ करता है। 2. आदर्श उदाहरण: नेतृत्व का प्रभावRead more
नैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया
1. शिक्षा और जागरूकता:
2. आदर्श उदाहरण:
3. आत्म-परिक्षण और आत्म-मूल्यांकन:
चरित्र निर्माण पर प्रभाव:
निष्कर्ष: नैतिक मूल्यों के सुदृढ़ीकरण के माध्यम से शिक्षा, आदर्श उदाहरण, और आत्म-परिक्षण से चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण सहायता मिलती है, जो नैतिक व्यवहार और व्यक्तिगत ईमानदारी को प्रोत्साहित करती है।
See less'भारत और यूनाइटेड स्टेट्स के बीच संबंधों में खटास के प्रवेश का कारण वाशिंगटन का अपनी वैश्विक रणनीति में अभी तक भी भारत के लिए किसी ऐसे स्थान की खोज करने में विफलता है, जो भारत के आत्म-समादर और महत्वाकांक्षा को संतुष्ट कर सके।' उपयुक्त उदाहरणों के साथ स्पष्ट कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
भारत और यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के बीच संबंधों में खटास का एक मुख्य कारण यह है कि वाशिंगटन अपनी वैश्विक रणनीति में भारत को ऐसा स्थान प्रदान करने में विफल रहा है जो भारत के आत्म-सम्मान और महत्वाकांक्षाओं को पूरी तरह से संतुष्ट कर सके। इस विषय पर विचार करते हुए, निम्नलिखित बिंदुओं और उदाहरणों के माRead more
भारत और यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के बीच संबंधों में खटास का एक मुख्य कारण यह है कि वाशिंगटन अपनी वैश्विक रणनीति में भारत को ऐसा स्थान प्रदान करने में विफल रहा है जो भारत के आत्म-सम्मान और महत्वाकांक्षाओं को पूरी तरह से संतुष्ट कर सके। इस विषय पर विचार करते हुए, निम्नलिखित बिंदुओं और उदाहरणों के माध्यम से इसे स्पष्ट किया जा सकता है:
1. अमेरिका की रणनीतिक प्राथमिकताएँ:
अमेरिका ने अपनी वैश्विक रणनीति में कई बार चीन को एक प्रमुख प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा है। इसके परिणामस्वरूप, भारत को अमेरिका की रणनीतिक प्राथमिकताओं में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। डिफेंस और सुरक्षा सहयोग के बावजूद, अमेरिका ने भारत के साथ एक व्यापक स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप स्थापित करने में धीमी गति दिखाई है, जिससे भारत की महत्वाकांक्षाओं को पूरी तरह से साकार नहीं किया जा सका।
2. व्यापारिक विवाद:
भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक विवादों ने भी संबंधों में खटास का योगदान किया है। उदाहरण के लिए, ट्रेड पॉलिसी और शुल्क के मुद्दों पर भारत और अमेरिका के बीच मतभेद रहे हैं। अमेरिका ने भारत के व्यापारिक नीतियों और संरक्षणवादी दृष्टिकोण पर आलोचना की है, जिससे व्यापारिक रिश्तों में तनाव उत्पन्न हुआ है।
3. आंतरराष्ट्रीय मंच पर भिन्न दृष्टिकोण:
भारत और अमेरिका के बीच अंतरराष्ट्रीय मंच पर भिन्न दृष्टिकोण भी खटास का कारण बने हैं। परमाणु संधि, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक आतंकवाद जैसे मुद्दों पर विभिन्न दृष्टिकोणों के कारण भारत को अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा है। उदाहरण के लिए, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) में भारत की सदस्यता के लिए अमेरिका का समर्थन ठोस नहीं रहा है, जिससे भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में बाधा आई है।
4. अमेरिकी रणनीति की सीमाएँ:
अमेरिका की वैश्विक रणनीति में भारत के लिए विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान की कमी ने भारत को नाराज किया है। अमेरिका ने साल 2021 में अफगानिस्तान से अपनी वापसी के दौरान भारत की चिंताओं और प्राथमिकताओं को पूरी तरह से नहीं समझा, जिससे भारत की सुरक्षा चिंताओं की अनदेखी हुई।
5. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में असंतोष:
क्लाइमेट चेंज और इंटेलिजेंस शेरिंग जैसे महत्वपूर्ण मामलों में भी भारत को पर्याप्त सहयोग नहीं मिला। इसने भारत को असंतुष्ट किया है और अमेरिका के साथ उसके संबंधों में खटास को बढ़ाया है।
इस प्रकार, अमेरिका की वैश्विक रणनीति में भारत को उचित स्थान प्रदान करने में विफलता के कारण भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में खटास आई है। भारत की आत्म-सम्मान और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, अमेरिका को अपनी नीति और सहयोग में बदलाव करना होगा।
See less'उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था में, भारत द्वारा प्राप्त नव-भूमिका के कारण, उत्पीड़ित एवं उपेक्षित राष्ट्रों के मुखिया के रूप में दीर्घ काल से संपोषित भारत की पहचान लुप्त हो गई है।' विस्तार से समझाइये । (250 words) [UPSC 2019]
भारत की उभरती वैश्विक भूमिका और उसकी दीर्घकालिक पहचान के बीच का संबंध एक जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दा है। यहाँ पर विस्तार से इस मुद्दे की विवेचना की जा सकती है: 1. भारत की नव-भूमिका: हाल के वर्षों में, भारत ने वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक वृद्धि, सामरिक शक्ति, और अंतर्राष्ट्रीयRead more
भारत की उभरती वैश्विक भूमिका और उसकी दीर्घकालिक पहचान के बीच का संबंध एक जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दा है। यहाँ पर विस्तार से इस मुद्दे की विवेचना की जा सकती है:
1. भारत की नव-भूमिका:
हाल के वर्षों में, भारत ने वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक वृद्धि, सामरिक शक्ति, और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सक्रियता के कारण भारत एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी बन चुका है। भारत की नव-भूमिका ने उसे एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में स्थापित किया है, जिससे वह वैश्विक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।
2. उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों की पहचान:
विगत दशकों में, भारत ने उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के अधिकारों की रक्षा और उनकी सहायता के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत ने वैश्विक दक्षिण (Global South) के प्रमुख देश के रूप में विकासशील देशों के मुद्दों को प्रोत्साहित किया और उनके हितों की रक्षा की। इस संदर्भ में, भारत ने दक्षिण-सुत्र सहयोग, विकास सहायता, और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उनकी आवाज उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. नव-भूमिका के प्रभाव:
भारत की नई वैश्विक भूमिका ने उसकी पुरानी पहचान को प्रभावित किया है। उसकी बढ़ती आर्थिक और सामरिक शक्ति ने उसे एक प्रमुख शक्ति बना दिया है, जिससे उसका ध्यान अब बड़े वैश्विक मुद्दों और भू-राजनीतिक खेलों पर केंद्रित हो गया है। इस प्रक्रिया में, उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के प्रति भारत की पारंपरिक पहचान और भूमिका कम हो गई है।
4. संतुलन बनाए रखने की चुनौती:
भारत को अपनी वैश्विक भूमिका और पारंपरिक पहचान के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वैश्विक शक्तियों के साथ रणनीतिक साझेदारी और आर्थिक सहयोग के बावजूद, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के प्रति अपनी ऐतिहासिक प्रतिबद्धता को बनाए रखे।
5. आगे की दिशा:
भारत को अपने नव-भूमिका के साथ-साथ अपनी पारंपरिक पहचान को पुनर्जीवित करने के प्रयास करने होंगे। यह आवश्यक है कि भारत अपने विकासशील देशों के साथ सहयोग, सहायता और समर्थन की नीतियों को मजबूत करे और वैश्विक मंच पर उनके अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाए।
इस प्रकार, भारत की उभरती वैश्विक भूमिका ने उसके उत्पीड़ित और उपेक्षित राष्ट्रों के मुखिया के रूप में दीर्घकालिक पहचान को प्रभावित किया है, लेकिन इसे संतुलित करने और समग्र वैश्विक राजनीति में अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण को बनाए रखने की आवश्यकता है।
See lessसुभेद्य वर्गों के लिए क्रियान्वित की जाने वाली कल्याण योजनाओं का निष्पादन उनके बारे में जागरूकता के न होने और नीति प्रक्रम की सभी अवस्थाओं पर उनके सक्रिय तौर पर सम्मिलित न होने के कारण इतना प्रभावी नहीं होता है। चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
सुभेद्य वर्गों के लिए क्रियान्वित की जाने वाली कल्याण योजनाओं का निष्पादन अक्सर सीमित प्रभावी होता है, और इसके पीछे जागरूकता की कमी और नीति प्रक्रम की सभी अवस्थाओं में सक्रिय भागीदारी की कमी एक महत्वपूर्ण कारण हैं। इस स्थिति की चर्चा निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. जागरूकता की कमी:Read more
सुभेद्य वर्गों के लिए क्रियान्वित की जाने वाली कल्याण योजनाओं का निष्पादन अक्सर सीमित प्रभावी होता है, और इसके पीछे जागरूकता की कमी और नीति प्रक्रम की सभी अवस्थाओं में सक्रिय भागीदारी की कमी एक महत्वपूर्ण कारण हैं। इस स्थिति की चर्चा निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. जागरूकता की कमी:
सुभेद्य वर्गों के बीच कल्याण योजनाओं के प्रति जागरूकता की कमी एक प्रमुख बाधा है। इन वर्गों में अक्सर गरीब, साक्षरता की कमी वाले और दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोग शामिल होते हैं, जिनके पास योजनाओं की जानकारी और उनके लाभों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप, ये वर्ग योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं।
2. नीति प्रक्रम में भागीदारी की कमी:
सुभेद्य वर्गों को नीति निर्माण और कार्यान्वयन के प्रक्रमों में उचित प्रतिनिधित्व और भागीदारी नहीं मिलती। यदि इन वर्गों को नीति निर्माण के दौरान शामिल नहीं किया जाता है, तो उनकी वास्तविक आवश्यकताओं और समस्याओं को ध्यान में नहीं रखा जाता, जिससे योजनाएं प्रभावी ढंग से लागू नहीं होती हैं।
3. प्रशासनिक समस्याएँ:
अक्सर, कल्याण योजनाओं के निष्पादन में प्रशासनिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जैसे कि धन की कमी, भ्रष्टाचार, और कार्यान्वयन में ढिलाई। ये समस्याएँ योजनाओं की प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं और सुभेद्य वर्गों को लाभ पहुँचाने में बाधक बनती हैं।
4. प्रवर्तन की कमी:
योजना कार्यान्वयन के दौरान प्रवर्तन और निगरानी की कमी भी एक महत्वपूर्ण समस्या है। यदि योजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन उचित ढंग से नहीं किया जाता, तो योजनाओं की गुणवत्ता और उनके लाभ पहुँचाने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
5. सांस्कृतिक और भाषाई अवरोध:
सुभेद्य वर्गों में सांस्कृतिक और भाषाई विविधता होती है, जिससे योजना के कार्यान्वयन में समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि योजनाएं स्थानीय सांस्कृतिक और भाषाई संदर्भ को ध्यान में नहीं रखती हैं, तो उनका प्रभाव सीमित होता है।
उपाय:
इन समस्याओं का समाधान करने के लिए, कल्याण योजनाओं को सुभेद्य वर्गों के लिए अधिक सुलभ और समावेशी बनाने की आवश्यकता है। इसमें जागरूकता अभियानों का आयोजन, नीति निर्माण में भागीदारी, और प्रशासनिक सुधार शामिल हैं। साथ ही, स्थानीय समुदायों को योजनाओं के क्रियान्वयन में शामिल करना और प्रभावी निगरानी सुनिश्चित करना आवश्यक है।
इस प्रकार, सुभेद्य वर्गों के लिए कल्याण योजनाओं की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए इन चुनौतियों को दूर करना और सुधारात्मक कदम उठाना आवश्यक है।
See lessविभिन्न सेवा क्षेत्रकों के बीच सहयोग की आवश्यकता विकास प्रवचन का एक अंतर्निहित घटक रहा है । साझेदारी क्षेत्रकों के बीच पुल बनाती है। यह 'सहयोग' और 'टीम भावना' की संस्कृति को भी गति प्रदान कर देती है। उपरोक्त कथनों के प्रकाश में भारत के विकास प्रक्रम का परीक्षण कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
भारत के विकास प्रक्रम में विभिन्न सेवा क्षेत्रों के बीच सहयोग और साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सहयोग न केवल विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है, बल्कि 'सहयोग' और 'टीम भावना' की संस्कृति को भी प्रोत्साहित करता है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से इस परिदृश्य की विवेचना की जा सकतRead more
भारत के विकास प्रक्रम में विभिन्न सेवा क्षेत्रों के बीच सहयोग और साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह सहयोग न केवल विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है, बल्कि ‘सहयोग’ और ‘टीम भावना’ की संस्कृति को भी प्रोत्साहित करता है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से इस परिदृश्य की विवेचना की जा सकती है:
1. विभिन्न सेवा क्षेत्रों के बीच सहयोग:
भारत में विकास प्रक्रम को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न सेवा क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, और सूचना प्रौद्योगिकी के बीच सहयोग आवश्यक है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों के बीच साझेदारी से स्वास्थ्य शिक्षा के कार्यक्रम लागू किए जा सकते हैं, जो लोगों को स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।
2. साझेदारी और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP):
पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल के तहत, सरकार और निजी क्षेत्र एक साथ मिलकर विकासात्मक परियोजनाओं को लागू करते हैं। सड़क निर्माण, मेट्रो परियोजनाएँ, और ऊर्जा क्षेत्र में PPP मॉडल ने सुधारात्मक और विकासात्मक उपायों को गति दी है। यह सहयोग निजी क्षेत्र की दक्षता और सरकारी क्षेत्र के संसाधनों का समन्वय करता है।
3. संघीय और राज्य स्तर पर समन्वय:
विकास प्रक्रम के सफल कार्यान्वयन के लिए संघीय और राज्य स्तर पर समन्वय आवश्यक है। स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा की गुणवत्ता, और बुनियादी ढांचे के विकास में राज्य और केंद्र सरकार के बीच सहयोग ने नीतिगत सुधार और कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
4. टीम भावना और कार्यसंस्कृति:
विभिन्न सेवा क्षेत्रों के बीच सहयोग से टीम भावना और साझा उद्देश्य की भावना को बढ़ावा मिलता है। यह कर्मचारियों को एक साथ काम करने के लिए प्रेरित करता है और उन्हें साझा लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
5. स्थानीय और वैश्विक दृष्टिकोण:
स्थानीय और वैश्विक दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग महत्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के तहत, भारत ने विभिन्न देशों और संगठनों के साथ मिलकर विकास परियोजनाओं को साझा किया है, जो वैश्विक स्तर पर आर्थिक और सामाजिक समावेशन को प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार, भारत के विकास प्रक्रम में विभिन्न सेवा क्षेत्रों के बीच सहयोग और साझेदारी एक महत्वपूर्ण घटक है। यह न केवल विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सुधारों को भी प्रोत्साहित करता है।
See lessराष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में अकेले एक संसद सदस्य की भूमिका अवनति की ओर है, जिसके फलस्वरूप वादविवादों की गुणता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ भी चुका है। चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. विधायी प्रभावशीलता की कमी: एक अकेला संसद सदस्य, विशRead more
एक संसद सदस्य की राष्ट्रीय विधि निर्माता के रूप में भूमिका को लेकर कई चुनौतियाँ हैं, जिनके परिणामस्वरूप वादविवादों की गुणवत्ता और उनके परिणामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इन समस्याओं की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. विधायी प्रभावशीलता की कमी:
एक अकेला संसद सदस्य, विशेष रूप से एक छोटे दल या स्वतंत्र सदस्य, अक्सर विधायी प्रक्रिया में प्रभावी भूमिका निभाने में असमर्थ हो सकता है। उसके पास सीमित संसाधन, समर्थन और आवाज होती है, जो उसे प्रमुख मुद्दों पर प्रभाव डालने से रोकती है।
2. विवादों की गुणवत्ता:
एक सदस्य की सीमित शक्ति और संसाधनों के कारण, वादविवादों की गुणवत्ता में कमी हो सकती है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन और सूक्ष्म विवेचन की कमी हो सकती है, जो विधायिका के समग्र कार्यक्षमता को प्रभावित करती है।
3. संसदीय कार्यप्रणाली पर प्रभाव:
एक सदस्य की सीमित भूमिका के कारण, विधायिका में निर्णय लेने की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। महत्वपूर्ण विधायी प्रस्तावों और निर्णयों में गहन बहस और विचार-विमर्श की कमी हो सकती है, जिससे पारदर्शिता और गुणात्मक निर्णयों पर असर पड़ता है।
4. संसदीय दायित्व और प्राथमिकताएँ:
अक्सर एक सदस्य की प्राथमिकताएँ और संसदीय दायित्व उसके स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं और उसकी व्यक्तिगत चिंताओं पर केंद्रित हो सकती हैं, जो राष्ट्रीय मुद्दों पर व्यापक दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।
5. समर्थन की कमी:
अकेला सदस्य अक्सर पार्टी के नेतृत्व, संसदीय दल, और संसदीय समितियों के समर्थन से वंचित रहता है। यह स्थिति उसे विधायी कार्यों में सक्रिय और प्रभावी भागीदारी में कठिनाई का सामना कराती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए, संसदीय प्रक्रियाओं में सुधार, दलगत सहयोग को बढ़ावा देना और संसदीय कार्यप्रणाली को अधिक समावेशी और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। इस प्रकार, एक सदस्य की भूमिका को मजबूत करने के लिए आवश्यक संसाधनों और समर्थन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
See less“महान्यायवादी भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है।" चर्चा कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
महान्यायवादी (Attorney General) भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है। इस पद की प्रमुख जिम्मेदारियाँ और भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं: 1. विधि सलाहकार की भूमिका: महान्यायवादी भारत सरकार को विधिक सलाह प्रदान करता है और कानूनी मामलों में सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता है। यह पद विशेष रूप से संRead more
महान्यायवादी (Attorney General) भारत की सरकार का मुख्य विधि सलाहकार और वकील होता है। इस पद की प्रमुख जिम्मेदारियाँ और भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं:
1. विधि सलाहकार की भूमिका:
महान्यायवादी भारत सरकार को विधिक सलाह प्रदान करता है और कानूनी मामलों में सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता है। यह पद विशेष रूप से संवैधानिक और प्रशासनिक मुद्दों पर सरकार की सहायता करता है, और उसकी सलाह सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
2. कानूनी प्रतिनिधित्व:
महान्यायवादी सरकार के पक्ष में न्यायालयों में प्रतिनिधित्व करता है। यह व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट और अन्य न्यायालयों में सरकार की ओर से दलीलें प्रस्तुत करता है और सरकार के कानूनी मामलों में उसके हितों का संरक्षण करता है।
3. समीक्षा और सलाह:
महान्यायवादी विधायी प्रस्तावों और सरकारी निर्णयों की कानूनी समीक्षा करता है और सरकार को विधिक दृष्टिकोण से मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसके तहत, वह विभिन्न विधायी विधेयकों, आदेशों और नीतियों की कानूनी वैधता की समीक्षा करता है।
4. स्वतंत्रता और निष्पक्षता:
महान्यायवादी का कार्य स्वतंत्र और निष्पक्ष होना चाहिए, हालांकि यह भी महत्वपूर्ण है कि वह सरकार के प्रति निष्ठावान रहे। यह संतुलन बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है, ताकि कानूनी सलाह और प्रतिनिधित्व में निष्पक्षता और सरकार के दृष्टिकोण का उचित प्रतिनिधित्व हो।
5. अस्थायी स्थिति:
महान्यायवादी को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और उसकी नियुक्ति सरकार की इच्छा के आधार पर होती है। यह पद अस्थायी होता है और समय-समय पर बदला जा सकता है।
महान्यायवादी की ये भूमिकाएँ भारत की सरकार के कानूनी प्रबंधन में केंद्रीय महत्व रखती हैं। यह पद न केवल कानूनी सलाह प्रदान करता है, बल्कि सरकार की कानूनी स्थिति और नीति को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
See less“स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण का भारत के राजनीतिक प्रक्रम के पितृतंत्रात्मक अभिलक्षण पर एक सीमित प्रभाव पड़ा है।" टिप्पणी कीजिए । (250 words) [UPSC 2019]
भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण के बावजूद, इसका पितृतंत्रात्मक राजनीतिक प्रक्रम पर सीमित प्रभाव पड़ा है। इस स्थिति की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. आरक्षण की प्रक्रिया और प्रभाव: स्थानीय स्वशासन के लिए महिलाओं के लिए 33% सीटों का आरRead more
भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण के बावजूद, इसका पितृतंत्रात्मक राजनीतिक प्रक्रम पर सीमित प्रभाव पड़ा है। इस स्थिति की विवेचना निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. आरक्षण की प्रक्रिया और प्रभाव:
स्थानीय स्वशासन के लिए महिलाओं के लिए 33% सीटों का आरक्षण संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के तहत किया गया है। इसका उद्देश्य महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाना और उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना है। हालांकि, आरक्षण ने महिलाओं की संख्या में वृद्धि की है, लेकिन यह पितृतंत्रात्मक संरचना के प्रभाव को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाया है।
2. पितृतंत्रात्मक बाधाएँ:
अनेक मामलों में, आरक्षित सीटों पर महिलाओं को नामांकित किया जाता है, लेकिन वास्तविक राजनीतिक शक्ति उनके हाथ में नहीं होती। अक्सर, महिलाओं को पितृसत्तात्मक परिवारों द्वारा उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जहां वे खुद चुनावी प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाने की बजाय, परिवार के पुरुष सदस्य की ओर से प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार, महिला आरक्षण के बावजूद, पारंपरिक पितृतंत्रात्मक संरचनाएँ कायम रहती हैं।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव:
महिलाओं के लिए आरक्षण के बावजूद, भारतीय समाज में गहरी जड़ी हुई पितृसत्तात्मक धारणाएँ और सांस्कृतिक मान्यताएँ महिलाओं की प्रभावी भागीदारी में बाधक बनती हैं। इन सामाजिक बाधाओं के कारण, महिलाओं की वास्तविक स्थिति में सुधार नहीं हो पाता और उनके निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
4. प्रशासनिक और कानूनी समर्थन की कमी:
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में महिलाओं को सशक्त करने के लिए पर्याप्त प्रशासनिक और कानूनी समर्थन की कमी भी है। प्रशिक्षण, संसाधनों और अधिकारों की कमी महिलाओं की राजनीतिक प्रभावशीलता को सीमित करती है।
इस प्रकार, जबकि महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण एक महत्वपूर्ण कदम है, पितृतंत्रात्मक अवशेष और सामाजिक बाधाएँ महिलाओं की राजनीतिक स्थिति पर सीमित प्रभाव डालती हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए और अधिक सशक्तिकरण और समर्थन की आवश्यकता है।
See less"संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे आत्यंतिक शक्ति के रूप में विस्तृत नहीं किया जा सकता है।" इस कथन के आलोक में व्याख्या कीजिए कि क्या संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत अपनी संशोधन की शक्ति का विशदीकरण करके संविधान के मूल ढांचे को नष्ट कर सकती है ? (250 words) [UPSC 2019]
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 1. संविधान की संशोधन शक्ति: अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संRead more
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है, लेकिन यह शक्ति एक परिसीमित शक्ति है और इसे अनंत या पूर्ण शक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसका व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
1. संविधान की संशोधन शक्ति:
अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, संसद को संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की शक्ति है, जो एक विधायी प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है। संशोधन के लिए संसद में प्रस्ताव पेश किया जाता है, और इसे दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाता है, उसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है।
2. संविधान के मूल ढांचे की रक्षा:
केशवानंद भारती केस (1973) में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति नहीं है। संविधान का मूल ढांचा उन आधारभूत सिद्धांतों और प्रावधानों का समूह है जो संविधान की स्थिरता और पहचान को बनाए रखते हैं। इनमें संघीय ढांचा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और मौलिक अधिकार शामिल हैं।
3. संशोधन की सीमाएँ:
संसद की संशोधन शक्ति परिसीमित है, जिसका अर्थ है कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसा संशोधन प्रस्तावित करती है जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या उसे कमजोर करता है, तो वह संशोधन न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन की समीक्षा कर सकता है और यह तय कर सकता है कि क्या वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है या नहीं।
इस प्रकार, संसद के पास संविधान के मूल ढांचे को नष्ट करने की शक्ति नहीं है, और उसकी संशोधन शक्ति इस ढांचे के प्रति संरक्षित रहती है।
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